Friday, March 31, 2023

पूर्वांचल में फिल्म संस्कृति के विकास के क्षेत्र में नई सुगबुगाहटें

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सरकार की तरफ से जल्दी इस पूर्वांंचल में फिल्मों के विकास के संबंध मे सूचना जारी करने के लिए ‘फिल्म बन्धु’ को निर्देशित कर दिया गया है। गौर करें तो एक तरफ सरकार बड़े निर्माता-निर्देशकों पर करोडों लुटाने को तैयार हैं जबकि उनकी प्राथमिकताओं में छोटी फिल्मों के विकास को लेकर बुनियादी ढांचे में रूपरेखा कागजों पर भी नहीं दिखती। ताज्जुब की बात तो यह है कि केंद्र सरकार के पास संबंधित सूचना मुहैया कराने के लिए उनकी कोई वेबसाइट भी नहीं दिखती है।

वाराणसी। वैसे तो पूर्वांचल में फिल्म संस्कृति की संभावनाओं की तलाश पहले से चली आ रही थी। देश के महानगर कोलकाता के प्रभाव क्षेत्र में आने के कारण बनारस में सिने सोसाइटीज को लेकर बराबर कुछ न कुछ सोच-विचार चलता ही रहता था।

वैसे देखा जाय तो भारतीय फिल्मों का विमल रॉय से लेकर ऋषिकेश मुखर्जी, और बासु चटर्जी तक पूरा सेटअप और डिजाइन तक विभिन्न समाजों के प्रभाव में विकसित हुआ था। महान फिल्मकार सत्यजीत रे भी अपवाद नहीं हैं।

इसीलिए पिछले दिनों जब, मुंबई और पूर्वांचल के कुछ युवाओं द्वारा एक पहल हुई तो एक नई उम्मीद बंधी। इन युवाओं की तैयारी अच्छी थी, फिल्म स्क्रीनिंग के लिए छोटे-बड़े दो पर्दे लगाये गये थे।

कई देशों से सत्तर से अधिक छोटी-बड़ी फिल्मों की व्यवस्था भी थी। इनमें तीन मिनट की फिल्म से लेकर फुल लेंथ फिल्में भी थीं। कई स्थानीय युवाओं द्वारा बनाई गई फिल्में भी थीं, जिन्हें लोगों ने देखा सराहा और इस पर बातचीत भी की।

इस तीन दिनों के समारोह की सबसे बड़ी खासियत थी युवाओं का जोश और उत्साह और समारोह में सैकड़ों लोगों की नियमित भागीदारी।

बहरहाल, 1960 के दशक में इस दिशा में पहली बार पहल हुई जब जेटली नाम के एक स्थानीय फिल्मकार ने प्रेमचंद के ‘गोदान’ को फिल्माने की कोशिश की थी। हालांकि यह फिल्म चली नहीं थी लेकिन फिल्मों को लेकर सोचने का एक सिलसिला चल निकला था।

इसके बाद सत्तर के दशक के मध्य में दूसरी कोशिश फिल्म अध्येता और रंगकर्मी कुंवरजी अग्रवाल के नेतृत्व में गठित ‘वाराणसी सिने सोसायटी’ की शुरुआत हुई और यह फिल्म सोसायटी कुछ वर्षों तक चली भी लेकिन सांगठनिक क्षमताओं के अभाव के चलते यह प्रयास भी असफल रहा था।

इसके बाद युवाओं का एक ऐसा समूह सामने आया, जिनमें कला, फोटोग्राफी और फिल्मों से जुड़ने की अभिलाषा रखने वाले युवा भी बड़ी संख्या में सक्रिय थे। इस तरह ‘फिल्म एंड क्राफ्ट’ सोसायटी सामने आयी, जिसने उस वक्त की ’ट्रेन टू पाकिस्तान’, ‘जय गंगेज’, जैसी कई फिल्मों का प्रदर्शन भी किया।

हालांकि, इस तरह की कोशिशें भी समूह की अपनी महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गयीं, लेकिन ‘कला कम्यून’ नामक इस समूह ने एक फिल्म ‘विकल्प’ बनाई। देखें तो आजादी के बाद से पिछले सत्तर सालों में केंद्र और यूपी की सरकारों ने बॉलीवुड को लाखों-करोड़ों रुपये (अपुष्ट सूचनाओं के आधार पर ) विभिन्न तरह की बड़ी फिल्मों को सब्सिडी सहयोग के नाम पर दिया ही है।

सरकार की नवीनतम सूचना है कि अब वह बॉलीवुड के फिल्मों की तर्ज पर वेब-सीरीज निर्माताओं को भी एक करोड़ रुपये तक की सब्सिडी देगी।

सरकार की तरफ से जल्दी इस संबंध में अधिसूचना जारी करने के लिए ‘फिल्म बन्धु’ को निर्देशित कर दिया गया है। गौर करें तो एक तरफ सरकार बड़े निर्माता-निर्देशकों पर करोड़ों लुटाने को तैयार हैं जबकि उनकी प्राथमिकताओं में छोटी फिल्मों के विकास को लेकर बुनियादी ढांचे में रूपरेखा कागजों पर भी नहीं दिखती (यदि कोई रूपरेखा हो भी तो उसकी भनक नहीं मिलती)।

ताज्जुब की बात तो यह है कि केंद्र सरकार के पास संबंधित सूचना मुहैया कराने के लिए उनकी कोई वेबसाइट भी नहीं दिखती है।

(कुमार विजय लेखक हैं।)

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