समाज के वंचित समुदाय के शोषण, अन्याय और उत्पीड़न को अपनी कहानियों में जिंदा रखने वाले कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का सिर्फ बैठका ही नहीं, उनकी समूची साहित्यिक विरासत भी चाट रहे हैं दीमक। पिछले एक दशक में बीजेपी सरकार ने मुंशी प्रेमचंद की विरासत को बचाने के लिए कोई काम नहीं किया। नतीजा, उनके बैठके का चौखट और खिड़कियों को दीमक अपना निवाला बनाते जा रहे हैं। हर साल 31 जुलाई को उनका जन्मदिन मनाने के लिए सिर्फ रस्म-अदयगी होती आ रही है। इस आयोजन के लिए सरकार पैसा भेजती है और लमही महोत्सव के नाम पर सारा धन खर्च हो जाता है।
मुंशी प्रेमचंद की बर्बाद हो रही विरासत को लेकर चिंतित बनारस के वरिष्ठ पत्रकार कुमार विजय कहते हैं, “प्रेमचंद इंसान के मनोविज्ञान को समझने वाले रचनाकार थे। वह जिस साहित्यिक मशाल को लेकर देश के राजनीतिक चेतना का पथ-प्रदर्शन करना चाहते थे, वर्तमान सत्ता ने उनकी मशाल की रोशनी छीनकर उसे कालिख में तब्दील करने का काम किया है। हमें आश्चर्य होता है कि जब आरएसएस के मुख्य पत्र पांचजन्य दिखावे के तौर पर मुंशी प्रेमचंद के पक्ष में खड़ा होता है और जमीनी तौर पर उनके रचे हुए पात्रों को उत्पीड़ित व वंचित बनाए रखने का काम करता है। पिछले एक दशक में सत्ता के सरोकारों ने प्रेमचंद के अस्तित्व को पूरी तरह से मिटाने का काम किया है। उनके बहाने समूचे हिन्दी साहित्य को भयावह तौर पर क्षतिग्रस्त किया है।”
“मुंशी प्रेमचंद जिस साझी विरासत को बचाए रखते हुए धर्मनिरपेक्ष परंपरा की दुहाई देते रहे, होरी धनिया के साथ हामिद का दर्द साझा करते रहे, मौजूदा सत्ता ने हामिद के आगे उनके नाम का मुखौटा लगाकर उसे सामाजिक तौर पर बहिष्कृत करने का काम किया है। एक तरफ लमही में हर साल उनके जन्मदिन पर मेला-तमाशा होता है, और दूसरी ओर मुंशी प्रेमचंद को सुनियोजित तरीके से पाठ्यक्रमों से हटाया जा रहा है। हम लमही जाते हैं तो मन द्रवित हो जाता है। लगता है कि जब प्रेमचंद के विचार, उनकी कथाएं और उनके उपन्यास ही नहीं रहेंगे, तो उनके स्मारक का क्या मतलब? साल 1959 में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद लमही में आए थे। वहां उनके नाम का पत्थर लगा है, लेकिन वह कहीं दिखा नहीं। प्रेमचंद का बैठक बदहाल होता जा रहा है। उसे दीमक चाट रहे हैं। उनके नाम पर खोले गए शोध संस्थान पर बंद ताला देखकर पीड़ा होती है।”
पत्रकार कुमार विजय यह भी कहते हैं, “प्रेमचंद की बैठक देखकर लगता है कि बनारस में लिखना-पढ़ना व्यर्थ है। बनारस का साहित्यिक समाज भी सोया हुआ है। लगता है कि लेखक और पत्रकार समाज अपनी जिम्मेदारियों को भूल गया है। हिन्दी प्रेमी चाहते हैं कि लमही में म्यूजियम और पुस्तकालय बन जाए, लेकिन हुक्मरानों को कोई चिंता नहीं है। अफसरों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। प्रेमचंद की विरासत और निशानी सिर्फ एक दिन की कहानी बनकर रह गई है। वह कहानी जो सिर्फ 31 जुलाई को सालाना उर्स के जलसे की तरह दुहराई जाती है। लमही में राष्ट्रीय स्मारक, हेरिटेज विलेज बनाने से लेकर शेक्सपियर के गांव की तर्ज पर विकसित करने का ऐलान करने वाले गए तो फिर कभी लौटे ही नहीं।”
