मुंबई की अदबी विरासत और इफ़्तार पार्टी

मुंबई महानगर अपनी आर्थिक गतिविधियों और तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी के लिए जाना जाता है। इस गहमा-गहमी के बावजूद शहर में साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियां भी बराबर जारी रहती हैं। मुंबई के अदीबों ने शहर की इस ख़ूबसूरत रिवायत को अब तक बरक़रार रखा है। शहर के मिज़ाज और विरोधाभास को कभी अली सरदार जाफ़री ने अपनी एक नज़्म में यूं बयान किया था, ‘ये है हिन्दोस्तां की उरूसुल-बिलाद/सर-ज़मीन-ए-दकन की दुल्हन बम्बई/एक जन्नत जहन्नम की आग़ोश में/या इसे यूं कहूं/एक दोज़ख़ है फ़िरदौस की गोद में।’

इन दिनों रमज़ान का महीना चल रहा है। रमज़ान के सबब कल्चरल और अदबी सरगर्मियों पर कुछ दिनों के लिये विराम सा लगा हुआ है। फिर भी इस दौरान आयोजित होने वाली इफ़्तार पार्टियां मिलने-जुलने वालों के लिये ज़रूर कुछ स्पेस मुहैया करवा ही देती हैं। भिंडी बाज़ार में स्थित ‘मकतबा जामा’ में ख़ास तौर से क़लमकारों के लिये इफ़्तार पार्टी का आयोजन किया गया था। यह इफ़्तार पार्टी ‘किताबदार पब्लिकेशन’ के बीस बरस पूरे होने के जश्न में रखी गयी थी। जिसमें बड़े जोश-ओ-ख़रोश के साथ उर्दू, हिन्दी और मराठी के रचनाकार साथी शामिल हुए।

‘किताबदार पब्लिकेशन’ की स्थापना ‘नया वरक़’ मैगज़ीन के सम्पादक और लेखक साजिद रशीद ने 28 मार्च, 2004 को की थी। अब उनके बेटे शादाब रशीद कामयाबी के साथ ‘नया वरक़’ और ‘किताबदार पब्लिकेशन’ का काम देख रहे हैं। ‘मकतबा जामिया’ दक्षिण मुंबई के ‘भिंडी बाज़ार’ इलाक़े में स्थित किताबों की दुकान है। उर्दू अदब की तारीख़ में ‘मकतबा जामिया’ को एक अहम मक़ाम हासिल है। उर्दू किताबें कम क़ीमत पर लोगों को दस्तियाब हो सकें, इस मक़सद के तहत 1922 में दिल्ली में इस इदारे की स्थापना की गई थी। डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने इस इदारे को क़ायम करने में अहम भूमिका निभाई थी। बाद में मुंबई और कई शहरों में इसकी शाखाएं खोली गयीं।

आज़ादी के पहले से ही मुंबई शहर उर्दू अदीबों का बड़ा मरकज़ रहा है। ‘मकतबा जामिया’ ने इन सभी को जोड़े रखा। एक ज़माने तक मुंबई की अदबी सरगर्मियों का अहम मरकज़ ‘मकतबा’ हुआ करता था। उन दिनों यहां बड़ी रौनकें हुआ करतीं। बाक़ायदा हफ़्ते की शाम को शहर के सभी अदीब-शायर इकट्ठा हो जाते। कैफ़ी आज़मी, शौक़त कैफ़ी, अली सरदार जाफ़री, इस्मत चुग़ताई, कृश्न चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, साहिर लुधियानवी, जाँ निसार अख़्तर,बाक़र मेंहदी, इनायत अख़्तर, सुरेन्द्र प्रकाश और बाद के दिनों में इसी रिवायत को यूसुफ़ नाज़िम, सागर सरहदी, शफ़ीक़ अब्बास, निदा फ़ाज़ली, साजिद रशीद, अनवर ख़ान, अली इमाम नक़वी, अनवर क़मर, अब्दुल अहद साज़, मीम नाग, मोहीउद्दीन रज़ा,परवेज़ उल्लाह मेहदी, मेहबूब आलम गाज़ी, अज़ीज़ खान, डॉ आदम शेख, शमीम तारीक़, याक़ूब राही, सलाम बिन रज़्ज़ाक़, जावेद सिद्दीक़ी, इल्यिास शौक़ी, इक़बाल नियाज़ी, कासिम इमाम, अनवर मिर्ज़ा, इश्तियाक़ सईद, असलम परवेज़ वक़ार कादरी जैसे साहित्यकार भी इस इदारे से जुड़े रहे।

