श्रद्धांजलि: लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी पत्रकारिता के स्तंभ थे रामोजी राव

देश के एक नामी मीडिया मुग़ल रामोजी राव अब इस दुनिया में नहीं रहे। जाहिर है उनकी ताकत और प्रतिष्ठा के अनुरूप शोक संदेशों की बाढ़ आयी हुई है। मैंने भी करीब ढाई साल उनके साथ काम किया है और उन्हें देखने समझने का मौका पाया है। मुझे लगता है कि एक व्यक्ति और एक बड़े मीडिया संस्थान के मालिक के रूप में उनके बारे में चर्चा जरूरी है।  मीडिया के मौजूदा पतन काल में तो उन्हें याद करना और भी जरूरी है। 

मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर बताते थे कि रामोजी राव साठ के दशक में विज्ञापन का काम करते थे और सीपीआई से प्रभावित थे। उन्होंने सत्तर के दशक की शुरुआत में अपने गृह राज्य आंध्र प्रदेश से अखबार निकालने का फैसला किया और इस तरह ईनाडु ग्रुप की शुरुआत हुई। विज्ञापन एजेंसी से पहले उनका सोवियत यूनियन को निर्यात करने और फिर मार्गदर्शी  चिटफंड का कारोबार जम चुका था।  रामोजी राव का अखबार अपने सत्ता विरोधी तेवरों और स्थानीय ख़बरों को प्राथमिकता देने के कारण अच्छा चल निकला और तत्कालीन आंध्र प्रदेश का सबसे लोकप्रिय अखबार बन गया। एनटी रामाराव के उभार के दौरान उन्होंने उनका साथ दिया और इससे ईनाडु समूह की ताकत और बढ़ गई। रामोजी राव उन चुनिंदा कारोबारियों में से रहे हैं जो राजनीति में सीधे तौर पर हिस्सा लेते थे। 

वे कई मायनों में इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका की तरह थे और आज के मीडिया मालिकों की तरह सत्ता के सामने रेंगते नहीं थे, डट कर मुक़ाबला करते थे। रामोजी राव का साथ देने के कारण उन्हें इंदिरा गांधी के क्रोध का शिकार होना पड़ा। लेकिन वह झुके नहीं। जब चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर एनटीआर के खिलाफ विद्रोह किया तो उन्होंने उनका खुलकर साथ दिया। चंद्रबाबू के शासन के दौरान उनका अखबार सरकार के साथ रहा। यही वजह है कि राजशेखर रेड्डी सरकार में आये तो उन्होंने उनके चिटफंड के खिलाफ जांच शुरू कर दी और उन्हें फंसाने की कोशिश की। लेकिन रामोजी राव जरा भी नहीं झुके। 

लेकिन एनटीआर के साथ उनके संबंधों की सामाजिक वजह भी समझना चाहिए। दोनों कम्मा जाति से आते थे।  सिनेमा-व्यापार में तरक्की पाने के बाद उनकी जाति राजनीति में हिस्सा पाने की लड़ाई लड़ रही थी। रामोजी राव इस लड़ाई के हिस्सा थे। यही वजह है कि कम्मा राजनीतिज्ञों से रामोजी राव के बेहतरीन सम्बन्ध थे। उनमें एक ओर चंद्रबाबू नायडू तो दूसरी ओर वेंकैया नायडू हैं। अपने संस्थान में भी उन्होंने अपनी जाति के लोगों को उच्च पद पर बिठा रखा था।

रामोजी राव आज़ादी के ठीक बाद की पीढ़ी के लोग थे जिनके जीवन के कुछ मूल्य थे। उनके अखबार या चैनलों पर अन्धविश्वास बढ़ाने वाली ख़बरें और विज्ञापन नहीं दिए जाते थे। इसी तरह सांप्रदायिक भावना फ़ैलाने वाली ख़बरें प्रतिबंधित थीं। इस बात का आग्रह था कि लोकतान्त्रिक संस्थाएं सही ढंग से चलें। मानवीय संवेदनाओं और मानवाधिकारों को लेकर रामोजी राव काफी सचेत थे। वह मानते थे कि लोगों को बेहतर मानवीय मूल्यों के लिए शिक्षित करना भी अखबारों का दायित्व है।