लमही अब गांव नहीं, शहर है। मुंशी प्रेमचंद को लमही के लोग आज भी धनपत राय के नाम भी जानते हैं। यही उनका मूल नाम भी है। प्रेमचंद ने मंगलसूत्र, कर्मभूमि, निर्मला, गोदान, गबन, प्रतिज्ञा जैसे 15 उपन्यास और लगभग 300 से ज्यादा कहानियों के साथ 10 पुस्तकों का अनुवाद, सात बाल साहित्य सहित, तीन नाटक और न जाने कितनी किताबें लिखी हैं, जो आज भी मौजूद हैं। साल 2005 में लमही में मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में राष्ट्रीय स्मारक बनाने की घोषणा हुई थी। हुक्मरानों ने कथा सम्राट की स्मृति में म्यूजियम और पुस्तकालय बनाने का वादा किया था। स्मारक को चिरस्थायी बनाने के लिए कुछ साल पहले शासन ने सात करोड़ रुपये रिलीज भी किया, लेकिन नौकरशाही ने प्रेमचंद स्मारक को विवादित बताते हुए समूचा धन लौटा दिया। कोरा सच यह है कि मुंशी प्रेमचंद स्मारक को लेकर कोई विवाद है ही नहीं, क्योंकि इनका बैठका और स्मारक को कई साल पहले बनारस की साहित्यक संस्था नागरी प्रचारणी सभा को दान में दे दिया गया था।
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, ” लमही में जमीन-आसमान का फर्क है। साल 2008 तक यहां हमने प्रेमचंद की कहानियों का पात्र देखा था। इसके बाद लमही ने शहर का शक्ल अख्तियार कर लिया। जहां भड़भूजे की दुकान थी अब वहां तिमंजिला मकान तन गया है। हम जानते हैं कि हलकू हमेशा हलकू ही नहीं रहेगा। बदलाव तो आएगा, लेकिन इतना नहीं, वो हमारी सांस्कृतिक विरासत को ही निगल जाए। यहां आने पर लगता है कि आप किसी पॉश इलाके में आ गए हैं। लमही भले ही स्मार्ट हो रहा है, लेकिन यहां शहर जैसी नागरिक सुविधाएं नहीं हैं।”
पत्रकार विनय कहते हैं, “लमही की पहचान प्रेमचंद से हैं और उनकी कहानियों का मर्म यहां की आब-ओ-हवा में भी घुला है। मगर उनकी स्मृतियों को संजोने और उनकी उसकी सुधि लेने की फुरसत सरकारी मुलाजिमों को कतई नहीं हैं। उपन्यास सम्राट के मकान की बिजली गुल है और पंखे गायब हैं। स्मारक का हाल बद से भी बदतर है। वहां बिजली-पानी का पुख्ता इंतजाम नहीं है। बैठने और किताबों को संजोकर रखने के लिए रैक तक नहीं है। तमाम किताबें जमीन पर फैलाकर रखी गई हैं। बिजली का कनेक्शन कटा हुआ है। मीटर बिजली विभाग वाले ले गए हैं। पंखे, किताबें सहित कई अन्य कीमती चीजें चोरी हो गई हैं।”
किसी को नहीं प्रेमचंद की चिंता
