Tuesday, May 30, 2023

नवजागरण की परम्परा को आगे बढ़ा रहा दलित साहित्य: शरण कुमार लिम्बाले

मध्यकाल में संतों ने हमें अपने अपने समय की कटु सच्चाईयों से रूबरू कराया और उसका प्रतिरोध किया। ब्रिटिश काल में भी समाज सुधारकों ने जो नवजागरण किया, उसने हमें मॉडर्न बनाया। नवजागरण ने समय के साथ हमें आगे लेकर जाने का काम किया। अब मध्यकाल और ब्रिटिश काल में हुए नवजागरण को आगे बढ़ाने का काम दलित साहित्य कर रहा है। उपरोक्त बातें ‘सत्य प्रकाश मिश्र स्मृति व्याख्यान माला’ के 16 वें व्याख्यान को संबोधित करते हुये प्रसिद्ध मराठी दलित लेखक शरण कुमार लिम्बाले ने कहा है।

शरण कुमार लिम्बाले ‘हमारा समय और दलित साहित्य’ विषय पर मुख्य वक्ता के तौर पर बोलने के लिए आमंत्रित किये गये थे। ‘सत्य प्रकाश मिश्र साहित्य संस्थान’ एवं हिंदी विभाग- इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने मिलकर आयोजित किया था। गौरतलब है कि शरण कुमार लिम्बाले मराठी भाषा के प्रसिद्ध लेखक, चिंतक और मराठी दलित साहित्य आन्दोलन के पुरोधा हैं। उनकी आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ बहुचर्चित है।

उन्होंने सनातन, नरवानर, रामराज्य,हिंदू, दलित ब्राह्मण आदि 5 उपन्यास, देवता आदमी (कहानी संग्रह) और दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र जैसी आलोचना पुस्तक लिखकर भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है।

साहित्य और समय के सम्बन्ध की पड़ताल करते हुए उन्होंने कहा कि साहित्य समय का चेहरा होता है और साहित्य में समय के उद्गार व्यक्त होते हैं। समय और साहित्य का बहुत गहरा रिश्ता है। उन्होंने कहा कि हम प्राचीन काल से साहित्य और समय को तलाशने की कोशिश करेंगे तो यह और स्पष्ट होगा। वेद लिखने वालों ने प्रकृति को केंद्र में रखकर साहित्य को लिखा है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वेद में और कुछ नहीं है प्रार्थना है वायु, सूर्य, चंद्र, अग्नि, जल आकाश, धरती, समंदर सबकी प्रार्थना है।

वैदिक काल में साहित्य के केंद्र में प्रकृति थी। वैदिक ऋचाएं मूलत: प्रकृति के भिन्न रूपों की प्रार्थना हैं। इसके बाद साहित्य के केंद्र में ईश्वर आता है और पुराण साहित्य की रचना होती है। उन्होंने आगे कहा कि मध्यकाल में राजा हमारी ज़िन्दग़ी को नियंत्रित करता था, वही ईश्वर का प्रतिनिधि था। अतः मध्यकाल में साहित्य के केंद्र में राजा आ गया। ब्रिटिश काल में राजा हट जाता है और साहित्य के केंद्र में मध्यवर्ग (मनुष्य) आ जाता है।

आधुनिक साहित्य का जिक्र कर उन्होंने कहा कि आज़ादी मिलने के बाद संविधान के तहत सबको आज़ादी दी जाती है। सबको क़ानून के सामने बराबरी का अधिकार दिया जाता है। एक मनुष्य और एक मूल्य। इस तरह की व्यवस्था संविधान लागू होने के बाद आती है। दलित, आदिवासी और स्त्री, जिनको इस व्यवस्था ने ग़ुलाम किया है, ये मुक्त होते हैं। आज़ादी के कारण दलित विमर्श निर्माण होता है, स्त्री विमर्श निर्माण होता है, आदिवासी विमर्श निर्माण होता है।

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गोष्ठी में बोलते शरण कुमार लिम्बाले

साहित्य के सबसे आधुनिक विमर्शत्रयी का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि ये विमर्श मनुष्य को केंद्र मानकर, जो व्यवस्था से लड़ रहा है, ग़ुलामी से लड़ रहा है उसको केंद्र मानकर लिखे गये हैं। पुरुष व्यवस्था के ख़िलाफ़ स्त्री विमर्श बोल रहा है पितृसत्ता ने उनका दमन किया है। जातिवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ दलित साहित्य बोलता है कि जातीय व्यवस्था ने उनका दमन किया है। आदिवासी साहित्य कहता है कि बाहरी व्यवस्था ने उनका शोषण किया है। इस तरह तीनों विमर्श उन पर लादे गये गुलामी के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं। यहां साहित्य का केंद्र बदला है। जैसे-जैसे समय और काल बदलता है वैसे-वैसे साहित्य के केंद्र में बदलाव आया है।

