पुस्तक समीक्षा: निष्‍ठुर समय से टकराती औरतों की संघर्षगाथा दर्शाता कहानी संग्रह

”छोटी-छोटी कहानियां अपने में औपन्‍यासिक कलेवर को समेटे हुए हैं। पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद के साथ सांप्रदायिकता ने भारत के सामाजिक जीवन को संवेदनशून्‍य बना दिया है – इसकी गूंज कहानियों में भरपूर है। संग्रह के स्‍त्रीपात्र परिपाटियों को तोड़ने के लिए तत्‍पर हैं…।’’

कवि और कथाकार शोभा सिंह ने अपनी कहानियों के प्‍लाट समाज के अलग-अलग क्षेत्रों से चुने हैं जो उनके जीवन के व्‍यापक अनुभवों के परिचायक हैं। उनकी हर कहानी पाठक को जीवन के एक अलग पहलू और रंग-ढंग से परिचित कराती है। बहुआयामी रचना संसार की सृष्टि करती हैं ये कहानियां।

‘चाकू समय में हथेलियां’ शोभा सिंह का पहला कहानी संग्रह है – इस संग्रह में कुल चौदह कहानियां हैं। सभी कहानियां अपने-अपने क्षेत्र के महिला किरदारों को प्रस्‍तुत करती हैं। शोभा जी की कहानियों के पात्र अनपढ़ महिला से लेकर लेडी डॉक्‍टर तक और ग्रामीण आदिवासी से लेकर शहरों के सुशिक्षित पात्रों तक विस्‍तार पाते है। इनमें श्रमजीवी महिलाएं हैं बिजनेस तथा उच्‍च शिक्षित महिला किरदार भी हैं। ये किरदार अपने-अपने जीवन संघर्षों से जूझते हुए दिखते हैं। कहानियां इस तरह बुनी गई हैं कि उनका जीवन संघर्ष पाठक के मन-‍मस्तिष्‍क पटल पर सजीव हो उठता है।

संग्रह की पहली कहानी है- ‘रमन्‍ना महुआ और गोली’ – यह कहानी कारपोरेट जगत द्वारा आदिवासियों के जल जंगल जमीन के साथ-साथ उनके घर-गांव से भी उजाड़ने की कहानी है जिसमें रमन्‍ना, रॉबर्ट और मरियम को पुलिस की गोली का शिकार होना पड़ता है। फिर भी वे अपने घर-गांव और जल जंगल तथा जमीन को बचाने की कोशिश करते हैं।

इसी तरह ‘बंद घडि़यां’ जेल जीवन को दर्शाती है। अपने घर-समाज-सुख से वंचित की गईं औरतें बंद घडि़यों जैसी ही तो होती हैं। इसमें दिखाया गया है कि जेल में महिला कैदियों का जीवन किस प्रकार का होता है।

‘नाम बदलना जरूरी क्‍यों?’ घरों-कोठियों में काम करने वाली ऐसी मुस्लिम महिलाओं की कहानी है जो हिंदू घरों में काम करने के लिए अपना नाम हिंदू वाला (जैसे रानी आदि) रख लेती हैं। उन्‍हें डर होता है कि मुसलमान बताने पर हिंदू काम देने वाले उसे काम से न निकाल दें। उनके पति को आतंकवादी या देशद्रोही न समझ लें।

कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘चाकू समय मे हथेलियों की छाप’ की नायिका मीना नाम की युवती है। वह छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिला है। शहर में किस तरह उस निर्दोष युवती को एक युवक द्वारा अपनी बहन के हत्‍या के षडयंत्र में फंसा दिया जाता है। दो मासूम बच्‍चों की मां निर्दोष महिला जेल की सजा काट रही है। यह कहानी हमारी न्‍याय व्‍यवस्‍था पर सवाल उठाती है। इसके सा‍थ ही यह महिला की अकेले संघर्ष की ऐसी दास्‍तान है जिसमें औरतों के कठिन जीवन संघर्षों की कड़ी से कड़ी जुड़ती ही जाती है।

‘मनिया की लाल गुड़िया’ में किस तरह पुरुषसत्ता द्वारा एक बालिका को जबरन वधू बना कर गुमनामी के अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। इसका मार्मिक वर्णन किया गया है। यह कहानी दर्शाती है कि समाज मे पितृसत्ता की जड़ें कितनी मजबूत हैं।

‘कंप्‍यूटर ट्रेनिंग’ कहानी में मिशनरी स्‍कूल से बारहवीं पास लड़कियों को पास के कस्‍बे में निशुल्‍क कंप्‍यूटर ट्रेनिंग का ऑफर मिलता है तो ग्रामीण क्षेत्र की गरीब लड़कियों में कंप्‍यूटर सीखने की ललक इतनी है कि वे समूह में बस से सफर तय कर कंप्‍यूटर सीखने जाती हैं।

‘कूबड़वाली लड़की’ इस संग्रह की बहुत की मार्मिक कहानी है। चार बहनों और एक भाई मेंं सबसे छोटी बहन माया इस कहानी की प्रमुख किरदार है यानी कूबड़ वाली लड़की। इन भाई बहनों में एक लक्ष्‍मी बहन को छोड़कर सब बहन भाई उस अपाहिज लड़की को अपने-अपने काम के लिए इस्‍तेमाल करते हैं पर उसकी निजी जिंदगी के दुख-दर्द को कोई समझना नहीं चाहता। वह अपने आप से पूछती है – आखिर मैं इस धरती पर क्‍यों आई?

