जयंती पर विशेष: ‘हरिऔध’, जिन्होंने रचा खड़ी बोली का पहला महाकाव्य

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कोई पूछे कि खड़ी बोली में रचा गया हिन्दी का पहला महाकाव्य कौन-सा है, तो हिंदी साहित्य के सामान्य जानकार को भी ‘प्रिय प्रवास’ का नाम लेते देर नहीं लगती। आलोचक कहते हैं कि सत्रह सर्गों में विभाजित इस महाकाव्य में इसके रचयिता अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने (जिन्हें द्विवेदी युग का प्रतिनिधि कवि माना जाता है) ‘कृष्ण के दिव्य चरित का मधुर, मृदुल व मंजुलगान’ किया है। इसके लिए उनको अपने समय का प्रतिष्ठित मंगला प्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ‘विद्यावाचस्पति’ उपाधि से सम्मानित और उसके सभापति रहे ‘हरिऔध’ शुरू में ब्रजभाषा में कविताएं रचते थे। बाद में वे स्मृतिशेष महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से खड़ी बोली में सक्रिय हुए और वात्सल्य व करुण रसों के सिद्ध कवि बनकर भाषा, भाव, छंद व अभिव्यंजना की पुरानी परंपराएं सिर्फ तोड़ डालीं। ‘प्रिय प्रवास’ के अतिरिक्त उन्होंने ‘पारिजात’ और ‘वैदेही वनवास’ शीर्षक दो प्रबंधकाव्य तो दिये ही, ‘प्रद्युम्न विजय’ व ‘रुक्मिणी परिणय’ जैसी नाट्यकृतियों में भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की।

‘प्रेमकांता’, ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ और ‘अधखिला फूल’ नामक उपन्यास भी उनके खाते में हैं, जो कम से कम इस अर्थ में तो महत्वपूर्ण हैं ही कि वे हिंदी उपन्यासों की शुरुआत के दौर में लिखे गये। ‘हरिऔध सतसई’, ‘चोखे चैपदे’, ‘चुभते चैपदे’ और ‘बोलचाल’ समेत मुक्तकों के कई संग्रह भी हिंदी साहित्य की उनकी ऐतिहासिक सेवा के गवाह हैं और इसीलिए कई लोग उन्हें अपने समय का सूरदास भी कहते हैं। जैसे मुंशी प्रेमचंद कथासम्राट कहे जाते हैं, वैसे ही ‘हरिऔध’ अपने प्रशंसकों के लिए कवि सम्राट हैं।लेकिन बस इतना ही।

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के निजामाबाद कस्बे के निवासी भोलानाथ उपाध्याय के पुत्र होकर 15 अप्रैल, 1865 को जनमे और छः मार्च, 1947 को वहीं अंतिम सांस लेने वाले हरिऔध की उपेक्षा की हद यह है कि उनके बारे में पाठ्य पुस्तकों में छात्रों को इतना पढ़ाकर ही कर्तव्यों की इतिश्री मान ली जाती है। इसलिए अब उनकी जन्मस्थली में उनकी यादों की धरोहरें या तो बची नहीं हैं या खंडहरों में विचरण को बाध्य हो रही हैं।

इसे लेकर कई लोग व्यंग्य में कहते हैं कि हिन्दी साहित्य के दोनों सम्राटों- कथा सम्राट प्रेमचन्द व कवि सम्राट हरिऔध की जन्मस्थलियों की नियति में बस एक ही फर्क है: यह कि प्रेमचंद की जन्मस्थली लमही में उनकी स्मृतियों के संरक्षण को लेकर तो हिंदी सेवी यदा-कदा चिंतित हो लेते हैं, लेकिन हरिऔध की जन्मस्थली की किसी को फिक्र नहीं होती।

यों, इसका एक बड़ा कारण हरिऔध के कुछ परिजनों द्वारा उनकी जन्मस्थली को लेकर शुरू हुए पट्टीदारी के झगड़े की उम्र लम्बी करते जाना भी रहा है। इस झगड़े के चलते जिस घर में हरिऔध पैदा हुए थे, वक्त के साथ वह खंडहर में बदल गया और उसकी सार-संभाल के लिए समय रहते कुछ नहीं किया जा सका। उनके प्रति श्रद्धाभाव रखने वाले उनकी जन्मस्थली के लोग भी यह कहकर हाथ खडे कर देंते रहे कि जब हरिऔध के अपनों ने ही उन्हें बेगाना करके उनकी ओर से मुंह फेर रखा है तो हम क्या करें?