विमर्शत्रयी को आज़ादी का आविष्कार बताते हुए लिम्बाले जी ने कहा कि दलित साहित्य और कुछ नहीं आज़ादी का आविष्कार है। आदिवासी साहित्य भी अपनी आज़ादी का आविष्कार है। स्त्री विमर्श भी अपनी आज़ादी का आविष्कार है। ये तीनों विमर्श अपनी आज़ादी के लिए जूझ रहे हैं। दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श / लेखन ने साहित्य के केंद्र, उसकी अंतर्वस्तु में बुनियादी बदलाव लाया है। इन विमर्शों के अंतर्गत लिखे गये साहित्य मूलतः गुलामी के ख़िलाफ़ आज़ादी का उद्‌घोष हैं।

ब्रिटिश शासन की तारीफ़ करते हुए उन्होंने कहा कि दलितों को इस देश में पढ़ने, लिखने और बोलने का अधिकार नहीं था। अंग्रेजों के आने के बाद दलितों को लिखने और बोलने का अधिकार मिला। अंग्रेजों ने दलितों के लिए स्कूल खोला। अगर इस देश में अंग्रेज नहीं आये होते तो अम्बेडकर का निर्माण नहीं होता। इस व्यवस्था ने अम्बेडकर को संस्कृत नहीं पढ़ने दिया, यह कहकर कि आप अछूत हो और संस्कृत नहीं पढ़ सकते।

दलित का दुख़, दलित की पीड़ा, ये सब मौखिक परम्पर में था। जब दलित लिखने लगे तब मौखिक परम्परा में जो हजारों साल से पड़ी हुई वेदना थी वो लिखित प्रारूप में आ गई। और हमें एक नया अनुभव पढ़ने में मिला। इसके पहले केवल हम तेरे हाथ अच्छे हैं, तेरे बाल अच्छे हैं, तेरा चेहरा चांद है, सब कुछ अच्छे अच्छे हैं यही पढ़ते थे। हम सबने ढकोसला साहित्य ही पढ़कर सारी पदवियां प्राप्त की हैं। क्योंकि तब साहित्य में मेरे पूर्वज और मेरे प्रश्न नहीं थे।        

खुद भोगे हुए जातीय उत्पीड़न का जिक्र करते हुए वरिष्ठ चिंतक ने कहा कि संविधान और बाबा साहेब के कारण ही वह आज लोगों के सामने खड़े होकर बोल रहे हैं। बाबा साहेब नहीं होते तो हम जानवरों के पीछे भागते। उन्होंने बताया कि उनकी पहली शिक्षा दरवाजे के पास छोड़े हुए जूतों के पास बैठकर हुयी है। क्लास में टीचर जो पढ़ाते थे वो पीछे सुनाई भी नहीं पड़ता था। उनको क्लास में सब बच्चों के साथ बैठने का अधिकार नहीं था। उन्हें कहा जाता था कि अछूत हो छुओ नहीं दूर रहो।

अछूत होने की पीड़ा को सुनाते हुए उन्होंने बताया कि उनकी छाया और स्पर्श और वाणी को अपवित्र माना गया है। गौ-मूत्र को पवित्र मानते हो तो मनुष्य को अछूत क्यों मानते हो। यह कैसी संस्कृति है। उन्होंने आगे बताया कि गांव में एक नानी उनके साथ चलती थी तो वो जूते हाथ में लेकर चलती थी। अछूतों को पांव में जूते डालकर गांव से गुज़रने की अनुमति नहीं थी। जूते हाथ में लेना पड़ता था।

उन्होंने आगे बताया कि दलितों को गांव के पनघट पर पानी पीने के हक़ नहीं था। उन्होंने छुआछूत को संरक्षण देने वाली व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए कहा कि जिस पनघट पर गाय, भैंस पानी पी सकते थे उस पनघट पर वह पानी नहीं पी सकते थे इस तरह की व्यवस्था थी। वो मंदिर के सामने से गुज़रते तो बाहर से हाथ जोड़ते थे। जिस मंदिर में कुत्ते, बिल्ली, चिड़ियां जा सकती थीं उस मंदिर में वह नहीं जा सकते थे।

