किसान आंदोलन ग्राउंड जीरो 2020-21: किसान आंदोलन में अंतर्विरोधों पर विवाद पैदा करती किताब

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ऐतिहासिक किसान आंदोलन पर एक किताब रिपोर्ताज की शक्ल में आई है – “किसान आंदोलन ग्राउंड जीरो 2020-21” इसके लेखक जुझारू पत्रकार मनदीप पुनिया हैं। राज कमल प्रकाशन ने इस किताब को प्रकाशित किया है। किताब की शुरुआत मनदीप अपनी गिरफ्तारी की घटना से करते हैं। जब सत्ता किसानों के आंदोलन को तोड़ने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रही थी, पुलिस के साथ गुंडों को गोलबंद कर हमला करवा रही थी, मनदीप सत्ता की क्रूरता को कैमरे में कैद करने की कोशिश कर रहे थे ।

यही काम सत्ता को रास नहीं आया और मनदीप को पुलिस की लाठियों से नवाजा गया, उन्हें गिरफ्तार किया गया और पुलिस कस्टडी में प्रताड़ित किया गया। अपनी गिरफ्तारी की घटना को कलम बंद करते हुए मनदीप ने लिखा, ” पंजाब के किसानों के आंसू देखकर हमने उनका संदेश दिल्ली तक पहुंचाने की जिम्मेदारी ली थी । किसान आंदोलन को रिपोर्ट करते-करते उसमें इतना रम गया कि खबर ही न लगी कि भूमिकाएं पलट गई एक संदेश वाहक खुद खबर बन चुका था।”

वास्तव में किसान आंदोलन इतना ताकतवर बन गया था, कि इसे किसी संदेशवाहक की जरूरत ही नहीं थी।

अपनी रिहाई को किताब में दर्ज करते हुए उन्होंने लिखा है कि “हवालात में टॉर्चर के समय एक पुलिस अधिकारी बार-बार मुझे कह रहा था “तन्ने बनावेंगे पत्रकार, तेरे जैसे पत्रकार हमने कई रगड़े हैं, अब तिहाड़ से करना पत्रकारी अपनी। उसका ताना मुझे बार-बार परेशान कर रहा था।” मनदीप ने सत्ता की क्रूर पुलिस के ताने को चुनौती की तरह लिया। जब वे तिहाड़ से बाहर आ रहे थे तो अपने जख्मी पैर पर आंदोलन में गिरफ्तार कई लोगों की दास्तान दर्ज कर बाहर लाए थे और पुनः किसान आंदोलन को अपनी आंखों और कैमरे में कैद करने के काम में जुट गए ‌। जीत के बाद आंदोलन की समाप्ति पर किसानों के साथ आखिरी लंगर भी छका ।

मनदीप ने अपनी किताब को मोटा-मोटी तीन हिस्सों में बांटा है। तूफान से पहले, इंकलाब की आहट और एक कदम आगे दो कदम पीछे। किताब के पहले हिस्से में मनदीप ने पंजाब के किसानों में कृषि कानूनों के विरुद्ध तैयारियों को जीवंत तरीके से दर्ज किया है और दिल्ली कूच कर रहे किसानों के साहस- उत्साह को चित्रित किया है। किताब का यह हिस्सा मुख्यतः सरकार बनाम किसानों के अंतर्विरोध पर केंद्रित है और इस हिस्से की भाषा लाजवाब है । पढ़ते हुए लगता है जैसे मंथर गति से बहने वाली नदी में धारा के साथ तैरते जाना । मनदीप की भाषा में बेहद खूबसूरत बिम्ब-प्रतीकों का प्रयोग हुआ है । जिसे काव्ययुक्त भाषा कह सकते हैं ।

हिंदी में लिखी गई इस किताब में मनदीप ने पंजाबी, हरियाणवी के शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया है, जो गुड़ में मूंगफली के दाने से लगते हैं । भाषा की यह रवानगी किताब के शुरुआती हिस्से में भरपूर है , लेकिन किताब के दूसरे और तीसरे हिस्से तक जाते-जाते इसमें कमी महसूस होती है ।

 रिपोर्ताज जब अपने दूसरे हिस्से में पहुंचता है, तब रिपोर्टिंग का केंद्र बिंदु सरकार बनाम किसान आंदोलन से खिसक कर किसान आंदोलन में शामिल कई वर्गों, किसान नेताओं व कई राजनीतिक वर्गों के बीच चल रहे अंतर्विरोधो पर केंद्रित हो जाता है और यह केंद्रीकरण किताब के अंत तक जारी रहता है। हालांकि किताब में इन अंतर्विरोधों के केंद्रीकरण का बीज पहले हिस्से में भी मौजूद है ।