रामोजी राव के व्यक्तित्व का विश्लेषण उपयोगी है। इससे उनकी कार्यशैली को समझने में सहूलियत होगी। वह नितांत व्यक्तिवादी थे और एक ऐसे कारोबारी जिसके मूल्य आधुनिक किन्तु व्यवहार सामंतवादी थे। रामोजी फिल्मसिटी उनका ड्रीम प्रोजेक्ट है जिसके हर हिस्से में उनके व्यक्तित्व की छाप है। इस फिल्मसिटी के प्रवेश द्वार पर बना विशाल नेमप्लेट उनके आत्ममोह को दर्शाता है। यही नहीं अम्बानी के आलिशान मकान बनने के पहले उन्होंने अपनी फिल्मसिटी की सबसे ऊंची पहाड़ी पर एक महलनुमा आवास बनवाया है जो आधुनिकतम सुविधाओं से संपन्न है।

उनमें अभिवावक दिखाई देने की एक ललक थी और अपने कर्मचारियों को बुनियादी सुविधाएं देने की कोशिश करते थे। जब ईटीवी बिहार के लिए मेरा इंटरव्यू चल रहा था तो उन्होंने कहा कि अधिक पैसे क्यों मांग रहे हो, रहने से लेकर बाकी सारे इंतजाम मैंने कर रखा है। बच्चे की पढ़ाई के लिए मेरा स्कूल भी है। रामोजी फिल्मसिटी में एक अच्छी कैंटीन थी और कर्मचारियों को लाने के लिए शहर के हर इलाके में बस जाती थी। उन्होंने ट्रेनी जर्नलिस्टों के लिए एक स्कूल भी खोल रखा था।

वह इस बात को गर्व से दोहराते थे कि उन्होंने कभी भी वेतन देने में एक दिन की देरी नहीं की। वह इसका जिक्र भी करते थे कि लोग शादी करते वक़्त सरकारी नौकरी की तरह ही ईनाडु में नौकरी को प्राथमिकता देते हैं। यह नौकरी स्थाई मानी जाती है।

पत्रकारिता के पुराने मानदंडों को लेकर वह इतने सचेत थे कि बिना तथ्यों वाली, सनसनी फैलाने वाली या समाज में वैमनस्य फ़ैलाने वाली ख़बरें नहीं चलने देते थे। यही नहीं, पत्रकारों को विज्ञापन जुटाने के काम से बिलकुल अलग रखते थे। वह अपने वरिष्ठ कर्मचारियों को फल, अचार आदि का उपहार भेजते थे और उनके स्वास्थ्य आदि का हालचाल लेते थे। 

लेकिन वह ऐसा जर्नलिस्ट चाहते थे जिसकी अपनी पहचान नहीं हो। मुझे इसे लेकर बहुत अचरज हुआ जब उन्होंने हिदायत दी कि इंटरव्यू करने वाले का चेहरा और नाम नहीं दिखाया जाये। वह इस बात की पूरी कोशिश करते थे कि कोई पत्रकार अपनी हैसियत न बना ले। यही वजह है कि उनके यहां से कोई नामी जर्नलिस्ट नहीं निकला। वह किसी को भी पूरी आज़ादी नहीं देते थे। 

उनके लिए अखबार अंततः एक कारोबार ही था, यही वजह कि घाटे में चल रहे अपने चैनलों को बिना संकोच के अम्बानी के हाथों बेच दिया।

उनकी आत्ममुग्धता के दो उदाहरण दूंगा। वह हर महीने अपने उच्चपदस्थ लोगों की मीटिंग लेते थे। यह मीटिंग कुछ-कुछ दरबार जैसा था। सलाह लेने के नाम पर वह अपनी तारीफ कराते थे। लेकिन सभी की बात सुनते थे, सभी की शिकायतें भी। यह लोकतान्त्रिक था। लोगों की निजता को लेकर इतने सचेत थे कि जब अपने एक साथी ने यह सलाह दी कि चैनल में ड्रेस का एक कोड होना चाहिए तो उन्होंने इसे सीधे ख़ारिज कर दिया और मेरी ओर देख कर पूछा कि मेरी क्या राय है। मैंने कहा कि मेरे जैसे लोगों के लिए तो नौकरी करना ही संभव नहीं हो पायेगा। मैं उन दिनों कुरता-पाजामा ही पहनता था। 

दूसरा उदहारण तो और भी दिलचस्प है. वह गणतंत्र दिवस के दिन अपने सुरक्षा गार्डों की सलामी लेते थे और यह सरकारी कार्यक्रम की तरह भव्य होता था। उन्हें लगता था कि उनका अपना साम्राज्य है। 

मैंने जब अपने त्यागपत्र देने की सूचना देने के लिए फ़ोन किया तो उन्होंने कहा मैंने तुम्हें त्यागपत्र देने के लिए नहीं कहा है। आज इतनी शालीनता भी चैनल मालिकों में कहां बची है? 

उनकी मृत्यु के साथ लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी होने वाली पत्रकारिता के एक और स्तम्भ का अवसान हो गया।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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