उन्होंने बदलाव की विडम्बना को रेखांकित करके कहा कि इंसान चांद और मंगल पर हो आया लेकिन अछूत आज भी मंदिर में नहीं जा सकता। इस प्रकार की व्यवस्था है और इसे बदलना चाहिए। हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। समाज बदला, देश बदला लेकिन हमारी मानसिकता आज भी 16वीं सदी की है। आज़ादी के अमृत महोत्सव के दिन राजस्थान के एक शिक्षक ने अछूत विद्यार्थी को उनके मटके से पानी पीने के लिए मार दिया।

विश्वविद्यालयों को जातिवाद का गढ़ बताते हुए दलित छात्रों की आत्महत्या पर उन्होंने कहा कि मुंबई, चेन्नई के आईआईटी में अछूत होने के नाते टॉर्चर किये जाने के बाद कई छात्रों ने खुदकुशी की है। ये विश्वविद्यालय नहीं जाति के गढ़ हैं। यदि हम छात्रों को भाईचारा, न्याय,समानता की बात बताएंगे तो हमारे देश में ये व्यवस्था नहीं रहेगी। हमें यह देश यह व्यवस्था बदलना है।

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सत्य प्रकाश मिश्र स्मृति व्याख्यान माला में शामिल छात्रा

बदलाव के लिए सामूहिक प्रयास पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि केवल एक लेखक शरण कुमार लिम्बाले चार-पांच किताब लिखकर ये व्यवस्था नहीं बदल सकता। केवल दलित लिखेगा, दलित पढ़ेगा और दलित झगड़ेगा, संघर्ष करेगा तो ये व्यवस्था नहीं बदलेगी। इस व्यवस्था को बदलने के लिए सबको लिखना होगा, सबको संघर्ष करना होगा।

दलित साहित्य की ज़रूरत पर मौके बे-मौके सवाल किये जाते रहे हैं। इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि प्रेमचंद का हम आदर करते हैं। लेकिन वो आज़ादी के पहले के लेखक थे। प्रेमचंद के बाद और प्रेमचंद का निर्माण क्यों नहीं हुआ। हजार सालों के साहित्य में फूलों और तारों की बात लिखी गयी है।

उन्होंने कहा कि वह ये सोचकर लेखक बने कि उन्हें अपनी पीड़ा और अन्याय के बारे में लिखना चाहिए और अगर वह पीड़ा व अन्याय के ख़िलाफ़ नहीं बोलेंगे तो वो मानवता के खिलाफ़ जघन्य अपराध होगा। उन्होंने कहा कि वह लेखक हैं और मेरे दलित, आदिवासी, स्त्री पर अन्याय हो रहा है तो उन्हें उनके ख़िलाफ़ बोलना होगा।

उन्होंने आगे कहा कि दलित साहित्य क्यों लिखा? क्या ज़रूरत थी? भाई आप लोग हमें छूते नहीं थे, सामने नहीं खड़ा करते थे, हम आपके साथ कैसे संवाद कर सकते थे। हम आपके साथ संवाद नहीं करेंगे तो हम किस व्यवस्था में जी रहे हैं, हम कौन हैं और किस प्रकार की पीड़ा झेल रहे हैं आपको पता नहीं हो सकता। आपको समझाना है तो किस प्रकार से करते।

उन्होंने सवाल किया क्या हम रास्ते में जुलूस निकलाते, हम बस जलाते, हम पत्थर फेंकते। इस प्रकार से तो हम आपसे बात नहीं कर सकते। हमें आपके दिल में आना था। हमें आपके दिमाग में आना था। आपके दिल और दिमाग में अपनी पीड़ा पहुंचाने का एक ही ज़रिया था किताब। उन्होंने आगे कहा कि वह (दलित) आपके (सवर्ण) घर में आ नहीं सकता, मैं अछूत हूं आप बोलेंगे ऐ तू अंदर मत आ। मैं जब अक्करमासी लिखूंगा तब आप आराम से पढ़ेंगे। लगा किताबें दुनिया बदल सकती हैं।

समाज और व्यवस्था में बदलाव के लिए गांधी के ‘हृदय परिवर्तन’ फॉर्मूले का (बिना नाम) अनुमोदन करते हुए दलित साहित्य आन्दोलन के पुरोधा ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में गन लेकर घूमते हैं। हिन्दू पंडितों को मारते हैं। उनको लगता है गन लेकर घूमो, मनुष्यों को खत्म करो, व्यवस्था बदलेगी। खालिस्तान के लोग भी अब बंदूक लेकर घूम रहे हैं, वो भी ऐसा चाहते है कि हिन्दुओं को मारो तो व्यवस्था बदलेगी।