बनारस मुख्यालय से करीब सात किमी दूर वाराणसी-आजमगढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग से सटा है मुंशी प्रेमचंद का लमही गांव। पांडेयपुर चौराहे से करीब पांच किमी का यह रास्ता गोदान के होरी-धनिया, पूस की रात के हलकू जैसे तमाम किरदारों से रूबरू कराता है। इसके बाद आता है मुंशी प्रेमचंद के गांव लमही का प्रवेश द्वार। इसके दोनों ओर बैठे बैल हीरा और मोती की याद दिलाते हैं। वहीं हल लिए किसान की प्रतिमा देख कृषक जीवन के महाकाव्य ‘गोदान’ के हीरो-होरी की यादें ताज़ा हो जाती हैं। जन्मदिन पर भी मुंशी प्रेमचंद स्मृति द्वार की न तो कायदे से साफ-सफाई हुई और न ही वहां बने दो बैलों की जोड़ी की। एक खंभे के नीचे कुछ कोचिंग सेंटरों की होर्डिंगें लगी हैं। प्रेमचंद द्वार से गुज़र रहे एक मोहम्मद ताहिर नामक युवक ने तल्ख लहज़े में कहा, “बनारस शहर को स्मार्ट बनाने के नाम पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। जी-20 के समय भी खूब पैसे खर्च किए गए, लेकिन मोदी-योगी सरकार को कथाकार प्रेमचंद का जन्मदिन कभी याद नहीं रहता। 31 जुलाई को उनके जन्मदिन के जलसे के समय संस्कृति और पर्यटन विभाग के नुमाइंदों की गाड़ियां फर्राटे भरती नज़र आ रही है। बाकी पूरे सार लमही में कोई प्रशासनिक अफसर झांकने नहीं आता है।”
मुंशी प्रेमचंद स्मृति द्वार से अंदर प्रवेश करने पर यह नहीं लगता कि यह गोदान, ठाकुर का कुआं, ईदगाह, दो बैलों की कथा, सवा सेर गेहूं, गबन जैसी कालजयी कृतियां लिखने वाले प्रेमचंद का गांव लमही होगा। लमही तो सिर्फ नाम का गांव रह गया है। शायद सिर्फ सरकारी दस्तावेजों में जिंदा है। मुख्य मार्ग से होकर जैसे-जैसे गांव की तरफ बढ़ते हैं तो पक्के घरों की कतार और बिजली के तारों का जंजाल साफ-साफ दिखने लगता है। लमही गांव में पहले प्रधानी का चुनाव होता था, लेकिन अब यहां के लोग सभासद चुनने लगे हैं। मुंशी जी के स्मारक की देखरेख से लेकर गांव से सड़क बनने तक का काम वाराणसी विकास प्राधिकरण करता रहा है। अपने कमरे की जिस खिड़की से मुंशी प्रेमचंद अपने गांव को निहारा करते थे, वहां से अब सिर्फ कंकरीट के जंगल दिखते हैं। तमाम बहुमंजिली इमारतें लमही के सीने पर तनती जा रही हैं।
मुंशी प्रेमचंद द्वार से आगे बढ़ने पर सड़क एक बड़ी सब्जी मंडी दिखती है, जहां रोज़ाना सैकड़ों किसानों का रेला दिखता है। ये वो किसान होते हैं जो अपने खेतों से साग-सब्जी ख़रीदने और बेचने आते हैं। सब्जी मंडी में आने वाले किसान रामचंद्र ने जनचौक से कहा, “हमें पता नहीं कि मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन कब है? हमें सिर्फ इतना पता था कि सालों से गंदगी से अटी-पटी रहने वाली सड़क अब चमचमा रही हैं।”
