कॉमरेड सीताराम येचुरी को गुजरे एक माह हो चुके हैं। उनके निधन के बाद उनके चहेतों ने उनके व्यक्तित्व और वर्तमान राजनीति में उनकी प्रासंगिकता के बारे में बहुत कुछ कहा है, तो संघी गिरोह ने उन पर अपने नफरती हमले भी किए हैं।
सीताराम जिस वर्गीय राजनीति से ताल्लुक रखते थे, उसे देखते हुए इन हमलों में नया कुछ भी नहीं था। ये हमले वामपंथी राजनीति की जीवंतता का ही प्रतीक है।
सीताराम देश की आजादी के बाद की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते थे, जिनकी वामपंथी शिक्षा-दीक्षा ईएमएस नंबूदरीपाद, हरकिशन सिंह सुरजीत, एम बासवपुनैया जैसे प्रख्यात कम्युनिस्ट नेताओं और स्वाधीनता संग्राम सेनानियों की देख-रेख में हुई थी।
इनमें से प्रत्येक के साथ स्वतंत्रता आंदोलन के प्रेरक प्रसंग जुड़े हुए हैं। ईएमएस नंबूदिरीपाद को केरल का गांधी माना जाता है, जिनका रूपांतरण एक कांग्रेसी से कम्युनिस्ट में हुआ था। मानव विकास संकेतकों पर आज केरल जिस ऊंचे स्थान पर खड़ा है, उस आधुनिक केरल के निर्माण में उनका अविस्मरणीय योगदान है।
सुरजीत के साथ अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई और एंटी बेटरमेंट लेवी आंदोलन का इतिहास जुड़ा था, तो बासवपुनैया सशस्त्र तेलंगाना आंदोलन के नायक थे।
आजादी के पहले और आजादी के बाद आम जनता के हितों की लड़ाई लड़ने में कम्युनिस्टों का कोई सानी नहीं है। वर्तमान भारत को रूपाकार देने में वामपंथियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।
एक मेधावी छात्र के रूप में अपनी पढ़ाई के दौरान दिल्ली में आकर सीताराम स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के जरिए वामपंथी राजनीति से जुड़ते हैं। एसएफआई का नारा है -पढ़ाई और लड़ाई साथ-साथ।
पढ़ाई-अपने शैक्षणिक पाठ्यक्रम सहित ज्ञान-विज्ञान की तमाम विषय वस्तुओं का, जो मानव समाज की उन्नति के लिए मनुष्य की चेतना को एक वैज्ञानिक चेतना में ढालने का काम करें। लड़ाई- सरकार की शिक्षा नीति और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष, जो वर्गीय शोषण से पीड़ित एक शोषित समाज को शोषणमुक्त समाज में बदलने के आंदोलन को तेज करे।
अपने पूरे जीवन में सीताराम ने एसएफआई के इस नारे पर अमल किया। इस नारे पर अमल ने ही उन्हें छात्र समुदाय के बीच एक संघर्षशील नेता के रूप में स्थापित किया और वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के लगातार तीन बार अध्यक्ष चुने गए।
जेएनयू के साथ उनका जुड़ाव अंत तक बना रहा। जेएनयू का कोई छात्र संघ चुनाव ऐसा नहीं था, जिसमें उन्हें छात्र समुदाय को संबोधित करने के लिए न बुलाया गया हो।
जेएनयू के साथ उनका ऐसा प्रगाढ़ संबंध था कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी नश्वर देह ने इस विश्वविद्यालय के परिसर में कुछ क्षण विश्राम किया और समूचे छात्र समुदाय ने उनको अपनी अंतिम सलामी दी।
उनके नेतृत्व में ही एसएफआई ने सबसे पहले ‘सबको शिक्षा, सबको काम’ का नारा दिया था, जो बाद में देश में छात्र-युवा आंदोलन को विकसित करने का हथियार बना।
1984 में एसएफआई का अखिल भारतीय सम्मेलन दमदम (प. बंगाल) में हुआ। इस सम्मेलन में वे एसएफआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए। मैंने भी इस सम्मेलन में मध्यप्रदेश से (तब छत्तीसगढ़ बना नहीं था।) एक प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया था।
