लोकरंग महोत्सव: लोक संस्कृति को बचाने के लिए साझा आंदोलन समय की मांग

Estimated read time 1 min read

कुशीनगर। लोक संस्कृति पर हो रहे सांस्कृतिक हमले के खिलाफ साझा आंदोलन की जरूरत महसूस की जा रही है। लोक संस्कृति के भविष्य के सवाल पर देश-विदेश से आये सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने एक दिवसीय मंथन के दौरान यह आवश्यकता जताई। यूपी के कुशीनगर जिले के जोगिया जनूबी पट्टी गांव में आयोजित दो दिवसीय लोकरंग महोत्सव के अंतिम दिन 16 अप्रैल को ‘लोक संस्कृति का भविष्य बनाम भविष्य की लोक संस्कृति’ विषयक संगोष्ठी में वक्ताओं ने यह बातें कहीं।

देश के प्रमुख समाजिक कार्यकर्ता डा. सुरेश खैरनार ने संगोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि बोलते हुए कहा कि पूरी दुनिया एक बदलाव के दौर से गुजर रही है। तकनीक ने हमारे रहन-सहन व जीवनशैली को सीधे प्रभावित किया है। घरों में हाथ से संचालित जांत से गेहूं की पिसाई से लेकर संयुक्त परिवार में अनवरत जलते रहने वाले चूल्हे अब गुजरे दिन की बात हो गई है। इन पारंपरिक चलन के बंद हो जाने को मैं महिलाओं के लिए सकारात्मक दृष्टि से देखता हूं।

अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए डा. सुरेश ने कहा कि रविन्द्र नाथ टैगोर ने कोलकता में विश्वभारती की स्थापना जिस मकसद से किया था, वह अपनी पहचान खोती जा रही है। हम यह कह सकते हैं कि अब यहां टैगोर की आत्मा नहीं है। यह सब अचानक नहीं हुआ है। यह हमारी संस्कृति पर साजिशन हो रहे हमलों का परिणाम है। हमारी मूल संस्कृति को समाप्त करने की सौ वर्ष पूर्व जिसने सपना देखा था। उस सांस्कृतिक संगठन आरएसएस का वह कदम अब साकार रूप में दिखने लगा है। उसको लेकर हमें अब भी सचेत होना होगा। साथ ही देश की साझी लोक संस्कृति को बचाने के लिए एकजुट प्रयास करने होंगे।

उन्होंने कहा कि लोक संस्कृति में बहुत कुछ ऐसा था जिसके छूट जाने या दूर हो जाने को अच्छा कहा जाना चाहिए। ख़ासकर महिलाओं के श्रम का शोषण करने वाली व्यवस्था का लोक संस्कृति का नाम पर गौरवगान करने की कोई ज़रूरत नहीं है। उन्होंने भेष-भूषा, खान-पान के नाम पर लिंचिंग और हमले का प्रतिरोध न होने को सांस्कृतिक पतन की पराकाष्ठा बताते हुए कहा कि लोक संस्कृति के संकट को समग्रता में राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक संकट के बतौर देखने और उसका मुक़ाबला करने की ज़रूरत है।

रीवा विश्वविद्यालय मध्य प्रदेश से आये प्रो. दिनेश कुशवाहा ने कहा कि हमारी मिश्रित लोक संस्कृति है। धर्मसत्ता, राजसत्ता, पितृसत्ता मिलकर इसे संचालित करती है। इस समय धर्मसत्ता के सहारे हमारी लोक संस्कृति पर हमला किए जा रहे हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम राम की अब क्रुद्ध तस्वीर पेश की जा रही है। हमने इस बार देखा की अन्य वर्ष से अधिक व्यापक रूप में हनुमान जयंती मनाई गई। इनकी भी तस्वीर अब खतरनाक रूप में दिखाई जा रही है।