लमही अब गांव नहीं, शहर की शक्ल अख्तियार कर चुका है। वहां हमें मिले शिवनाथ प्रसाद। बीते दिनों को याद करते हुए कहा, “एक वक़्त वो था जब गांव के बड़े बुज़ुर्ग हर शाम रामलीला मैदान में जुटते थे। एक-दूसरे का दुख-दर्द सुनते थे, लेकिन वह अब बीते दिनों की बात हो गई है। युवा पीढ़ी हर वक्त मोबाइल में घुसी रहती है। लमही में अब न झूले लगते हैं और न ही नाटकों का मंचन करने वाली मंडलियां दिखती हैं। दाना भुजाने के लिए गांव के बाहर जाना पड़ता है, क्योंकि लमही से भड़भूजे गायब हैं। यह तस्वीर उस लमही की है जहां हिंदी साहित्य के एक महान पुरोधा ने तमाम ग्रामीण ज़िंदगियों की टीस, किसानों के दुख-दर्द को कहानियों में पिरोकर उनके सामाजिक जीवन को बड़ी ही खूबसूरती से सामने रखा था। हकीकत यह है कि लमही से अब गांव ही गुम हो गया है।”
शिवनाथ बताते हैं, “भूले-भटके साहित्य प्रेमी यहां आते हैं, जिसके लिए लमही किसी ‘तीर्थ स्थल’ से कम नहीं। कुछ ही बरस पहले भाजपा सरकार के सांस्कृतिक मंत्री ने लमही पहुंचकर ऐलान किया था कि मुंशी प्रेमचंद के आवास और बैठक को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में विकसित किया जाएगा। जिस तरह शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ और कीट्स के घर आज राष्ट्रीय धरोहर हैं, उसी तर्ज पर लमही में कथा सम्राट के स्मारकों को भी संवारा जाएगा। इसे दुर्योग कह सकते हैं कि प्रेमचंद के घर और स्मारक में उनका कोई भी सामान सही-सलामत नहीं है। उनका घर न रहने लायक है, न स्मारक देखने लायक।”
विरासत की हिफ़ाज़त नहीं!
दूसरे गांवों की मुकाबले लमही में साफ-सफाई दिखती है। गांव के बीचों-बीच प्रेमचंद सरोवर है, जिसमें बहुत गंदगी है। आसपास के लोग बताते हैं कि कुछ लोग अपने नाबदान का पानी इसी तालाब में बहा रहे हैं। सरोवर के ठीक बगल में है प्रेमचंद का पुश्तैनी मकान। यहीं मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा है। स्मारक के बायीं ओर दो कमरे हैं जिसमें एक छोटी-सी लाइब्रेरी है। लाइब्रेरी में मुंशी प्रेमचंद की कृतियां रखी गई हैं। दीवार पर लटके चिमटे को देख यह एहसास ज़रूर होता है कि स्कूल के सिलेबस में ही सही, ईदगाह कहानी हर किसी ने पढ़ी होगी।
‘ईदगाह’ कहानी का पात्र है एक छोटा बच्चा, हामिद जो बाक़ी हम-उम्र साथियों की तरह खेल-खिलौनों और गुड्डे-गुड़ियों के लालच में नहीं पड़ता और अपनी दादी के लिए मेले से एक चिमटा खरीद कर लाता है। मगर चिमटा ही क्यों? वो इसलिए क्योंकि रोटियां सेंकते वक़्त उसकी दादी के हाथ जल जाते थे। इस छोटी-सी कहानी में लेखक प्रेमचंद ने हामिद से बड़ी-बड़ी बातें कहलवा दीं। वो बातें जो ना सिर्फ पाठक के दिल को छू जातीं हैं, बल्कि पाठक उन्हें आत्मसात भी कर लेता है। प्रेमचंद स्मारक में चिमटे के बगल में खिड़की पर एक गुल्ली-डंडा लटका है। लाइब्रेरी के संचालक सुरेश चंद्र शुक्ल कहते हैं, “उत्तर भारत से साहित्यकार रोज़ाना यहां आते हैं, जिनमें बच्चे और महिलाएं भी होती हैं।”
