Friday, March 29, 2024

शिक्षा में हो स्नेह और सम्मान 

कॉलेज में एमए के आखिरी वर्ष में पढ़ने वाली उस छात्रा के आंसू थम ही नहीं पा रहे थे। उसकी समस्या यह थी कि उसके एक वरिष्ठ शिक्षक उसकी बात ही नहीं सुन रहे थे। उसे एक अध्याय का कोई ख़ास हिस्सा समझने में दिक्कत आ रही थी और शिक्षक अपनी कक्षा में आ ही नहीं रहे थे। इतना ही नहीं, वह उसी छात्रा के व्यवहार को कक्षा में न जाने का कारण बता रहे थे। वह छात्रा रोते-रोते बताये जा रही थी कि इस वजह से वह चार रातों से सो भी नहीं पायी है और बहुत अधिक तनाव में है।

गौर से देखें तो इसके दो पहलू हैं: पहला तो है, ज्ञान और सूचना को लेकर शिक्षक का अहंकार और दूसरा है कक्षा से बाहर शिक्षक और छात्र के बीच एक मैत्रीपूर्ण संवाद का अभाव। पुस्तक और शिक्षक-केन्द्रित शिक्षा, ज्ञान और सूचना का संवर्धन और महिमामंडन और इसके परिणामस्वरूप शिक्षक के व्यवहार में दिखने वाला एक अनावश्यक अहंकार-इसने शिक्षा को एक बोझ बना डाला है। यह स्पष्ट है कि बगैर स्नेह और मैत्री भाव के किसी को शिक्षक बनने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि सही शिक्षा सिर्फ चार दीवारों के बीच, मृत कुर्सियों और मेजों के साथ, शिक्षक और छात्र के बीच एक दूरी कायम रखते हुए ज्ञान और सूचनाओं के सम्प्रेषण तक ही सीमित नहीं रह सकती।

उसे कक्षा से बाहर छात्र और शिक्षक के बीच जीवन की समस्याओं पर एक सार्थक संवाद के जरिए भी संप्रेषित किया जाना चाहिए। यह तभी मुमकिन होगा जब शिक्षा शुद्ध रूप से पुस्तक और शिक्षक केन्द्रित न रहे; जीवन और छात्र पर केन्द्रित हो। यदि शिक्षक और छात्र के बीच स्वस्थ सम्बन्ध हैं, स्नेह और सम्मान है तो फिर पढ़ना-लिखना, विषय को समझना, यह सब कुछ इस सही सम्बन्ध का एक सह- उत्पाद मात्र होगा। उसके लिए थोड़ा प्रयास ही काफी होगा और छात्रों को विषयों के बोझ के अलावा अपने आपसी संबंधों में उपजती पीड़ा पर समय और ऊर्जा व्यर्थ नहीं करनी पड़ेगी। शिक्षा का यह एक आतंरिक संघर्ष है, विषय दुरूह लगते हैं, बढ़िया अंक लाने का दबाव है और ऊपर से मानवीय संबंधों की सामान्य दिक्कतें। यह सब सिर्फ इसलिए है क्योंकि शिक्षक और छात्र सम्बंधित महसूस नहीं करते।

यदि करते भी हैं, तो सिर्फ सतही स्तर पर। ऊपर दिए गए दृष्टांत में मैंने छात्रा को कोई समाधान नहीं सुझाया, न ही मैंने शिक्षक से कोई बात की, बस मैंने उसकी बात को गौर से सुना और अपनी बात पूरी करते करते ही उसके माथे पर सलवटें कम होने लगीं, उसकी व्यग्रता, आक्रोश, थकान स्वयं कम होने लगे। सचाई यही है कि ऐसी समस्याओं का सबसे अच्छा समाधान है कि आप पहले व्यथित और उद्वेलित छात्र की बात शांति से सुन लें। और यदि उसे पूरे अवधान के साथ सुना जाता है, बीच में उसे कोई फैसला नहीं सुनाया जाता, न ही शिक्षक की आलोचना की जाती है, न ही छात्र को अपनी स्थिति को स्वीकार करने की सलाह दी जाती है, तो छात्र खुद से ही अपनी समस्याओं के अलग-अलग पहलुओं को देख पाता है और उनकी आन्तरिकता को भी समझ पाता है। उसे अपनी समस्या में स्वयं का योगदान भी दिखाई पड़ता है और तभी अपनी समस्या को उसकी समग्रता में समझने की तरफ वह अपने पहले कदम उठा चुका होता है।                          