संगोष्ठी में बोलते प्रो. दिनेश कुशवाह

लोक संस्कृति में राजसत्ता के माध्यम से आ रहे बदलाव की चर्चा करते हुए प्रो. दिनेश कुशवाहा ने कहा कि नब्बे के दशक में बतौर प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने भूमंडलीकरण को अपनाकर 3 हजार का जूता व 30 हजार की घड़ी का बाजार देने का काम किया। हमारी लोक संस्कृति को सहेजने के लिए जनधर्मी आंदोलन की आवश्यकता है। इसके लिए छोटे-छोटे प्रयास करने होंगे। भाषा व प्रांत की सीमा को लांघकर एक संयुक्त आंदोलन समय की मांग है। लोक संस्कृति को जन संस्कृति में बदलना होगा।

विचार गोष्ठी के पहले वक्ता वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार सिंह ने कहा कि लोक संस्कृति का सीधा संबंध सामूहिकता और श्रम से है। आज उत्पादन संबंध बदल रहे हैं, संप्रेषण के माध्यम भी बदल गये हैं लेकिन श्रमशील जनता के दुःख और पीड़ा में कमी आने के बावजूद उसमें विस्तार हुआ है। शासक वर्ग एक तरफ़ परंपरा के नाम पर पुराने पतनशील मूल्यों व विचारो को बढ़ावा दे रहा है तो दूसरी तरफ़ आधुनिकता के नाम पर पूंजीवादी विचार का वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश कर रहा है।

उन्होंने कहा कि लोक संस्कृति शासक वर्ग के पतनशील मूल्यों के प्रभाव में हैं। आज जिन चंद अमीरों ने देश की संपत्ति पर कब्जा कर बहुसंख्यक जनता को भूखा और ग़रीब बना दिया है वे ही कल्चरल सेंटर स्थापित कर संस्कृति को संरक्षित व आगे बढ़ाने की बात कर रहे हैं। ऐसे समय में नये प्रयोगों के ज़रिए दमन और हिंसा के बीच जनता की संस्कृति को विकसित का साहस करना होगा।

झारखंड से आयीं वरिष्ठ लेखिका एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता वंदना टेटे ने कहा कि आदिवासी पुरखा संस्कृति में विश्वास करते हैं जो हमारी ज्ञान परंपराओं, गीत, कहानी, गाथाओं से बनी है। आज लोग लोक संस्कृति को जीने का भ्रम प्रदर्शित करते हैं लेकिन वास्तव में उसे नहीं जीते हैं। यदि हम मूल से हटे बिना लोक कला में कुछ नया जोड़ रहे हैं तभी हम लोक संस्कृति के भविष्य को बेहतर बनते देख पायेंगे।

वरिष्ठ लेखिका एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता वंदना टेटे

वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक चंद्रभूषण ने कहा कि शासक वर्ग ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए संस्कृति को औज़ार बना रखा है। हमें एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार होना चाहिए। आज के समय में कलात्मक पूंजी बढ़ रही है लेकिन उसके अनुरूप प्रयोग नहीं हो रहे हैं। लोक कलाओं में अशिक्षित लोग भी अपनी रचनाओं में बड़े बड़े बिंब उपस्थित करते हैं जिसे टेक्निक से नहीं लाया जा सकता। यह लोक की सहज संवेदना से संभव हो पाता है। कला का मन बड़ी चीज होती है न कि टेक्निक। उन्होंने कहा कि जन संस्कृति को लोक संस्कृति के क़रीब जाना चाहिये।

दीन दयाल विश्वविद्यालय गोरखपुर के प्रो. रामनरेश राम ने कहा हमारा समाज विभिन्न जाति व समुदाय में बंटा हुआ है। लोकसंस्कृति में प्रतिरोध के हिस्से को बचाना होगा। गांव का जीवन बदल रहा है, तो लोक संस्कति भी बदल रही है। सत्ता में कब्जा करने का संस्कृति हमेशा माध्यम रही है। जातिवाद की संस्कृति का मुकाबला किए बिना प्रगतिशील लोकसंस्कृति की बात नहीं की जा सकती है। आज गैर जाति व धर्म में शादी करने वालों को संरक्षित करना होगा। इसी से ही सही मायने में हमारी लोक संस्कृति समृद्ध होगी। इससे हमारी धर्मनिरपेक्षता व मुक्तिकामी संस्कृति विकसित होगी।