‘किसिम, किेसिम के हाथी’ भी आदिवासी पृष्‍ठभूमि की कहानी है। जिसमें आदिवासी लड़किेयां ईंट भट्टे से लेकर शहर में नौकरी तक का सफर तय करती हैं। इस कहानी की प्रमुख किरदार रूकमा है उसकी तीन सहेलियां हैं। इस कहानी में चाचा और दमयंती जैसे अच्‍छे और मददगार किरदार हैं तो ठेकेदार और पुलिस वाले किसिम किसिम के शोषक भी हैं जिन्‍हें किसिम किसिम के हाथी कहा गया है। कुल मिलाकर यह कहानी भी आदिवासी लड़कियों के जिजीविषा और जीवन के प्रति संघर्ष की कहानी है। जिसमें लड़किेयां खुद को शोषण से बचाती हैं और सम्‍मान के जीने के लिए संघर्ष की राह चुनती हैं।

‘एक अधूरी-सी कहानी’ कमला नाम की एक गरीब महिला की कहानी है जिसकी शादी चार भाईयों में से सबसे छोटे भाई से होती है पर उसे चारों भाईयों की पत्‍नी की भूमिका निभानी होती है। उस पर तुर्रा ये कि जब वह गर्भवती होती है तो उससे यह उम्‍मीद की जाती है कि वह बेेटे को ही जन्‍म दे। जैसे बेटे या बेटी के जन्‍म देना उसकी मर्जी पर हो। इसमें हमारे समाज की रूढि़वादी कुप्रथा पर प्रहार किया गया है।

‘तारा बनी नर्स दीदी’ केरल की मीना और मरियम नाम की दो नर्सोंं की कहानी है जो कलकत्ता (अब कोलकाता) के सबसे पुराने अस्‍पताल में काम करती हैं। किसी कारण से उस अस्‍पताल में आग लग जाती है और मरीजों के बचाते-बचाते उन दोनों नर्सों की मृत्‍यु हो जाती है। इसमें नर्सों का अपने मरीजों के प्रति मानवतावादी दृष्टिकोण की पराकाष्‍ठा दिखाई गई है जो अपने फर्ज की खातिर अपनी जान तक गंवा देती हैं।

‘दुल्हिन, वचन न निभा पाई…’ बिहार की पृष्‍ठभूमि पर आधारित एक ऐसी महिला की कथा है जो जीवन भर परिवार और समाज के प्रति अपने कर्तव्‍य का पालन करती रही। जीवन के कटु अनुभवों का जहर भी सामान्‍य भाव से पीती रही। अपने अंत समय तक किसी पर बोझ नहीं बनी।

‘असमी बहू’ कहानी मेंं एक ऐसे कलियुगी ससुर को अपनी ही पुत्र वधू पर नीयत खराब होते दिखाया गया है जिसके लिए वह अपने बेटे की जान तक लेने से नहीं चूकता। पर असमी बहू उसके आगे समर्पण नहीं करती। गांव वालों को यही लगता है कि जिस तरह उसने अपनी दोनों बेटियों को बेच दिया था उसी तरह असमी बहू को भी ससुर ने अच्‍छे दामों पर बेच दिया होगा। यह कहानी हमारे समाज की विसंगतियों का पर्दाफाश करती है।

‘सार्थकता का द्वन्‍द्व’ कमला और डॉ. नीरजा की ऐसी कहानी है जो अपने जीवन के अलावा समाज के हित के लिए काम करती रहती हैं। पैंतालीस-पचास साल की कमला खुद नैरेटर के रूप में कहानी को आगे बढ़ाती हैं। पच्‍चीस-छब्‍बीस साल की युवा डॉ. नीरजा अपना एक निजी क्‍लीनिक चलाती है। गरीबों का कम दर पर इलाज करती है।