क्या इस तरह के आतंरिक, मानसिक अन्वेषण और शिक्षा में कोई विरोधाभास है? क्या परंपरागत शिक्षा के साथ शिक्षण संस्थानों में इस तरह का अस्तित्वगत संवाद संभव नहीं? क्या शिक्षा को एक सह-यात्रा की तरह नहीं देखा जा सकता जिसमें एक स्तर पर तो ज्ञान आवश्यक है, इसलिए शिक्षक की एक ख़ास भूमिका है, पर दूसरी ओर यह भी सच है कि जीवन और मन को समझने के सन्दर्भ में अक्सर छात्र और शिक्षक एक ही नाव में सवारी कर रहे होते हैं। छात्र के संस्कार उतने गहरे नहीं होते और अनुभवों की मार उसकी सोच को इतना अधिक विकृत नहीं बना चुकी होती है, जितना किसी शिक्षक को। ऐसी स्थिति में क्या अक्सर जीवन की समस्याओं का किसी युवा छात्र के पास एक बेहतर समाधान नहीं होता? हो सकता है, और इसकी सम्भावना ज्यादा प्रबल भी है, पर पूर्वनिर्मित धारणाओं, पूर्वाग्रहों और व्यक्तिगत अहंकार की वजह से कोई संवाद ही संभव नहीं होता।

जब महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में टॉलस्टॉय फार्म नाम से एक स्कूल खोला था, तो उसमें एक बच्चा बड़ा ‘अनुशासनहीन’ और उपद्रवी था। बार बार समझाए जाने के बाद भी उसका उपद्रव शांत नहीं होता था। आखिरकार एक दिन हार कर गांधीजी ने उसे छड़ी से मारा। उन्होंने लिखा है कि ऐसा करते वक़्त वह भीतर तक कांप उठे। उन्हें तुरंत यह महसूस हुआ कि उन्होंने बच्चे को सही करने के मकसद से नहीं मारा। बल्कि अपना क्रोध व्यक्त करने के लिए ही मारा था। इसके बाद गांधीजी लिखते हैं कि तभी से वह बच्चा मेरा शिक्षक बन गया! क्या किसी छात्र को शारीरिक या मनोवैज्ञानिक दंड देते समय शिक्षक अपने इरादों पर भी एक नज़र रख सकता है? क्या वह यह देख सकता है कि छात्र के साथ उसके सम्बन्ध में उसका ‘स्व’ भी उद्घाटित हो रहा है और उसे समझना भी शिक्षा का एक अहम् हिस्सा है? यदि ऐसा नहीं होता, तो शिक्षा सिर्फ एक मृत चीज़ बन कर रह जाती है। 

यही शिक्षा जन्म देती है पढ़े लिखे आतंकवादियों को, शिक्षित पर दहेज़ के भूखे इंजीनियरों को, रिश्वतखोर सरकारी अधिकारियों को और पूरी तरह जाति और धर्म के नाम पर विभाजित एक समाज को। क्योंकि मृत शिक्षा, जिसमें सही मूल्यों का सम्प्रेषण न हो, जिसमें शिक्षक और अभिभावक दोनों बच्चों को गौर से सुन भी न सकें, वह एक ऐसी पीढ़ी को ही तैयार करेगी जो क्रोध और प्रतिस्पर्धा के भाव से पीड़ित होगी, जो असंवेदनशील होगी। उनमें ज़्यादातर बच्चे वही होंगे जिनके अभिभावक और शिक्षक ने कभी प्यार से उनका हाथ थाम कर नहीं कहा होगा कि तुम बोलो मैं सिर्फ सुनता हूँ और मैं वास्तव में तुम्हारा सम्मान करता हूँ, तुम्हारे लिए स्नेह रखता हूँ। शिक्षा के इन पहलुओं पर गौर करना कितना जरूरी है, इसे दोहराने की आवश्यकता नहीं। इन्हें अनदेखा करने के परिणाम स्पष्ट देखे जा सकते हैं और ये परिणाम ही अपनी कहानी खुद कह देते हैं और बता देते हैं कि हमारी चूक कहाँ हो रही है।

शिक्षा के स्वरुप को बदलना इसलिए बहुत जरुरी हो जाता है। विषय के साथ साथ पढ़ने वाले और पढ़ाने वाले के बारे में भी सीखने की जरुरत है। ये सभी एक ही गति का हिस्सा हैं—शिक्षक, शिक्षा और शिष्य। इन्हें अलग करने का अर्थ है समेकित शिक्षा की बुनियादी समझ को कमज़ोर करना। इनके आपसी सम्बन्ध एक गहरी समझ पर आधारित होने चाहिए, उनमें भरपूर स्नेह और सम्मान होना चाहिए। शिक्षा कोई लक्ष्योन्मुख यात्रा नहीं। यह एक बिंदु से चलकर दूसरे पूर्वनिर्धारित बिंदु तक जाने की प्रक्रिया भर नहीं। इसकी पूरी संभावना है कि वास्तविक सीख प्रारंभिक और अंतिम बिंदु के साथ ही बीच के मार्ग में भी हो। वास्तव में तो यह मार्ग के हर मोड़, हर बिंदु पर है। 

(चैतन्य नागर लेखक और पत्रकार हैं। आप आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles