‘एक बार जब मना कर दिया गया था, तो दोबारा कहने की हिम्मत कैसे की इसने?’ अब्बा इतनी ज़ोर से गरजे कि अम्मी थर-थर कांपने लगीं, जबकि वह उनका मामला था भी नहीं। और तनु? तनु, जिसका मामला था, वह तो मारे डर के पत्थर हो गई। उसने मन ही मन मीताली घोष को वह सारी गालियां दे डालीं, जो एक सभ्य और पढ़ी-लिखी लड़की किसी को दे सकती है। सारी मुसीबत कि जड़ मीताली थी, जिसके बरगलाने पर तनु ने कालेज की ट्रिप पर जाने की बात दोबारा घर में छेड़ी थी।
अब्बा बहुत ही कम बोला करते थे, लेकिन जो बोलते वह मौत कि तरह अंतिम और निश्चित हुआ करता था। हां, दादी किसी के पक्ष (या विपक्ष) में बोलना शुरू करतीं तो उनकी ज़बान तब ही रुकती थी जब वह थक जातीं। उससे पहले नहीं। इसलिए अब्बा तो एक बार गरज कर चले गए मगर दादी चालू हो गईं।
एक तो ऐसा ज़माना आ गया है कि लड़कियों को पढ़ाना जरूरी हो गया है। यही निवाला गले से उतारना मुश्किल था, इस पर कमसिन लड़कियां और जवान जहान उस्तादनियां वे नथे बैल की तरह- जहां चाहा वहां टूर के नाम पर अकेले निकल खड़ी होती हैं। पता नहीं रास्ते में क्या मुसीबत आन खड़ी हो। फिर अकेले घूमने पर आंख का पानी मर जाए वह अलग। लोगों का क्या है, उनकी तो हाथ-हाथ भर लंबी ज़बाने चलती हैं। कल फलां को कोई कह देगा ‘ अरे वह तनु- वही न जो जाने कहां-कहां घूमती-फिरती थी। ना बाबा ना उसे कौन बहू बनाएगा।’
दादी की हर बात पर तान तनु के किसी की बहू बनने पर जाकर टूटती।
कमरे में जाकर तनु तकिए से मुंह छिपाकर खूब रोई। पूरा क्लास कुल्लू मनाली के ट्रिप पर जा रहा था। तनु को मालूम था अब्बा नहीं राज़ी होंगे। अब्बा राज़ी हो जाएं, तो दादी फिर कुछ नहीं कहतीं। दादा के जीवन काल में वह उनकी छाया में चलती थीं। दादा परलोक सिधार गए तो उनके वली, वारिस, सरपरस्त सब कुछ उनके बड़े बेटे अर्थात तनु के अब्बा थे।
इसलिये तनु को दादी का कोई डर नहीं था, डर तो दरअसल अब्बा का था। फिर भी वह यह बात कहने की हिम्मत कर बैठी थी- टूर की इजाजत मांगने की हिम्मत कर बैठी थी। इसलिए कि कभी-कभी इंसान किसी अनहोनी की उम्मीद में भी बहुत सारी बातें कर बैठता है।
अब्बा ने सिगार के धुंए के परदे के पीछे से तनु को घूर कर देखा था और दो शब्द कहे थे। सिर्फ दो शब्द ‘जी नहीं।’ फिर वह एक मोटी सी किताब पर झुक गए थे। अब्बा यूनिवर्सिटी में इकनामिक्स डिपार्टमेंट में रीडर थे। ‘पता नहीं चचा लेक्चर कैसे देते होंगे ? लेक्चरर को तो बहुत ही बोलना पड़ता है-‘ एक दिन अज्जी ने पूछा था, जो तनु के छोटे चाचा की बेटी थी और लगभग तनु की ही उम्र की थी।
‘अब्बा के स्टूडेंट्स उनसे बहुत चिढ़ते होंगे। तनु ने झट से कहा। वह उस वक्त स्कूल की छात्रा थी। ‘क्यों क्या तुम चिढ़ती हो उनसे?’ अज्जी ने सवाल किया था।
‘मैं….मैं…..’ तनु गड़बड़ा गई। वह शायद इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थी। बाप से चिढ़ना नहीं चाहिए। मां-बाप के पैरों तले तो जन्नत होती है। छि: क्या कोई अपने सगे बाप से चिढ़ सकता है? किसी ने तनु के कानों में जैसे बार-बार यह बात दोहराई। वह हड़बड़ा कर बोली-‘नहीं अज्जी मैं तो अब्बा से बहुत प्यार करती हूं।’ यह बात तो कोई चार साल पुरानी हो गई थी।
लेकिन आज तकिए में मुंह छिपाकर रोते हुए इन्टरमीडिएट फाइनल की अट्ठारह वर्षीय छात्रा तनु ने सोचा कि वह अब्बा से चिढ़ती है, और सदा से चिढ़ती आई है। वह अच्छे नम्बर लेकर आती तो अब्बा किसी मोटी सी किताब या सिगार के धुएं के पीछे से एक नजर उसकी रिपोर्ट पर डालते और कहते ‘ठीक है- ठीक है।’ बस इतना ही बोलते थे वह।
फिर ऐसा हुआ कि दो बार तनु का रिज़ल्ट खराब हुआ। पहली बार तो अब्बा ने तनु को घूर कर देखा और लंबी हूं-ऊं की और दूसरी बार वह बड़े ही जोर से दहाड़े ‘खालि आऽऽ’ अम्मी घबराकर दौड़ी हुई आईं। ‘क्या हुआ ?’
‘साहबजादी मैथेमैटिक्स और अंग्रेज़ी, दोनों में फेल हैं। फिज़िक्स में मुश्किल से खींचतान कर पास हुई हैं। सलमान मियां को खबर कराइए। कि वह यहां भी टयूशन देने लगें।’ सलमान मियां, यानी अज्जी के ट्यूटर शहर की बहुत सी साइंस पढ़ने वाली लड़कियों के ट्यूटर। अज्जी उनके साए से दूर भागती थी। रगड़वाते थे अपने शागिर्दों को। और लड़के-लड़की का लिहाज़ किये बगैर, पिटाई भी कर देते थे। सूरत के अलग मनहूस थे। शक्ल अच्छी होती तो कम-स-कम आंखों को तो आराम मिलता, लेकिन न जाने क्यों शहर के सारे वालिदेन, लड़कों के लिए किसी और को रख लें तो रख लें, लड़कियों के लिए सलमान मियां के ही पीछे पड़े रहते।
‘यह तो बड़ी बुरी सजा सुना दी अब्बा मियां, मैं कड़ी मेहनत कर लूंगी, ये सिर्फ मेरी बेपरवाही से हुआ है। ट्यूशन मत दिलवाइए। दरअसल मैं किसी भी सब्जेक्ट में अब इतनी बुरी नहीं हूं।‘ सलमान मियां अगले हफ्ते से तनु को पढ़ाने के लिए आने लगे। अब तनु को रोज रात में भयानक सपने आया करते थे।
एक दिन जब गर्मी की शाम को बड़ी सुहानी पुरवाई चल रही थी और आंगन में मौलसिरी के दरख्त के नीचे बिछे तख्त पर बैठे अब्बा अपनी कभी- कभी प्रकट होने वाली मुस्कराहट के साथ अम्मा की तरफ मुहब्बत से देख रहे थे और अम्मा अपने दहेज में मिले जापानी टी सेट की बारीक, नाजुक प्यालियों में चाय उड़ेल रही थी, तो इस बहुत रोमांटिक और प्यारे पसमंज़र में तनु की हिम्मत कुछ बढ़ी थी कि वह मन में अर्से से छुपी एक बात को होंठों तक लाए।
उसने कहा ‘अब्बा मेरी सब सहेलियां कहती हैं कि मेरी आवाज़ गज़ल के लिए बहुत ही अच्छी है। लड़कियां इसरार कर-करके मुझसे गजलें सुनती हैं। हमारे स्कूल की म्यूजिक टीचर मिसेज़ लहरी का कहना है कि अगर मैं थोड़ी सी ट्रेनिंग ले लूं तो रेडियो पर प्रोग्राम भी दे सकती हूं।’
‘तनु बिटिया आप कहना क्या चाहती हैं?’ तख्त पर आधे लेटे अब्बा उठकर बैठ गए।
‘वह…. वह अब्बा मियां मिसेज लहरी शाम को घर पर प्राइवेट कोचिंग भी कराती हैं। आपकी इजाजत हो तो………..
‘अपनी म्यूजिक टीचर से कह दीजिएगा कि गाना-बजाना शरीफ लड़कियों का काम नहीं है। वह अपनी दुकान के लिए दूसरा ग्राहक ढूंढें।” वह इसके बाद इत्मीनान से चाय की चुस्कियां लेने लगे। चाय की प्याली खत्म करने से पहले उन्होंने फैसला किया कि इस साल की परीक्षा के बाद तनु को अंग्रेजी मीडियम स्कूल से हटा लेना है। आए दिन ड्रामा, डांस, म्यूज़िक, लड़की इन सब खुराफात में पड़ गई तो पढ़ेगी क्या खाक?
मैट्रिक के रिजल्ट के बाद तनु को पता चला कि उसका नाम हिन्दी मीडियम इंटर कालेज में लिखवाया जा रहा है। सारी पक्की सहेलियां बिछड़ गयीं। पहले स्कूल में तनु नर्सरी से पढ़ती चली आ रही थी। अब इतने दिन बाद बिल्कुल नए माहौल में एडजस्ट करना, नए सम्बंध बनाना बहुत हाथ-पांव फेंके तनु ने, लेकिन अब्बा मियां के फैसले तो ऐसे ही हुआ करते थे जैसे कोई खड़ा-खड़ा गिरकर मर जाए, अचानक भूकंप आ जाए, मूसलाधार वर्षा होने लगे या फिर अचानक किसी का ब्याह तय हो जाए।
अब भला ऐसे अब्बा मियां से उसने क्यों कहा था कि वह कालेज ट्रिप पर जायेगी? बुरा हो इस कमबख्त मीताली घोष का…..नीच कहीं की। उसने कहा था- ‘तनु मां-बाप तो हर बात के लिए मना करते ही हैं। यह उनका स्वभाव ठहरा। बच्चे ज़िद करते हैं। यह बच्चों का स्वभाव ठहरा। अब कहीं न कहीं इन दोनों को बीच में समझौता करना पड़ता है। तू ज़िद करके देख तेरे बगैर ट्रिप में मज़ा नहीं आएगा, इतने मीठे सुरों में गजलें किससे सुनेंगे रास्ते भर ? बोल तो सही!’
मोटे-मोटे आंसू तनु की आंखों से गुजरकर उसकी नाक की नोक पर आए और टप-टप करके गोद में गिरने लगे…… जैसे मोतियों की माला टूट गई हो। अगर अभी मीताली वहां होती तो तनु ने उसे खसोट लिया होता कि……. कि अब्बा मियां को खसोटना तो उसकी कल्पना से भी परे था।
-बड़े भैया ने उस साल एम. काम की परीक्षा फर्स्ट डिविजन में पास की थी। रिजल्ट आते ही उन्हें प्राइवेट कम्पनी में अच्छी नौकरी मिल गई। तनु का बी.एस.सी. फाइनल था। दादी की आंखों का आपरेशन कामयाब रहा था और फिर से वह पटर-पटर देखने लगी थीं।
छोटी फूफी के ब्याह का मसला दो साल हुए कि हल हो गया था वह अपने घर आबाद हो चुकी थीं। तनु का कहना है अब्बा मियां ने एक नजर इस भरे पूरे घर में डाली होगी जो बड़े इत्मीनान से अपनी धुरी पर घूम रहा था, फिर भय्या के मजबूत चौड़े कंधों को देखा होगा जो अब जिन्दगी का हर बोझ उठाने योग्य हो चुके थे और अचानक उन्होंने फैसला किया होगा कि अब इस घर को उनकी जरूरत नहीं। अब उन्हें आराम करना चाहिए। इसलिए एक दिन बिना कोई चेतावनी दिए वह चुपचाप मर गए।
‘भैया’ – बी.एस.सी. का रिजल्ट आने के बाद तनु ने धीरे से कहा- “अब मेरा आगे की पढ़ाई के लिए…….’