उस सम्मेलन को उत्पल दत्त ने भी संबोधित किया था। उस समय हमारे लिए सिनेमा के पर्दे की छवि को प्रत्यक्ष जीवंत रूप में देखना/सुनना काफी रोमांचक था। इतना ही रोमांचक सम्मेलन में आए प्रतिनिधियों का दमदम के बच्चों द्वारा फूल देकर स्वागत करना था। इस सम्मेलन ने वामपंथ के साथ मेरे जुड़ाव को स्थायी बनाया।
एसएफआई का मुखपत्र है ‘स्टूडेंट्स स्ट्रगल।’ अंग्रेजी में निकलता है और तब सीताराम इसके संपादक थे। हम हिंदी के छात्रों को तब अंग्रेजी नहीं आती थी, इसके बावजूद इसके अंकों का हमें इंतजार रहता था। कारण, इसका कलेवर (कवर पेज) काफी आकर्षक रहता था और इसकी सामग्री में विविधता होती थी।
इस विविधता को हम लोग इसके चित्रों और आलेखों के शीर्षकों से महसूस करते थे। इसका क्रेज छात्र समुदाय से बाहर भी काफी था।
इस पत्रिका में विज्ञान और खेल पर विशेष आलेख तो होते ही थे, सुप्रसिद्ध व्यक्तियों- फैज अहमद फैज से लेकर फिराक गोरखपुरी और प्रेमचंद तक, ब्रेटोल्ट ब्रेख्ट से लेकर पीटर ब्रुक तक और टैगोर से लेकर राहुल सांकृत्यायन तक लेख, साक्षात्कार और उनके साहित्यिक योगदान का जिक्र रहता था।
इसलिए इस पत्रिका को हम लोग अध्यापकों और ट्रेड यूनियनों से जुड़े कर्मचारियों के बीच आसानी से बेच लेते थे। मुझे याद है कि उनके संपादन में स्टूडेंट्स स्ट्रगल के दो विशेष अंक निकले थे: एक, मार्क्स की मृत्यु शतवार्षिकी पर और दूसरा, सफदर हाशमी की शहादत पर। रायपुर में इन दोनों अंकों की सैकड़ों प्रतियां हमने हाथों हाथ बेची थी।
एसएफआई के नेता रहते हुए ही वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के शीर्ष नेताओं में शामिल हो गए। बहुत कम उम्र में ही वे माकपा की केंद्रीय समिति, फिर केंद्रीय सचिव मंडल और फिर पोलित ब्यूरो में शामिल कर लिए गए।
इस दौरान उन्होंने कॉ. सुरजीत (तब वे माकपा के महासचिव थे।) के सान्निध्य में उनके निकट सहयोगी के रूप में काम किया। 19वीं सदी का आखिरी दौर भारत में गठबंधन की राजनीति का दौर था और सुरजीत गठबंधन की राजनीति को रूपाकर देने वाले कलाकार माने जाते थे।
लेनिन का कथन है “ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण”। यह सीताराम की प्रिय उक्ति थी और प्रायः हर बैठकों और सभाओं में वे इसे दुहराते थे। वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों का उनका ठोस विश्लेषण ही था, जिसने उनको एक असाधारण राजनेता के रूप में स्थापित किया।
भारत के मामले में उनका यह ठोस विश्लेषण ही था, जिसने उन्हें भारत की विविधता को पहचानने और अनेकता में एकता के विचार के प्रति प्रतिबद्ध किया और उन्होंने हिन्दुत्व की विचारधारा के खिलाफ संघर्ष के क्रम में ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के विचार को पुष्ट किया।
संघी गिरोह जहां भारतीय मिथकों को प्रमाणित इतिहास बताने में जुटा है, सीताराम की खासियत है कि उन्होंने बड़े पैमाने पर भारतीय मिथकों की भौतिकवादी व्याख्या की और इस व्याख्या को उन्होंने आम जनता के रोजमर्रा के संघर्षों से जोड़ा।
मार्क्स का प्रसिद्ध कथन है : “अभी तक दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न तरीकों से दुनिया की व्याख्या की है। लेकिन असली सवाल है उसे बदलने का।” 20वीं सदी का आखिरी दौर राजनैतिक उथल पुथल से भरा दौर था।
सोवियत संघ का पतन हुआ। देश में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ। इसी दौरान उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियां लागू की गई। इन तमाम घटनाक्रमों ने भारतीय वामपंथ के सामने वैचारिक-राजनैतिक चुनौतियां पेश की।
सीताराम ने न केवल इस बदलती दुनिया की व्याख्या की, बल्कि इसे बदलने के लिए दिशा-निर्देशन भी किया।