08 अक्टूबर 1959 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने प्रेमचंद स्मारक का शिलान्यास किया था। उस समय संपूर्णानंद यूपी के मुख्यमंत्री थे। तब यह स्मारक नागरी प्रचारिणी सभा के अधीन था। पहले वहां खपरैल का मकान था जो बाद में ढह गया। मकान का हिस्सा नागरी प्रचारिणी सभा को दान में दिया गया था। नागरी प्रचारिणी सभा ने ही राष्ट्रपति को बुलाया था। तभी से स्मारक स्थल है। कुछ साल बाद वह स्मारक ताले में बंद में हो गया और वह स्थान घास-फूस, कूड़ा-करकट से भर गया।
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एस.अतिबल, योगेंद्र शर्मा, सुशील त्रिपाठी के अलावा लक्ष्मी प्रसाद मिश्र, काशीनाथ सिंह, त्रिभुवन सिंह, मोहनलाल, प्रह्लाद तिवारी, मानवी शरण आदि ने साल 1974 में नागरी प्रचारिणी सभा से स्वतंत्र कराने के लिए मुहिम चलाई और इस बाबत संघर्ष का ऐलान किया। कुछ साल तक मुंशीजी का जन्मदिन माने का क्रम चलता रहा। साल 1981-82 में दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव ने लमही में कथाकार का जन्मदिन और पुण्यतिथि मनाने की परंपरा शुरू की। सार्थक प्रयास के बावजूद प्रशासन-तंत्र ने उनका साथ नहीं दिया, जिसके चलते एक बड़ी मुहिम ठप पड़ गई।
प्रेमचंद का बैठका बदहाल
लाइब्रेरी के ठीक बगल में प्रेमचंद का वह बैठका भी है जिसके हर कोने में उनकी यादें दीमक चाट रही हैं। इसी बैठके के सबसे ऊपर के कमरे में प्रेमचंद लिखने-पढ़ने का काम करते थे। सबसे नीचे वाले हिस्से में किचन था। वहीं मेहमानों के ठहरने का इंतज़ाम किया गया था। तीन मंज़िला इस मकान के बीच में आंगन है। आंगन से होते हुए सीढ़ी पहली और दूसरी मंजिल तक ले जाती है। सबसे ऊपर दो कमरे बने हैं, जिसमें बैठकर मुंशीजी ने कई कालजयी रचनाएं लिखीं। बैठका के पश्चिम में बना कुआं तो है, लेकिन उस में पानी नहीं है। लोहे की बाड़ से उसे ढंक दिया गया है। बनारस के साहित्यकारों के हस्तक्षेप के बाद उनके आवास को स्मारक के रूप में सहेजा गया, लेकिन दो छोटे-छोटे कमरों के अलावा वहां कुछ भी नहीं है। यहां न तो पर्यटकों की आवाजाही है और न ही साहित्यकारों की। ऐसे में यहां धरोहर के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाए?
मुंशी प्रेमचंद के स्मारक और बैठका की बदहाली पर ध्यान आकृष्ट कराए जाने पर पर्यटन और क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्र के अफसर कहते हैं, “भवन कथाकार के परिवार की प्रापर्टी है। इसके जिर्णोद्धार के लिए उनकी सहमति ज़रूरी है। यह आरोप गलत है कि हम कमरों की साफ-सफाई नहीं कराते। यहां हर रोज़ प्रेमचंद की कहानियों का पाठ होता है। बच्चों में साहित्यिक अभिरुचि पैदा करने के लिए मुंशी जी के जीवन पर आधारित स्कूली बच्चों की पेंटिंग प्रतियोगिता कराई गई और मार्च भी निकाला गया। कई कॉलेजों में प्रेमचंद मित्र नामित किए गए हैं। स्कूली बच्चों को हिंदी आलेख और कविता-कहानियां लिखने के गुर सिखाए जा रहे हैं।”