ख़ुशकिस्मती से उर्दू किताबों का यह अहम मरकज़ आज भी क़ायम है। इसी तरीख़ी मक़ाम यानी ‘मकतबा जामिया’ में ‘इफ़्तार पार्टी’ का आयोजन किया गया था। वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत, संस्कृतिकर्मी सुबोध मोरे, नौजवान फ़िल्म कलाकार शाहनवाज़ के साथ हम भी आयोजन में शामिल हुए। क़रीबी स्टेशन ग्रांट रोड से टैक्सी लेकर हम भिंडी बाज़ार के लिए रवाना हुए। रमज़ान के दिनों में भिंडी बाज़ार का नज़ारा देखते ही बनता है। शाम होते ही रोज़ेदारों के सब्र का इम्तिहान लेती तरह-तरह के खानों की दुकानें सजी हैं। जिधर नज़र डालो उधर तरह-तरह के फल, मिठाइयां, खजूर, शर्बत, फिरनी की दुकानों ने बाज़ार की रौनक को दो-बाला कर दिया है। दुकानदार को जहां अपना सामान बेचने की जल्दी है, उतनी ही जल्दी ख़रीदारों को भी है। अज़ान होने से पहले हर कोई अपनी ख़रीदारी पूरी कर लेना चाहता है। इसी के चलते रास्ते में ट्रैफिक जाम हो गया। टैक्सी छोड़ अब हमने पैदल ही चलने को तरजीह दी।

रमज़ान में बनने वाले ख़ास पकवानों का लुत्फ़ उठाने मुंबई के दूरदराज़ इलाकों से लोग यहां खिंचे चले आते हैं। पूरी फ़िज़ा में चारों तरफ़ कबाब, तंदूर और तरह-तरह के पकवानों की महक पसरी हुई थी। दुकानों और ख़रीदारों के दरमियान से रास्ता बनाते, हम तेज़ क़दमों से ‘मकतबा जामिया’ की ओर बढ़ने लगे। थोड़ी देर चलने के बाद हम ‘प्रिंसेस बिल्डिंग’ पहुंच गए। उर्दू नावेलनिगार रहमान अब्बास, फ़रहान हनीफ़, अनवर मिर्ज़ा, शकील रशीद, डॉ. क़मर सिद्दीक़ी, फ़ारूक़ सैय्यद, वसीम अक़ील शाह, उर्फ़ी अख़्तर और आलमगीर यहां पहले से ही मौजूद थे। मराठी अदीब स्वाति लवंद और प्रदीप पाटिल की सहमी नज़रें बता रही थीं कि वे पहली बार किसी इफ़्तार पार्टी में शरीक हो रहे हैं।

कई दिनों बाद ‘मकतबा जामा’ की इस दुकान में गहमा-गहमी नज़र आ रही थी। बरसों बाद अचानक इतने सारे क़लमकारों को देख कर शेल्फ़ में सजीं उर्दू किताबें मुश्ताक़ नज़रों से हमें ताक रहीं थीं। ‘मकतबा’ पहुंच कर हमें लगा कि हम भी तारीख़ के उस ख़ूबसूरत दौर में पहुंच गए हैं। माज़ी में कभी इन्हीं नशिस्तों से उस्ताद शायर व अदीब आलमी अदबी रुजहानात पर संजीदा गुफ़्तगू किया करते थे। हम इसी ख़यालात में खोये हुए थे, तभी डॉ. क़मर सिद्दीक़ी ने उस दौर को याद करते हुए बताया कि ‘माज़ी में ‘मकतबा जामिया’ की इफ़्तार पार्टी की एक ख़ूबसूरत रिवायत रही है। अब वे रमज़ान गुज़र गए, जिनमें एक रोज़ा ऐसा भी आता था, जब ‘मकतबा’ पर अदीबों की पूरी कहकशां ज़मीन पर उतरती थी।

‘किताबदार पब्लिकेशन’ के इस जश्न के ज़रिए वही ख़ूबसूरत रिवायत ज़िंदा हो गई।’ कथाकार असगर वज़ाहत नौजवान अफ़साना निगारों से घिरे हुए थे। उर्दू कहानी के वर्तमान ट्रेंड के बारे में उन्होंने नए लिखने वालों से दरियाफ़्त किया। साथ ही उन्होंने अपनी चंद कहानियों के बारे में भी बात की। इसी दौरान उर्दू सहाफ़ी और शायर फ़रहान हनीफ़ ने अपनी नज़्मों की किताब ‘हेंगर में टंगी नज़्में’ असगर वजाहत को नज़्र की।

इफ़्तार पार्टी के बाद ‘अवामी इदारा’ लाइब्रेरी जाने की योजना बनी। असगर वज़ाहत, सुबोध मोरे के साथ चंद और साथी यहां से बायखला के लिए रवाना हुए। ‘अवामी इदारा’ जाने का इस साल यह मेरा दूसरा मौक़ा था। इससे पहले जनवरी महीने में भी हमारा यहां लेखक-पत्रकार ज़ाहिद ख़ान के साथ आना हुआ था। घनी आबादी के बीच बनी ‘अवामी इदारा’ की दो मंज़िला इमारत आज भी वैसे ही खड़ी है। जो कभी तरक़्क़ी पसंद अदीबों का केंद्र हुआ करती थी। कैफ़ी आज़मी, सरदार जाफ़री, साहिर लुधियानवी जैसे अज़ीम अदीब अपना काफ़ी वक़्त यहीं बिताया करते थे। उस ज़माने में यहां बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलें हुआ करती थीं। इन्हीं मिल मज़दूरों ने एक-एक पाई जोड़ कर ‘अवामी इदारा लाइब्रेरी’ बनाई थी।

