जावेद अनीस ने इस बे-रहम दुनिया को अलविदा कह दिया है। यह लिखते हुए मुझे अब भी यक़ीन नहीं हो रहा कि मेरे जैसे कई साथियों का प्यारा-दुलारा दोस्त जावेद, अब हमारे बीच नहीं है।
वह हर-दिल-अज़ीज़ और उसकी शख़्सियत दिल-आवेज़ थी। वह बहुत कम-गो और अपने ही ख़यालात में गुम रहनेवाला शख़्स था। बेहद संवेदनशील। धीर-गंभीर। मुस्कान उसके होठों पर आहिस्ता से आती थी, और आते ही वहीं ठिठक जाती। वहीं कोई बात पसंद आ जाए, तो ज़ोर से ठहाका लगाकर हंसना, उसकी फ़ितरत में था।
मुझे नहीं मालूम जावेद अनीस ने कभी किसी का दिल दुखाया होगा, किसी से कोई कड़वी बात की होगी या फिर किसी से उसकी दुश्मनी ! ना बाबा ना ! जावेद अनीस की यह फ़ितरत ही न थी। भोपाल और इसके अलावा कई जगह हमारी मुलाक़ात हुई, वह हमेशा मुहब्बत और ख़ुलूस से पेश आता था। ए
क-दूसरे के हाल-चाल जानने के बाद, अक्सर हमारी बात लेखन से ही शुरू होती। जिन लोगों ने जावेद अनीस का लेखन देखा-पढ़ा है, वे जानते हैं कि जावेद बहुत अच्छा लेखक था।
हर मुद्दे पर उसकी बेहतर समझ थी। चीज़ों का विश्लेषण वह बेहतर तरीक़े से करता था। देश-दुनिया की राजनीतिक, सामाजिक ख़बरों पर उसकी हर दम नज़र रहती। यथासंभव वह इन पर अपनी क़लम भी चलाता।
लेकिन उसके लेखन में निरंतरता नहीं थी। मिलने पर मैं इसकी शिकायत भी करता। पर वह अपनी ही चाल से चलने में पूरी तरह ख़ुश और मुतमइन दिखाई देता।
पिछले चार-पांच साल से जावेद अनीस से मेरा इसरार था कि वह अब अपनी किताब भी लेकर आए। ख़ास तौर पर मदरसों पर वह जो पीएचडी कर रहा था, मेरी दिली तमन्ना थी कि यह थीसिस किताब के तौर पर पाठकों तक पहुंचे। लेकिन जावेद अनीस लेखन में मुझे कभी ज़्यादा महत्वाकांक्षी नहीं दिखाई दिया।
लेखन उसके लिए समाज में अपना एक हस्तक्षेप था। सामाजिक सरोकार था। जो विषय उसके मन को आंदोलित करता, वह उसी पर अपनी क़लम चलाता। ख़ास तौर पर समाज में बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता, असहिष्णुता और मज़हबी कट्टरपन उसे परेशान करता। अपने लेखन में वह इन पर लगातार कड़ा प्रहार करता।
जैसा कि आप जानते हैं, जावेद अनीस एक एनजीओ से वाबस्ता था। महिलाओं और बच्चों के अधिकार, उनकी शिक्षा आदि भी उसकी चिंताओं में रहता। जावेद की फ़ेसबुक वॉल पर जाएं, तो आपको उसके ऐसे कई लेख दिखाई देंगे, जो उसकी सोच की नुमाइंदगी करते हैं।
इन लेखों में वह बड़े ही सहजता से अपनी बात पाठकों के सामने रखता था। जावेद अनीस और मैं कई बार तमाम पत्र-पत्रिकाओं में एक साथ छपे। पर हमारे विषय बहुत कम आपस में टकराते थे। दोनों के ही लेख अलग-अलग मिज़ाज के होते।
अख़बारों एवं प्रतिष्ठित वेबसाइट मसलन ‘द वायर’, ‘न्यूज क्लिक’, ‘जनपथ’, ‘आई चौक’, ‘सत्य हिंदी’, ‘सब लोग’, ‘मीडिया विजिल’ के अलावा ‘समयांतर’, ‘समकालीन जनमत’ और ‘फ़िलहाल’ जैसी वामपंथी विचारधारा की पत्रिकाओं में भी जावेद अनीस मुसलसल लिखता रहा।
शायद ही ऐसा हुआ हो कि संपादकों ने उसके आर्टिकल रिजेक्ट किए हों। क्योंकि उसका लेखन बड़ा ही सधा हुआ और भाषा जीवंत थी। वहीं उनमें वैचारिक स्पष्टता भी साफ़ दिखाई देती थी। कहीं कोई वैचारिक भटकाव नहीं।
एक अच्छे लेखन की ख़ुसूसियत भी यही है। यही वजह है कि सभी पत्र-पत्रिकाओं में वह अहमियत के साथ छपता था। तमाम एडिटर और एडिटोरियल पेज़ के प्रभारी उसे जानते-पहचानते थे।
लेखन के अलावा जावेद अनीस के मिज़ाज को जितना मैं ऑब्जर्व कर पाया, उसे अच्छा सिनेमा और घूमना पसंद था। जब भी कोई वैचारिक फ़िल्म आती, वह न सिर्फ़ उसे देखता, बल्कि इस पर अपने विचार भी साझा करता।
फ़िल्म पर समीक्षा लेख लिखता। वैचारिक गोष्ठियां, सेमिनार और कॉन्क्लेव में जावेद अनीस हमेशा हिस्सा लेता। ‘भारतीय ज्ञान विज्ञान समिति’ यानी बीजीवीएस और ‘विकास संवाद’ के आयोजनों में उसकी अनिवार्य भागीदारी होती थी। ज़ाहिर है कि इन्हीं मौक़ों पर मेरी उससे मुलाक़ात हुई।
प्रगतिशील, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जावेद अनीस ने कभी किनारा नहीं किया। यही वजह है कि न सिर्फ़ भोपाल के बल्कि भोपाल से बाहर के भी लेखक, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं में उसकी एक अलग पहचान थी। जावेद अनीस सिर्फ़ लेखक ही नहीं, बल्कि एक एक्टिविस्ट भी था।
दुनिया भर में इंसानियत के ख़िलाफ़ जब भी कोई हमला होता, इन प्रवृतियों के विरोध में भोपाल में जो विरोध-प्रदर्शन होते, वह उनमें पेश-पेश रहता। जावेद के साथ अक्सर उनकी जीवनसंगिनी उपासना जी भी होतीं।
मुझे हमेशा यह दोनों ख़ुश नज़र दिखाई दिए। भोपाल और भोपाल से बाहर तमाम प्रोग्राम ये एक साथ अटेंड करते थे।
जावेद की ज़िंदगी में यकायक ऐसा क्या घटा कि उसने एक आत्मघाती क़दम उठाया ? ज़ाहिर है कि यह एक ऐसा सवाल है, जो उसके चाहनेवालों को हमेशा परेशान करता रहेगा। मुझे ही नहीं, बहुतेरे लोगों को जावेद अनीस से काफ़ी उम्मीदें थीं।
लेकिन वह हम सबको एक झटका देकर, सदा के लिए चला गया। जावेद कहीं भी रहेगा, उसकी संवेदनाएं उत्पीड़ितों और मज़लूमों के ही हक़ में होगीं और वह उन्हीं की चिंता करता रहेगा। सलाम दोस्त !
(ज़ाहिद ख़ान रंगकर्मी और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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