1980 के दशक में सोवियत संघ का पतन हुआ और समाजवादी खेमे का अंत हुआ। इसने पूरी दुनिया की संघर्षशील ताकतों को निराशा से भर दिया। राजनैतिक माहौल इतना निराशाजनक था कि कुछ कम्युनिस्ट पार्टियों ने तो अपने नाम ही बदल दिए थे। ऐसे समय सीताराम ने मार्क्सवाद की प्रासंगिकता और पूंजीवाद के संकट को रेखांकित किया।
जब पूरी दुनिया में बुर्जुआ मीडिया “पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं (टीना-“देयर इज नो ऑल्टरनेटिव”) का प्रचार कर रहा था, सीताराम ने जवाब दिया- “(सीता) – सोशलिज्म इज द ऑल्टरनेटिव।” उन्होंने विस्तार से यह बताया कि सोवियत संघ का विखंडन मार्क्सवाद और समाजवाद के गलत होने को प्रमाणित नहीं करता, बल्कि उसकी सत्यता की ही पुष्टि करता है।
सोवियत संघ का विखंडन समाजवाद के नियमों को गलत तरीके से लागू करने का अनिवार्य परिणाम था। बाद में, उनकी इस वैचारिक प्रस्थापना को अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में स्वीकृति मिली।
1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस और 1998-2004 के बीच भाजपा की गठबंधन सरकार की कारगुजारियों ने राष्ट्रीय राजनीति में सांप्रदायिकता के वास्तविक खतरे को सामने ला दिया।
इस खतरे से मुठभेड़ करते हुए 1993 में उन्होंने एक छोटी-सी पुस्तिका लिखी- “हिन्दू राष्ट्र क्या है?” यह पुस्तिका संघियों के गुरु गोलवरकर द्वारा 1939 में लिखित पुस्तिका “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” (हम या हमारे राष्ट्रीयत्व की परिभाषा) की मुकम्मल समालोचना थी।
इस पुस्तिका में गोलवरकर ने भारत को एक “हिन्दू राष्ट्र” के रूप में प्रतिपादित किया है और कम्युनिस्टों, मुस्लिमों और ईसाईयों को देश के लिए मुख्य खतरा बताया है। संघी गिरोह के बीच गोलवरकर की यह पुस्तिका “गीता” का स्थान रखती है।
अपनी सम्यक आलोचना के जरिए सीताराम ने हिन्दुत्व की विचारधारा के सांप्रदायिक, जातिवादी और फासीवादी स्रोतों को उजागर किया।
बहुतों के लिए आज भी यह रहस्य है कि संघी गिरोह अल्पसंख्यकों से इतनी नफरत क्यों करता है, या कि स्वाधीनता संग्राम से अलग रहकर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान संघ ने अंग्रेजों को सैनिकों की आपूर्ति करने का काम क्यों किया, या कि स्वतंत्र भारत में संविधान के बुनियादी मूल्यों के प्रति आस्था रखने के बजाए आज भी वह मनुस्मृति की स्थापना क्यों करना चाहता है।
सीताराम की इस पुस्तिका से संघी गिरोह के इन रहस्यों का पर्दाफाश होता है। सीताराम की इस पुस्तिका को पढ़ने से इस बात का जवाब भी मिल जाता है कि क्यों संघी गिरोह उनसे इतनी नफरत करता है।
सीताराम येचुरी भारत की विविधता के प्रति प्रतिबद्ध थे, क्योंकि उनका मानना था कि भारत एक बहुराष्ट्रीय देश है और इसकी विविधता की रक्षा किए बिना देश की एकता को कायम नहीं रखा जा सकता। उनके लिए यही “आइडिया ऑफ इंडिया” था।
भारत की विविधता की रक्षा करनी है, तो बाबा साहेब द्वारा रचित संविधान में शामिल संप्रभुता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद और सामाजिक न्याय जैसे बुनियादी मूल्यों की रक्षा करनी होगी, इन मूल्यों को रोजमर्रा के आचरण में उतारना होगा। आज इस संविधान और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा किए बिना देश को समाजवाद के रास्ते पर भी नहीं ले जाया जा सकता।
इसलिए जब कभी, चाहे जिस ओर से संविधान के बुनियादी मूल्यों पर हमला हुआ है, सीताराम की उपस्थिति यह आश्वस्ति देती थी कि इस हमले का कड़ा मुकाबला किया जाएगा।