मनदीप की किताब को पढ़कर लगा कि यह किताब रिपोर्ताज न होकर, किसान आंदोलन में शामिल किसान संगठनों/ किसान नेताओं के आपसी अंतर्विरोध को खुद के नजरिए से कलमबंद करने की कोशिश की गई है। इस कोशिश में मनदीप ने संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं और संगठनों व कई अन्य लोगों का नाम लेकर उनके विचार / व्यवहार के बारे में लिखा है। कई जगह पर वे संयुक्त किसान मोर्चा की मीटिंगों के हवाले से अपनी बात कहते हैं। कई जगह नेताओं के वक्तव्यों के हवाले से भी बात कही गई है। इन अंतर्विरोधों को चित्रित करते हुए मनदीप ने कई जगह ऐसी बातें लिखी हैं, जो संदेह से परे नहीं है । वे इस बातों तथ्यों को ऐसे प्रस्तुत करते हैं, जैसे संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की हर राय और हर कदम किसी न किसी षड्यंत्र का हिस्सा हो । इसकी एक बानगी देखें-

पृष्ठ संख्या 216 के पहले पैरा में वे लिखते हैं – “रणनीतिक तौर पर टिकैत के छत्रप को कमजोर करने और यूपी के दूसरे किसान संगठनों की भागीदारी बढ़ाने के लिए दर्शन पाल ने एक चाल चली । इसको लेकर टिकैत थोड़ा असहज भी हुए।”

 क्या सचमुच दर्शन पाल ने टिकैत के छत्रप को कमजोर करने की चाल चली? क्या इस “चाल” से टिकैत असहज हुए? इन सारे सवालों का आधिकारिक जवाब तो संयुक्त किसान मोर्चा ही दे सकता है। किताब के इसी पृष्ठ के अंतिम पैरा में वे लिखते हैं कि “टिकैत के एक करीबी ने मुझे बताया जुलाई के दूसरे सप्ताह में बीकेयू (टिकैत) की एक संगठनात्मक बैठक हुई ……” 

यहां सवाल यह है कि टिकैत के इस करीबी का नाम क्या था? या उसकी कही बातें कैसे सही मानी जाएंगी? क्या उस मीटिंग का कोई मिनिट्स या निर्णय की लिखित कापी मनदीप पुनिया के पास है? अगर है तो उसका जिक्र क्यों नहीं किया? दरअसल मनदीप ने अपनी पूरी किताब में नेताओं की आपसी बातों / विवादों को एक खास एंगल से देखा है। किसी भी संगठन /समूह में किसी मसले / मुद्दे को लेकर अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन प्रमाणिक राय या मत वही होगा जो मीटिंग में बहुमत या सर्वसम्मति से लिया गया हो। मनदीप की किताब में पत्रकारिता की इस नैतिकता की बार-बार अनदेखी की गई है।

मनदीप पुनिया अपनी किताब में संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं से काफी खार खाए से लगते हैं। शायद वे इन नेताओं से इंकलाब की उम्मीद कर बैठे थे । बेशक संयुक्त किसान मोर्चा के नेतागण किसानों के भारी दबाव में थे । किसानों के इंकलाबी तेवर उनको पीछे नहीं हटने दे रहा था । कई जगह किसान नेताओं की यह कमजोरी प्रदर्शित भी हुई । लेकिन अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद संयुक्त किसान मोर्चा का यह नेतृत्व अंत तक कायम रहा। उसने सरकार के साथ वार्ता में किसानों की मांगों के पक्ष में दांवपेच भी कुशलता के साथ किया और जन दबाव में मोदी सरकार को झुकना पड़ा। किसान आंदोलन की जीत और मोदी सरकार की हार को मुहावरे में कहें तो मोदी सरकार को “थूक कर चाटना पड़ा” ।

इसमें कोई शक नहीं कि किसान आंदोलन में नेतृत्व की कमान धनी किसान वर्ग के हाथ में रही । गरीब भूमिहीन किसान , मजदूर, प्रगतिशील छात्र संगठन, बुद्धिजीवी इसमें शामिल थे । महिला किसानों की उपस्थिति भी रेखांकित करने लायक रही। इसलिए किसान आंदोलन के नेताओं से इंकलाब जैसी उम्मीद करना नाइंसाफी होगी। और इस कसौटी पर उनको कसना उचित भी नहीं है ।

जो वर्ग ताकतें /समूह /संगठन इस संयुक्त मोर्चे के संघर्ष को इंकलाब तक ले जाने का ख्वाब रखते हैं, उन्हें सोचना होगा कि इतने शानदार ऐतिहासिक किसान आंदोलन को इंकलाब की ऊंचाइयों तक ले जा पाने में उनसे क्या खामियां रह गई? 