शादी के बाद महाराष्‍ट्र में वह अपने पति और जुड़वां बच्‍चों के साथ एक छोटा-सा अस्‍पताल खोलकर जरूरतमंदों का उचित दर पर इलाज करने के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में भी भागीदारी करती है। डॉ. नीरजा कमला आंटी को भी सामाजिक कार्यों में सहभागिता करने के लिए महाराष्‍ट्र बुलाती रहती है। इस तरह ये दोनो महिलाएं अपने-अपने स्‍तर पर सार्थक जीवन जीती हैं। बकौल नैरेटर सार्थकता का द्वन्‍द्व एसे ही नई डगर पर चलता रहता है। चट्टान को ढकेलती औरतें एक नई डगर निकाल ही लेती हैं। नीरजा और कमला ही नहीं उन जैसी अनगिनत औरतें ढकेल रही हैं समय की चट्टानों को और गढ़ रही हैं नए समाज को।

संग्रह की आखिरी कहानी है – ‘मैडम और बंगाली आंटी’। इसमें पश्चिम बंगाल के एक ऐसे धनाढ्य जैन परिवार की कहानी है जिसमें एक व्‍यक्ति दो शादियां करता है। वह अपनी छोटी पत्‍नी के साथ समय बिताता है। पहली पत्‍नी अपनी बंगाली आंटी नौकरानी के साथ मिलकर पूरे परिवार का प्रबंधन करती है। पत्‍नी का पति के प्रति अहम या क्रोध भाव ऐसा है कि पति के मरने तक उससे बात नहीं करती। हालांकि एकांत में बहुत दुखी भी होती है। उसका मानना है कि पसंद की जिंदगी और सम्‍मान – इससे बड़ा सुख कुछ नहीं।

इस संग्रह की कहानियों पर अपनी बात रखते हुए शोभा सिंह लिखती हैं -‘’जीवन संघर्ष, कुछ जन आंदोलन के संचित अनुभव और उनसे सजोई गई दास्‍तानें हैं ये …..महिला किरदार अपने अंदर के तूफान बड़ी खूबी से सहेजे, अपनी आशा को अखंडित रखती हैं। अपने जीवन के नमक को बचाए रखती हैं।

इस तरह ये अपने स्‍वाभिमान और इंसानियत की पुख्‍ता के आवाज बन जाती हैं।…ऐसे अनगिनत किरदार मुझसे जीवन यात्रा में टकराए, जिनकी छाप मुझ पर रही। इन किरदारों की गतिशीलता, प्रेम से लबालब हृदय, स्‍पष्‍ट विचार और उनका जीवन संघर्ष एक मिसाल बनते हुए भी एक कसक, एक काश का प्रश्‍नचिन्‍ह लगा गए।’’

कथाकार किरण सिंह इन कहानियों पर अपनी बात रखते हुए लिखती हैं- ‘’रचनाकार कि जीवनानुभव और हृदय का इतना विस्‍तार है कि उसमें असम, बंगाल, तमिलनाडु, केरल, बिहार की कथा स्थितियां अपनी सांस्‍कृतिक समृद्धि के साथ आती हैं। मुस्लिम, ईसाई और आदिवासी समाज के चरित्र अपनी पृष्‍ठभूमि की बोली-बानी और रहन-सहन के साथ हैं।… इनकी स्त्रियां वगभेद, जातिभेद, लिंगभेद से ऊपर, इंसान हैं। ऐसी इंसान जो चट्टानों को ढकेलती हैं…एक नई डगर निकाल ही लेती हैं।”

कवयित्री और कथाकार प्रोफेसर हेमलता महिश्‍वर इन कहानियों के बारे में लिखती हैं -”छोटी-छोटी कहानियां अपने में औपन्‍यासिक कलेवर को समेटे हुए हैं।…पितृसत्ता और ब्राह्णवाद के साथ सांप्रदायिकता ने भारत के सामाजिक जीवन को संवेदन शून्‍य बना दिया है – इसकी गूंज कहानियों में भरपूर है। संग्रह के स्‍त्रीपात्र परिपाटियों को तोड़ने के लिए तत्‍पर हैं पर पुरुष का अहं आड़े आ जाता है।”

शोभा जी की कहानियों में पात्र यथार्थवादी होते हैं कहीं वे यथास्थितिवाद से टकराते हैं तो कहीं समझौता कर लेते हैं। उनकी कहानियों के पात्र खासकर स्‍त्री पात्र हमें ऐसी दुनिया के दर्शन करा जाते हैं जो हमारे आसपास है सकारात्‍मक बदलाव के लिए बेताब है और दूसरी ओर ऐसी दुनिया को भी दिखा जाते हैं जिसे देखकर पाठक को लगता है कि ऐसी सामाजिक बुराईयां अब और काबिले-बर्दाश्‍त नहीं, इनका खात्‍मा कर एक ऐसी दुनिया बेहतर दुनिया बनाई जानी चाहिए जहां हर कहानी का हर पात्र आत्‍म सम्‍मान के साथ सुख से अपनी जिंदगी जी सके।

संग्रह पूर्णत: पठनीय है। एक बार अवश्‍य पढ़ा जाना चाहिए।

(राज वाल्‍मीकि लेखक एवंं समीक्षक हैं।)

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