‘अवामी इदारा’ महज़ एक लाइब्रेरी ही नहीं, बल्कि एक कल्चरल सेंटर भी था। उनका अपना एक म्यूज़िक और ड्रामा ग्रुप हुआ करता था। यहां ड्रामे भी प्ले किए जाते थे। ‘अवामी इदारे’ की निचली मंज़िल पर लाइब्रेरी, तो दूसरी मंज़िल पर ‘कल्चरल सेंटर’ हुआ करता था। सुबोध मोरे ने बताया कि ‘उस ज़माने में अवामी इदारे में ही बैठकर कई अहमतरीन इंक़लाबी फ़िल्मी गानों की धुनें तैयार की गयी थीं।’ मसलन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मशहूर नज़्म ‘हम मेहनतकश इस दुनिया से, जब अपना हिस्सा मांगेंगे, एक बाग़ नहीं, एक खेत नहीं, सारी दुनियां मांगेंगे….।’, ‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया….'(साहिर लुधियानवी) ‘शेर हैं, चलते हैं दर्राते हुए/बादलों की तरह मंडलाते हुए/ज़िंदगी की रागनी गाते हुए।'(मजाज़) और ‘हम होंगे कामयाब …’ जैसे अनगिनत इंक़लाबी गीतों की शुरुआती धुनें, इसी ‘अवामी इदारे’ की देन हैं। प्रेम धवन और इंदीवर जैसे हिन्दी गीतकार भी इस सेंटर से जुड़े हुए थे।’

‘मज़दूर दिवस’ की पूर्व संध्या पर ‘अवामी इदारे’ के मैदान में होने वाले मुशायरे को पुराने लोग आज भी याद करते हैं। हर बरस 31 मई की रात यहां अवामी मुशायरा हुआ करता था। जिसे सुनने के लिए हज़ारों की तादाद में मज़दूर इकट्ठा होते। देर रात तक यह मुशायरा चला करता। अली सरदार जाफ़री, मख़दूम, कैफ़ी अपनी गरज-दार आवाज़ में अपना कलाम पेश करते। इस तरह अदबी और कल्चरल प्रोग्रामों के मार्फ़त मेहनतकशों को अपने अधिकारों के जानिब बेदार किया जाता था।

आज बदलते वक़्त ने उस इंक़लाबी दौर को अब तारीख़ का हिस्सा बना दिया है। मिलों की जगह यहां आसमान छूती ऊंची-ऊंची इमारतें खड़ी हो गई हैं। ‘अवामी इदारे’ के मौजूदा संचालक इब्राहीम साहब ने हमें बताया कि ‘अवामी इदारे’ की यह ऐतिहासिक इमारत भी बहुत जल्द पुनर्निर्माण में जाने वाली है।’ यह सुनकर हमें एक ज़ोर का झटका लगा, लेकिन जब उन्होंने यह बताया कि ‘इसकी जगह जो बिल्डिंग बनेगी, उसमें ‘अवामी इदारा’ को भी उसका एक वाजिब हिस्सा मिलेगा।’, तो दिल ने एक राहत की सांस ली।

आगे चलकर, भले ही ‘अवामी इदारा’ उस रूप में ज़िंदा न रहे, मगर उसके नक़्श तो बाक़ी रहेंगे। यह तारीख़ी इदारा नई पीढ़ी के लिए कुछ सीखने और उनके रिसर्च के लिए मौजूद होगा। हमारे लिए यह ख़ुशी का बाइस था कि ‘अवामी इदारे’ की लाइब्रेरी में रखी हुई तक़रीबन दस हज़ार किताबें, नायाब तस्वीरें और विज़िटिंग बुक आज भी महफ़ूज़ हैं। इदारे की ख़ास विज़िटिंग बुक में हमने भी अपने तअस्सुरात लिखे। रात काफ़ी हो चुकी थी। हमें शायर अली सरदार जाफरी की मुंबई के बारे में लिखी गयी नज़्म की पंक्तियां रह रह कर याद आ रही थीं, ‘रातें आंखों में जादू का काजल लगाए हुए/ शामें नीली हवा की नमी में नहाई हुई।’ बहरहाल, इसी जादू के सहर में डूबे हुए, हम सब ने यहां से बुझे दिल से अपनी रुख़्सती ली।

(मुख़्तार ख़ान मुम्बई में रहते हैं)

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