मुंशी प्रेमचंद की विरासत को संजोने के लिए दशकों से मुहिम चला रहे डा.दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव, सरकारी नुमाइंदों दावों को झूठा करार देते हैं। वह कहते हैं, “जब सोच सही नहीं है तो वो लमही का विकास क्या करेंगे? संस्कृति अधिकारी पहले बनारस के साहित्यकारों को ईमानदारी से इस बात का हिसाब दें कि प्रेमचंद के नाम पर वो टैक्सपेयर का कितना धन खर्च कर चुके हैं? उनके महकमे ने लमही को कितना बदला है? सच यह है कि लमही की किसी को चिंता नहीं है। पूरा साल गुज़र जाता है, लेकिन यहां कोई झांकने नहीं आता। नौकरशाही को मुंशीजी की याद तब आती है जब लमही महोत्सव के लिए सरकार की ओर से मोटी रकम पहुंचती है।”
“तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने बैठका के जीर्णोद्धार के लिए साल 2000 में में ढाई लाख और साल 2005 में 25 लाख दिए थे। उस समय किसी ने यह अड़चन नहीं बताई कि धन खर्च करने के लिए उनके परिवार की सहमति चाहिए। उस समय किस कानून के तहत बैठका और स्मारक स्थल का जीर्णोद्धार हुआ। प्रेमचंद स्मारक के आसपास धड़ल्ले से अवैध कब्जे किए जा रहे हैं। बारिश होती है तो मुंशी जी का बैठका ताल-तलैया में तब्दील हो जाता है। ज़िला प्रशासन, वीडीए, पर्यटन और संस्कृति विभाग के अफसर चाहें तो लमही का कायाकल्प कर सकते हैं, लेकिन सब के सब चुप्पी साधे हुए हैं।”
जमीनों पर अवैध कब्जे
मुंशी प्रेमचंद की विरासत के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे डा.दुर्गा यह भी कहते हैं, “कोरोनाकाल में लमही में अवैध तरीके से काफी ज़मीने कब्जा ली गईं। प्रेमचंद स्मारक के सामने पानी की टंकी को जेसीबी लगाकर ढहा दिया गया और उस स्थान पर कब्जा कर लिया गया। इस मामले में वीडीए ने एफआईआर तक कराई, लेकिन आज तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई। पुलिस भी खामोश होकर बैठ गई। इस गांव में अराजी नंबर-244 की ज़मीने महामहिम राज्यपाल के नाम हैं, जिसकी रजिस्ट्री फर्जी तरीके से करा ली गई है। खसरा-खतौनी में आज भी महामहिम का नाम है।”
“शासन ने साल 2016 में लमही को हेरिटेज विलेज घोषित किया था। वीडीए ने इसे ग्रीन बेल्ट घोषित कर रखा है। लमही में मकान बनवाने के लिए लोन देने पर बैंक पर पाबंदी है। इसके बावजूद दनादन ज़मीने बेची-खरीदी जा रही हैं और इमारतें भी खड़ी हो रही हैं। नागरी प्रचारिणी सभा ने साल 2006-07 में प्रेमचंद स्मारक को ज़िला प्रशासन को सौंप दिया था। इसके बावजूद कोई विकास नहीं हुआ।”