संसद में सीताराम ने एक उत्कृष्ट सांसद की भूमिका निभाई, जैसी कि एक कम्युनिस्ट सांसद से अपेक्षा की जाती है। वर्ष 2016 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ सांसद के पुरस्कार से नवाजा गया।
भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ का अवसर पर उन्होंने संसद में भारतीय कम्युनिस्टों की स्वाधीनता आंदोलन में निभाई गई भूमिका और इस आंदोलन से संघी गिरोह की गद्दारी को उन्होंने तथ्यों के साथ शानदार ढंग से सामने रखा।
संविधान दिवस के अवसर पर हुई बहस में भी उन्होंने संवैधानिक मूल्यों को सूत्रबद्ध किया। संसद के अंदर सीताराम जब बोलते थे, पूरा संसद ध्यान से सुनता था। संसद के बाहर भी जब वे बोलते थे, पूरे देश की जनता उसे तवज्जो देती थी।
2004-09 का समय वामपंथ का सुनहरा दौर था, जब संसद में माकपा के 43 सांसदों सहित वामपंथ के 61 सांसद थे। इसी संसदीय ताकत के दबाव में तब की संप्रग सरकार को मनरेगा, सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार, आदिवासी वनाधिकार जैसे कानून बनाने पड़े।
इन कानूनों ने देश में लोकतंत्र के विस्तार और आम जनता के बुनियादी अधिकारों की रक्षा में नए आयाम जोड़े हैं। संप्रग की सरकार वामपंथ के समर्थन पर टिकी थी, जिसके काम करने का आधार बना न्यूनतम साझा कार्यक्रम।
इस कार्यक्रम को बनाने और कुछ हद तक इसे लागू करवाने में सीताराम येचुरी की महत्वपूर्ण भूमिका को प्रायः सभी राजनैतिक दलों ने स्वीकार किया है।
2014 में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने के बाद संविधान के बुनियादी मूल्यों और आम जनता की रोजी-रोटी पर हमले तेज हुए हैं। इन हमलों का मुकाबला करने के लिए विपक्ष को एकजुट करने में सीताराम की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
चाहे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने का मामला हो, या किसान विरोधी तीन कृषि कानूनों और मजदूर विरोधी चार श्रम संहिताओं के खिलाफ संघर्ष में किसानों और मजदूरों की वर्गीय एकता बनाने का मुद्दा हो, सीताराम की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
हमेशा उनका जोर जनसंघर्षों को वर्गीय संघर्षों में बदलने पर रहा। उनका मानना था कि यही संघर्ष वामपंथ को नई ताकत दे सकते हैं और राजनीति में वामपंथ को पुनः प्रतिष्ठित कर सकते हैं।
इन जनसंघर्षों और वर्गीय संघर्षों की कोख से ही ‘इंडिया’ समूह का जन्म हुआ, जो आज भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को सीधे टक्कर दे रही है। अपने अंतिम समय में इस गठबंधन की राजनीति को विकसित करने में वे लगे हुए थे।
28 सितम्बर को दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें श्रद्धांजलि देने के कार्यक्रम में इंडिया समूह के सभी दलों ने उनके इस योगदान को सराहा है और भाजपा-आरएसएस की सांप्रदायिक, फासीवादी राजनीति का एकजुट होकर मुकाबला करने का संकल्प लिया है।
इस संकल्प को पूरा करना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी, क्योंकि कॉमरेड सीताराम येचुरी का सपना ही था : सांप्रदायिक-फासीवादी राजनीति को परास्त करने का, संविधान के बुनियादी मूल्यों की रक्षा करने का, आम जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों के विस्तार का, अनेकता में एकता के लिए देश की विविधता को स्वीकार करने का।
(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं)
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