आदिवासियों में नक्सलाइट लोग भी गन लेकर घूम रहे हैं, वो कहते हैं गोली से भून डालो व्यवस्था बदलेगी। लेकिन हम गन पर विश्वास नहीं करते। हम शब्दों पर, कलम पर, किताबों पर विश्वास करते हैं। क्योंकि आपके दिल में जाकर, दिमाग में जाकर, परिवर्तन का विचार हम कर सकते हैं। गन से मनुष्य को मार दिया जा सकता है। मगर कलम से केवल मनुष्य को नहीं पूरे समाज को बदला जा सकता है।

आधुनिकता को पूंजीवादी दायरे से मुक्त कर भारतीय संदर्भ में परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और स्त्री साहित्य ने हमें बहुत मॉडर्न बना दिया है। इन आदिवासी, दलित और स्त्री लेखकों ने हमारा जो मन मस्तिष्क है उसे बदल दिया है। इन्होंने एक माहौल क्रिएट किया है, इस माहौल का परिणाम हर व्यक्ति पर हुआ है। इस विमर्श ने हमें बदला है।

‘हिन्दू’ और ‘सनातन’ उपन्यास के लेखक ने आगे कहा कि हम हिन्दू हैं लेकिन हम प्राचीन हिन्दू नहीं हैं, हम मॉडर्न हिन्दू हैं। बहुत बदले हैं हम। अब हम वर्ण व्यवस्था वाले हिन्दू नहीं रहे हैं। हम बहुत आगे निकल चुके हैं। अब हम समय के साथ बदलें, समय के साथ चलें, समय के साथ विचार करें और मनुष्य की तरह जियें, इसके लिए दलित साहित्य लिखा गया। दलित साहित्य इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ की गयी बग़ावत थी। इस व्यवस्था को हमें बदलना है।

दलित साहित्य के विकास में प्रगतिशील समाज के योगदान का जिक्र और आभार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि उस वक़्त प्रगतिशील समाज ने हमारा स्वागत किया। उन्होंने कहा कि शरण कुमार लिम्बाले बहुत अच्छा लिखता है। ये गालियां देता है, विद्रोह करता है, ज़ोर से बोलता है तो इसका अधिकार है। क्योंकि इन्होंने झेला है। इनके पुरखों ने हजारों साल में अत्याचार सहन किया। इसलिए इनको इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ बोलने का हक़ है।

इस तरह की भाषा प्रगतिशील हिन्दू समाज ने दलित साहित्य के लिए की। अगर प्रगतिशील समाज ने हमारे विद्रोह को नहीं समझा होता तो हम इतने ताक़त से दलित साहित्य नहीं लिख सकते थे। दलित साहित्य के इतने ताक़त से बढ़ने में प्रगतिशील समाज ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

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सांस्कृतिक कार्यक्रम

दलित साहित्य के पहले हिन्दू समाज के ख़िलाफ़ हुई बग़ावतों का जिक्र करते हुए शरण कुमार लिम्बाले कहा कि हिन्दू समाज प्रचीन काल से जातिवादी समाज रहा है लेकिन इसमें बग़ावत भी होती रही है। दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री विमर्श की बग़ावत से पहले बहुत से लोगों ने बग़ावत की थी। चार्वाक ने बग़ावत की, बुद्ध ने बग़ावत की, महावीर ने बगावत की, नानक ने बग़ावत की। इन महान पुरषों ने क्रान्ति किया। हिन्दू समाज को मॉडर्न बनाने, समय के साथ चलने और व्यापक बनाने का काम इन महान धर्म प्रचारकों ने किया। मध्यकाल में संतो ने भी यह काम किया।

दलित साहित्य को नवजागरण की परम्परा से जोड़ते हुए ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ के लेखक ने कहा कि मध्यकाल में मुस्लिम संतों, दलित संतों और अन्य संतों ने हमें समय के साथ जोड़ने और विचार करने का प्रयास किया है। ब्रिटिश काल में भी समाज सुधारकों ने जो नवजागरण किया वो और कुछ नहीं हमें मॉडर्न बनाना है। समय के साथ हमें आगे लेकर जाने का काम नवजागरण ने किया है।

मध्यकाल और ब्रिटिश काल में हुए नवजागरण को आगे बढ़ाने का काम दलित साहित्य कर रहा है। आज़ादी के बाद का नवजागरण आन्दोलन दलित साहित्य कर रहा है। उन्होंने कहा कि वो दलित साहित्य को आज के नवजागरण आन्दोलन के रूप में देखते हैं। दलित साहित्य को प्रगतिशील साहित्य की अगली कड़ी के रूप में देखते हैं।

समाज की समझ को विकसित करने में विमर्शत्रयी की भूमिका का उल्लेख करते हुए लिम्बाले जी ने कहा कि इस देश में आधी आबादी महिलाओं की है। उसमें दलित और आदिवासी को मिला दें तो ये बहुत बड़ी संख्या बनती है। इतनी बड़ी आबादी किस तरह जी रही है, किस प्रकार छटपटा रही है, किस प्रकार ग़ुलामी के ख़िलाफ़ बोल रही है, किस प्रकार इस देश की व्यवस्था को मॉडर्न बना रही है, अगर आप यह नहीं समझेंगे तो किस प्रकार का अध्ययन करेंगे हम।

हम किस प्रकार की सड़ी व्यवस्था में जी रहे हैं। और हम किस प्रकार के प्रगतिशील विचार व्यवस्था में जीना चाहिए इसका ज्ञान दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री साहित्य देता है।

अपने आधे घंटे के वक्तव्य के आखिर में शरण कुमार लिम्बाले ने महात्मा गांधी के एक वक्तव्य को उद्धृत करते हुए कहा कि महात्मा गांधी ने कहा कि हमारी भारत माता बहुत सुन्दर है लेकिन उसके चेहरे पर जाति के काले धब्बे हैं। काले धब्बे होने के कारण वो सुन्दर नहीं दिख रही है। बाबा साहेब अम्बेडकर ने इसके जवाब में कहा भारत माता का चेहरा सुन्दर दिखने के लिए जाति के काले धब्बे हम हमारे ख़ून से धोएंगे।

उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी और बाबा साहेब महापुरुष थे। गरीब दलित, आदिवासी और स्त्री लेखक महात्मा गांधी और बाबा साहेब के इन विचारों को लेकर इस राष्ट्र का चेहरा सुन्दर बनाने के लिए, भारत माता का चेहरा सुन्दर हो और महान हो, किसी पर भी अन्याय न हो, इसके लिए प्रयास कर रहे हैं।

किसी पर अन्याय न हो सब भाई बहन की तरह रहें, इस प्रकार की भावना के लिए हम लिख रहे हैं, हमें बाबा साहेब और गांधी का सपना पूरा करना है, इसके लिए दलित, आदिवासी, स्त्री विमर्श लिखा जा रहा है।     

गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ आलोचक प्रो चौथीराम यादव ने सत्य प्रकाश मिश्र की स्मृति को याद करते उनके बहुआयामी व्यक्तित्व और उनकी लोकप्रियता को भी रेखांकित किया। उन्होंने दलित और स्त्री लेखन को प्रगतिशील आंदोलन की अगली कड़ी बताते हुए कहा कि इसके बिना प्रगतिशील आंदोलन और हिंदी क्षेत्र का नवजागरण अधूरा है।

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गोष्ठी में बोलते वरिष्ठ आलोचक प्रो चौथीराम यादव

उन्होंने कहा कि आज लोकतंत्र के मुख पर ताला लगा है, जो आज़ादी है वह अधूरी है। जब तक दलित-आदिवासी और स्त्री समूह को सामाजिक और आर्थिक बराबरी नहीं मिलती है, तब तक आजादी पूरी नहीं होगी।

व्याख्यान का आरम्भ विश्व रंगमंच दिवस के उपलक्ष्य में यूनिवर्सिटी थिएटर के कलाकारों ने कबीर, हबीब जालिब और साहिर लुधियानवी के गीतों के सांगीतिक गायन पेश कर किया। अतिथियों का स्वागत हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो. प्रणय कृष्ण और धन्यवाद ज्ञापन ‘सत्य प्रकाश मिश्र साहित्य संस्थान’ की ओर से प्रो. विनोद तिवारी ने किया। संचालन सूर्य नारायण ने किया।

हॉल खचाखच भरा हुआ था आलम यह था कि सैंकड़ों छात्रों को खड़े रहकर सुनना पड़ा। कवि विवेक निकाला और प्रोफ़ेसर व कार्यक्रम के संचालक सूर्य नारायण सिंह ने फर्श पर बैठकर कार्यक्रम में हिस्सेदारी निभाई।

(प्रयागराज से सुशील मानव की रिपोर्ट)

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