दुर्गा कहते हैं, “प्रेमचंद बैठका से पंखे और प्रोजेक्टर गायब हैं। कोई यह तक बताने के लिए तैयार नहीं है कि पंजाब नेशनल बैंक ने जो किताबें प्रेमचंद स्मारक के लिए दान में दी थी, वो कहां चली गईं? उन किताबों का हिसाब क्यों नहीं रखा गया है? प्रेमचंद के नाम पर कमाई करने के लिए कुछ एनजीओ घुसपैठ कर रहे हैं। प्रेमचंद की विरासत की बदहाली के लिए कुछ तथाकथित साहित्यकार दोषी हैं तो हिंदी के विद्वान भी। लमही में अवैध सब्जी मंडी लग रही है। पूरा क्षेत्र त्राहि-त्राहि कर रहा है। काफी बवाल मचा तो साल 2013 में कुछ दिनों के लिए मंडी बंद हो गई। बाद में तत्कालीन लोनिवि राज्यमंत्री सुरेंद्र पटेल ने उसे चालू करा दिया। प्रेमचंद शोध संस्थान के दाहिने तरफ लमही की सार्वजनिक ज़मीन बिक गई। समझ में यह नहीं आ रहा है कि सीएम योगी का बुलडोज़र यहां कब अतिक्रमण हटाने आएगा। लमही में करीब साढे बारह एकड़ बंजर ज़मीन है, जिस योजनाबद्ध तरीके से खुर्द-बुर्द किया जा रहा है।”
विरासत की हिफाजत नहीं
बनारस के पांडेयपुर चौराहे को सालों पहले मुशी प्रेमचंद का नाम दिया गया था। पहले वहां उनका भव्य स्मारक हुआ करता था, लेकिन फ्लाईओवर बनाने के बाद उनकी प्रतिमा एक पिलर के नीचे स्थापित कर दी गई। उनकी प्रतिमा के ऊपर एक बिल्डर और लायंस क्लब की होर्डिंग है। प्रतिमा के नीचे प्रेमचंद का नाम और जन्म 31 जुलाई 1880 और मृत्यु की तिथि 8 अक्टूबर 1936 अंकित है।
बनारस के पांडेयपुर चौराहे पर बदहाल मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा
मुंशी प्रेमचंद की प्रतिमा के चारों तरफ बलुआ पत्थरों पर उनकी कहानियों के शीर्षक पर आधारित कुछ तस्वीरें उकेरी गई हैं। प्रतिमा स्थल पर गुमशुदा की तलाश समेत न जाने कितने पोस्टर चस्पा किए गए हैं, जो इस बात की गवाही दे रहे थे कि सरकारी मशीनरी को कथा सम्राट में कोई रुचि नहीं है। यहां सब कुछ वीरान और उदास नज़र आता है। कथाकार की प्रतिमा पहली बार थोड़ी साफ-सुथरी दिखी, लेकिन ऊपर से आने वाली गंदगी इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि शायद महीनों बात उसकी साफ-सफाई हुई होगी।
प्रेमचंद स्मारक के पास पहुंचने पर एक बड़ी-सी होर्डिंग दिखती है जिस पर हिंदी और अंग्रेज़ी में अंकित है – मुंशी प्रेमचंद शोध व अध्ययन केंद्र, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी। इस केंद्र पर अंदर से ताला बंद मिला। बहुत खटखटाने पर केयरटेकर गेट पर पहुंचा। अपना नाम बताने से इनकार करते हुए उसने कहा, “हमें शोध केंद्र का ताला बंद रखने की हिदायत दी गई है। चाहे जन्मदिन किसी का हो। किसी के कहने पर भी हम ताला नहीं खोलेंगे। ऊपर से आदेश नहीं आया है। इसलिए परिसर व कमरों की साफ-सफाई और पेड़-पौधों की कटाई-छंटाई नहीं हो सकी है। हम आपके सवालों का जवाब नहीं दे पाएंगे। बीएचयू के हिंदी विभाग के लोगों से बीतचीत कीजिए। हमें कुछ भी बोलने पर मनाही है।”
नहीं खुला शोध केंद्र का ताला!