अच्छी बात यह कि ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी एक हरिऔध प्रेमी ने उनके नाम पर दो स्कूल स्थापित किये हैं। लेकिन उसके द्वारा इन स्कूलों में कवि सम्राट की प्रतिमा लगाने और वाचनालय खोलने के लिए प्रदेश सरकार से की गई लम्बी लिखा पढ़ी का नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा। सरकारी फाइलें दौड़ीं, फिर जानें कहां समा गयीं और अब बात आई गई होकर रह गयी।

निजामाबाद के एक किनारे पर हरिऔध की एक लघुकाय प्रतिमा लगायी भी गयी तो इस तरह कि अनावरण करने वाले मंत्री जी उनसे बड़े दिखें। प्रतिमा के शिलापट में हरिऔध का नाम छोटे अक्षरों में लिखा गया, जबकि मंत्री जी का कई गुने बड़े अक्षरों में।

आजमगढ़ में कलाओं के उत्थान, संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए ‘हरिऔध कला भवन’ बना तो वह सारे साहित्य व संस्कृतिकर्मियों के लिए गर्व का कारण था। लेकिन इस भवन की मार्फत हरिऔध की स्मृतियां अक्षुण्ण रखने की उनकी मनोकामना फिर भी पूरी नहीं हुई। कारण यह कि 2006 की भीषण बाढ़ में वह अचानक ढह गया तो 2014 तक किसी ने उसकी कोई सुध नहीं ली।

फिर ‘भव्य पुनर्निर्माण’ का सब्जबाग दिखाकर सत्रह करोड से ज्यादा रुपयों की लागत से उसका पुनर्निर्माण शुरू कराया गया तो वह अब तक पूरा ही नहीं हो पाया। कभी सरकारों की काहिली उसके आडे आ जाती है और कभी कुछ और।

यह तब है जब निजामाबाद में अभी भी ऐसे लोग मिल जाते हैं, जो हरिऔध के ‘अपने बीच का’ होने पर गर्व करते थकते नहीं हैं। विडम्बना यह कि लगभग सत्तर प्रतिशत साक्षरता वाले इस कस्बे में हरिऔध की याद में कोई आयोजन फिर भी अपवादस्वरूप ही होता है। कोई पूछे कि ऐसा क्यों है तो कोई जवाब नहीं मिलता। हरिबौध पर गर्व करने वाले भी चुप रह जाते हैं।

प्रसंगवश, निजामाबाद में निर्मित काली मिट्टी के बर्तन दूर-दूर तक प्रसिद्ध हैं और देश-विदेश के बाजारों में उनकी बिक्री से व्यवसाइयों को अच्छी खासी आय होती है। एक व्यवसायी ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि हरिऔध की याद में कोई कार्यक्रम किया जाये तो बरतन व्यवसायी उसके लिए धन का टोंटा नहीं होने देंगे। लेकिन कोई इसकी पहल तो करे। अपने को पढ़ा-लिखा मानने वालों को उनकी विस्मृृति का अपराधबोध तो सताये।

हरिऔध की जन्मस्थली तक जाने के लिए पक्की सड़क जरूर बन गयी है, लेकिन कई लोग चुटकी लेते हैं कि यह सड़क भी इसलिए है कि सुविधापूर्वक वहां पहुंचकर भरपूर क्षुब्ध हुआ जा सके। वैसे इस सड़क का श्रेय भी कवि की जन्मस्थली के बगल स्थित चरणपादुका गुरुद्वारे को जाता है, जिसकी सिखों में बड़ी प्रतिष्ठा है।

कहते हैं कि इस जगत प्रसिद्ध गुरुद्वारे में गुरु तेगबहादुर व गुरु गोविंद सिंह तपस्या कर चुके हैं। इस गुरुद्वारे से हरिऔध का काफी नजदीकी रिश्ता रहा है। इसे यों समझा जा सकता है कि एक समय उन्होंने सिख धर्म अपनाकर अपना नाम भोला सिंह रख लिया था और कई बार उक्त गुरुद्वारे में ही बैठकर सृजन या रचनाकर्मरत होते थे। अफसोस कि इस गुरुद्वारे में भी उनकी स्मृति में कुछ नहीं है।

(कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और अयोध्या में रहते हैं)

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