चीनी क्रांति के नेता माओ त्से-तुंग ने संयुक्त मोर्चा में काम करने के तरीकों और विचार को रेखांकित करते हुए लिखा है – “दुश्मन के विरुद्ध संघर्ष में जन समुदाय का नेतृत्व करते हुए कम्युनिस्टों को चाहिए कि वह संपूर्ण परिस्थिति को ध्यान में रखें । बहुसंख्यक लोगों को ध्यान में रखें और अपने संश्रयकारियों के साथ मिलकर काम करें । कम्युनिस्टों को चाहिए कि वे अंश की आवश्यकताओं को संपूर्ण की आवश्यकताओं के अधीन रखने के सिद्धांत को आत्मसात कर ले । यदि कोई विचार परिस्थिति के एक अंश की दृष्टि से व्यवहारिक लगता हो और संपूर्ण परिस्थिति की दृष्टि से अव्यवहारिक लगता हो तो हमें अंश को संपूर्ण के अधीन रखना चाहिए। इसके विपरीत यदि कोई विचार परिस्थिति के एक अंश की दृष्टि से अव्यवहारिक लगता हो और संपूर्ण परिस्थिति की दृष्टि से व्यवहारिक लगता हो, तो भी हमें अंश को संपूर्ण के अधीन रखना चाहिए। इसी को कहते हैं संपूर्ण परिस्थिति को ध्यान में रखना।

कम्युनिस्टों को चाहिए कि वे केवल चंद प्रगतिशील दस्तों का नेतृत्व करके अकेले-अकेले और अंधाधुंध अभियान करते हुए अपने आप को बहुसंख्यक जनसमुदाय से अलग न कर लें अथवा उसकी उपेक्षा न करें , बल्कि प्रगतिशील तत्वों और व्यापक जन समुदाय के बीच घनिष्ठ संबंध कायम करने पर ध्यान दें। बहुसंख्यक लोगों को ध्यान में रखना इसी को कहते हैं। जहां कहीं भी जनवादी पार्टियां और जनवादी व्यक्ति हमारे सहयोग करने को प्रस्तुत हो कम्युनिस्टों को यह रवैया अपनाना चाहिए कि वे उनके साथ विचार-विनिमय करें और उनके साथ मिलकर काम करें। मनमाने ढंग से निर्णय करना और मनमानी कार्यवाहियां करना तथा अपने संश्रयकारियों की उपेक्षा करना गलत है । एक अच्छे कम्युनिस्ट को संपूर्ण परिस्थिति को ध्यान में रखने, बहुसंख्यक लोगों को ध्यान में रखने और अपने संश्रयकारियों के साथ मिलकर काम करने में माहिर होना चाहिए ।” 

किताब पढ़ कर समाप्त करने के बाद मुझे लगा कि संयुक्त मोर्चा के क्रियाकलापों/ अंतर्विरोधों पर बात करते समय माओ का संयुक्त मोर्चे के बारे में लिखा गया लेख किसी भी संयुक्त मोर्चा में आए अंतर्विरोध को चित्रित करने का वैचारिक आधार होना चाहिए। माओ के इस लेख की भावना व विचार को आधार बनाए बगैर अंतर्विरोधों को तथ्य के रूप में परोस देना, अनर्गल विवाद को पैदा करना व उसे बढ़ाना ही होगा। इस किताब के बहुत सारे तथ्य सही हो सकते हैं, लेकिन जिनके हवाले से या जिनके संदर्भ से बातें कहीं गई हैं, क्या वे लोग भी मनदीप पुनिया के तथ्यों से सहमत होंगे? ऐसा नहीं लगता। यह किताब अपने आप में ढेरों विवाद को जन्म देगी, और वर्ग-दोस्तों के बीच अविश्वास व कलह पैदा करेगी । 

बेहतर होता, किसान आंदोलन के नेतृत्व द्वारा ही आंदोलन के बारे में समीक्षा होती। अपनी कमजोरियों और खूबियों की बातें सार्वजनिक की जातीं । यह काम आंदोलन में शामिल संगठनों उनके नेताओं की मीटिंग से ही संभव हो सकती है तथा उसकी प्रमाणिकता भी कायम रह सकती है, जिस पर भरोसा किया जा सकता है ,सवाल उठाया जा सकता है।

वैसे तो यह किताब किसान आंदोलन पर केंद्रित है किसान आंदोलन की बहुत सारी बातें आई भी हैं, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं जिसे रेखांकित करना बेहद जरूरी था उसे छोड़ दिया गया है। जैसे कि आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी हिस्सेदारी के बारे, जैसे कि किसान नेतृत्व और आम किसानों ने आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी को कैसे लिया?

अंत में-एक पाठक की तरह पूरी किताब पढ़ने के बाद मुझे लगा यह किसान आंदोलन के बहाने संयुक्त मोर्चा में शामिल संगठनों / आंदोलन में शामिल संगठनों के बीच के आपसी अंतर्विरोधों को खींच-तान करती किताब है। यह किताब जहां भी जाएगी विवादों का विस्तार करती जाएगी । जबकि आज जरूरत है दुश्मन वर्गों के विरुद्ध बहुसंख्यक लोगों को ध्यान में रखने और अपने वर्ग दोस्तों के साथ मिलकर काम करने में माहिर होने की। वर्ग दोस्तों के बीच पनपे अंतर्विरोधों को सही सांगठनिक तरीके से हल करने की। अंतर्विरोधों को कम करने की और मजदूर, किसान, मेहनतकश अवाम के दुश्मन शासक वर्गों के विरुद्ध एकजुट होने की। यह काम जिम्मेदारी भरा काम है और अंतर्विरोधों का रायता फैलाने से अलग काम है ।

(लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता और एडवोकेट हैं। और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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