मुंशी प्रेमचंद शोध व अध्ययन केंद्र वीरान है, जिसे खोलने के लिए मुलायम सरकार ने पांच करोड़ रुपये रिलीज किए थे। मकसद यह था कि लमही में साहित्यिक चर्चा हो और शोध गतिविधियां संचालित की जाएं। इस शोध केंद्र में गंदगी और मकड़ी के जाले दिखते हैं। लमही के लोग बताते हैं, “शोध संस्थान के खाली कमरे धूल फांक रहे हैं। खिड़की, दरवाजे और म्यूजियम के नाम पर वहां सिर्फ मुंशी जी की टूटी चप्पल, कपड़े और कुछ सामान हैं। लाइब्रेरी में जो किताबें हैं उन्हें उठाते ही पन्ना हाथ में आ जाता है।”
मुंशी प्रेमचंद्र शोध संस्थान की ज़िम्मेदारी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के ज़िम्मे है, लेकिन यहां आज तक कोई शोध कार्य नहीं हो सका है। साल 2016 में इसके निर्माण पर करीब दो करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। इसे खोलने का मसकद अकादमिक कार्यों के अलावा शोध, संगोष्ठी, व्याख्यान, परिचर्चा आदि का आयोजन कर हिंदी साहित्य को बढ़ावा देना था। उद्धघाटन के बाद हर किसी का ध्यान हट गया। मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान के मुखिया बीएचयू के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और सदस्य हिंदी व उर्दू विभाग के प्रोफ़ेसर हैं।
करीब करोड़ रुपये से स्थापित शोध संस्थान की नींव 31 जुलाई, 2016 को रखी गई थी। केंद्रीय मंत्री महेंद्रनाथ पांडेय ने इस भवन उद्घाटन किया था। इसके कुछ ही दिन बाद ही यहां से सबका ध्यान हट गया। इस शोध संस्थान के प्रमुख से लेकर सदस्य तक बीएचयू के ही हिंदी और उर्दू के प्रोफेसर हैं। लमही में मुंशी प्रेमचंद की स्मारक की पड़ताल करने पहुंचे पत्रकार अंकित सिंह कहते हैं, “चंद साहित्यकारों के हाथों मुंशी प्रेमचंद की विरासत की नाव डूब रही है। बीएचयू ने शोध संस्थान की जो वेबसाइट तैयार की है, उसमें सूचनाएं तक अपडेट नहीं हैं। वेबसाइट में कुछ पुरानी तस्वीरें दिख भर जाती हैं।”
मुंशी प्रेमचंद शोध संस्थान संचालित करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने साल 2005 में पांच करोड़ रुपये मुहैया कराया था। स्थापना के समय तय किया गया था कि यहां अकादमिक कार्य, शोध, संगोष्ठी, व्याख्यान, परिचर्चा आदि का आयोजन किया जाएगा। प्रेमचंद के साहित्य पर आधारित प्रकाशन को बढ़ाना देना, प्रेमचंद पर वृत्तचित्र का निर्माण, उनकी कहानियों पर आधारित कोलाज बनाना और प्रेमचंद संबंधित वाद-विवाद, निबंध, कहानी-लेखन, कहानी पाठ आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन करने की योजना बनी थी। लेकिन सभी योजनाएं फाइलों में दफन हो गई और दावे हवा-हवाई साबित हुए।
बीएचयू के हिंदी के विद्वानों के माथे पर यह आरोप अब खुलेआम चस्पा किया जा रहा है कि उनके हाथों प्रेमचंद की विरासत की नौका डूबती जा रही है। शोध संस्थान में आज तक निबंध, कहानी लेखन, चित्रकहा आदि प्रतियोगिताएं आयोजित नहीं की जा सकी हैं। पिछले छह सालों में साहित्य की यहां एक भी पुस्तक नहीं आई है। जो किताबें हैं भी वह दान में मिली हैं।
मुंशी प्रेमचंद स्मारक का हाल देखने पहुंचे संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के एक शिक्षक डा.रुद्रानंद तिवारी ने कहा, “हम देख रहे हैं कि पहले लमही जैसा था, वैसा अब तो बिल्कुल नहीं है। जाहिर तौर पर इस गांव का तेजी से विकास हुआ है। इसके बावजूद लमही में तंगहाली है। घर चलाने के लिए कोई बुजुर्ग पूनम श्रीवास्तव यहां गुमटी में परचून का सामान बेचते दिख जाती हैं तो कोई मुस्लिम समुदाय के छोटेलाल बकरी को चार खिलाते नजर आते हैं। गोदान के होरी और धनिया सरीखे पात्र तो हर दूसरे घर में मिल जाएंगे। अफसोस की बात यह कि प्रेमचंद की समूची विरासत को ऐसे हाथों में दे दिया गया है कि जिससे न लमही की परंपरा बचने वाली है, न ही विरासत।”
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)