साकेत महाविद्यालय के हिन्दी के प्रोफ़ेसर अनिल कुमार सिंह ने कहा कि लोक संस्कृति एक आयामी नहीं है। शासक वर्ग लोक संस्कृति पर न सिर्फ़ अपना वर्चस्व बनाने की कोशिश करता हैं बल्कि लोक से उसकी स्वीकृति भी पाने का प्रयास करता है। शासक वर्ग अक्सर वर्चस्व स्थापित करने के लिए धर्म का सहारा लेता है। उन्होंने कहा कि लोक संस्कृति का कोई भविष्य तभी हो सकता है जब यह जन संस्कृति में बदल जाय। सामूहिक बुद्धिमता से ही लोक संस्कृति को बचाया जा सकेगा।

विचार गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रो शम्भू गुप्त ने कहा कि लोक जीवन, लोक संस्कृति और लोक मूल्य को बचाने के लिए मध्य वर्ग को अपने विचलन से पीछे हटना होगा। लोक संस्कृति का मूल सामूहिकता और सहजता में है। प्रकृति से प्रगाढ़ निकटता से है। अतीत से सबक़ लेते हुए आंदोलनात्मक मनोवृत्ति पैदा कर ही हम लोक संस्कृति का भविष्य सुनहरा बना सकते हैं।

विचार गोष्ठी को संबोधित करते प्रो शम्भू गुप्त

कोलकाता से आयीं डॉ. आशा सिंह ने कहा कि हिन्दी की हेज़मनी इतनी तगड़ी है कि हम भोजपुरी को ज्ञान, राजनीति और इतिहास की भाषा बनाने के बारे में बहुत कम बात करते हैं। उन्होंने भोजपुरी क्षेत्र की महिलाओं के लिए लिट्रेसी और इंफ़्रास्ट्रक्चर स्पेस बनाये जाने की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए कहा कि इससे सांस्कृतिक रूपों में नयी प्रकार की मौलिकता आयेगी।

डॉ. आशा सिंह ने कहा कि लोक संस्कृति के संरक्षण से आगे बढ़कर उसे बदलने, लोक संस्कृति के परम्परागत विचारों का खंडन करने और यथास्थितिवाद को सांस्कृतिक रूप से बदलने पर जोर देते हुए कहा कि जब भोजपुरी क्षेत्र की महिलाओं को दूसरे भाषायी संसाधनों से जोड़ा जाएगा तो वे सामाजिक परिवर्तनों से जुड़ेंगी और एक नयी आधुनिक चेतना लोक संस्कृति में आयेगी।

दक्षिण अफ़्रीका के डरबन से आये भोजपुरी गायक केम चांदलाल ने दक्षिण अफ़्रीका में भोजपुरी भाषा के आंदोलन के बारे में बताया और कहा कि हम वहां भोजपुरी को स्पेस दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आए दीनानाथ मौर्य ने लोक संस्कृति को बचाने के लिए सामुहिक प्रयास पर जोर दिया। अपर्णा ने अपने संबोधन में कहा कि लोक से जुड़ी सभी विधाओं में बदलाव व विकृति आ रही है। श्रमशील समाज से लोकसंस्कृति का नाता रहा है। बहुरूपिया कला का जीक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यह विलुप्त होती जा रही है, जो चिंता का विषय है।

संगोष्ठी को डा. मोतीलाल, शिवानंद यादव, महेन्द्र कुशवाहा, दीपक शर्मा ने प्रमुख रूप से संबोधित किया। संचालन पत्रकार व साहित्यकार रामजी यादव ने किया। कार्यक्रम के संयोजक सुभाष कुशवाहा ने सभी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहा कि लोगों के सामुहिक प्रयास से लोक संस्कृति को बचाने के लिए हमारा यह प्रयास निरंतर जारी रहेगा।

( कुशीनगर के जोगिया जनूबी पट्टी से जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author