‘हां-हां लेडी इमाम वूमेन्स कालेज में पोस्ट ग्रेजुएट क्लासेज भी खुल गए हैं। मैं फार्म मंगवा लूंगा।’ भैया ने नीचे से कहा।
‘लेडी इमाम कालेज?’ तनु ने आश्चर्य से कहा। ‘वहां साइंस नहीं, अभी सिर्फ आर्ट्स है और उसमें भी बहुत कम सब्जेक्ट्स के डिपार्टमेंट खुले हैं।’ फिर वह जल्दी से बोली। वैसे मुझे आर्ट्स से क्या मतलब, कम सब्जेक्ट हों या ज्यादा।’
साइंस के लिए तुम्हें साइंस कालेज जाना पड़ेगा। वहां 90 फीसदी लड़के ही हैं और एक से एक उज्जड और गंवार। सुना नहीं तुमने, अभी हाल ही में कैम्पस में बम फटा था। और हास्टल के कमरों से शराब, अस्लहे और लड़कियां बरामद हुई थीं। मैं तुम्हें वहां दाखिले की इजाजत नहीं दे सकता। अब जबकि अब्बा नहीं हैं।
मारे गुस्से और सदमें से तनु हकलाने लगी। ‘भैया मैं आर्ट्स कैसे पढ़ सकती हूं। भैया मैंने तो बायोकेमेस्ट्री में एम. एस.सी. करने का मंसूबा कब से बना रखा है! भैया, मैं तो उसमें रिसर्च….”
भैया ने बात काट दी: साइंस वालों के लिये तो आर्ट्स बच्चों का खेल है! अरे भई, अंग्रेज़ी तो तुम लाज़मी मज़मून के तौर पर शुरू से पढ़्ती रही हो। अंग्रेज़ी अच्छी भी है बहुत तुम्हारी। चुट्की बजाते फर्स्ट क्लास लाओगी। उसी में एम ए कर लो। मैं आज ही फार्म मंगवा देता हूं। बड़ा हंगामा किया तनु ने। बहुत बावेला मचाई, मगर भैया टस से मस न हुए। फार्म मंगवाकर उसकी खानापूरी भी कर डाली। बस दस्तखत की जगह छोड़कर तनु के आगे कर दिया।
बोले-‘एम.ए. करना है तो करो वर्ना अब पढ़ाई खत्म। वर की तलाश जारी है। जिस दिन मिल गया उस दिन समझो शादी। एम.एस.सी. करके करोगी भी क्या? वही चूल्हा- हांडी। तवे की कालिख की केमेस्ट्री जानकर कौन सा इंसानियत का भला हो जाएगा।’
फिर कालेज में छह माह बीत गए तो तनु ने घर बैठने के बजाय एम.ए. कर लेना ही ठीक समझा। खुली हवा में सांस लेते रहने का मौका तो रहेगा। अंग्रेजी साहित्य उसे अच्छा लगने लगा। फिर उसने अपनी एक छिपी हुई योग्यता को भी पहचाना। उसके अंदर अपनी बात को शब्दों में ढालने की सलाहियत थी। उसने सोचा वह एम.ए. के बाद पत्रकारिता में डिप्लोमा कर लेगी। हालांकि बायोकेमेस्ट्री में एम.एस.सी. न कर सकने की फांस दिल में गड़ी हुई थी और अक्सर कसक दे उठती थी।
एम.ए. फाइनल का इम्तहान चल रहा था। एक पेपर बाकी रह गया था। तनु घर लौटी तो देखा कि एक हलचल सी है और अम्मा बड़ी खुश दिखाई दे रही हैं। अम्मा को खुश देखकर तनु का दिल खिल गया। जब से अब्बा मरे थे वह बुझ कर रह गई थीं। ‘क्या बात है अम्मा?’ तनु ने पूछा तो दादी भी अपने पोपले मुंह से मुस्करा उठीं।
‘इकबाल के घर से तेरे रिश्ते की मंजूरी आ गई है। बड़ा ही अच्छा लड़का है। बैंक में अफसर है। घर घराना भी अच्छा है। बहुत खुश रहेगी बेटी।’ अम्मा की आंखों में आंसू तैरने लगे।
तनु को जैसे बिजली का करंट लगा। ‘यह कब कैसे हो गया अम्मा और यह इकबाल कहां से धरती पर उग आए (या आसमान से टपक पड़े)। अम्मा मैं तो-मैं तो-‘ वह ज़ाकर भैया से लिपट गई। ‘भैया! मैं तो जर्नलिज्म में डिप्लोमा करना चाहती हूं। आइंदा, मेरी तालीम का बोझ आप पर नहीं पड़ेगा। मैं कोई पार्ट टाइम जॉब कर लूंगी और उसके साथ-साथ डिप्लोमा कोर्स करूंगी। मुझे जिंदगी में कुछ तो करने दीजिए……।’
वह तूफान मेल की रफ्तार से न जाने क्या-क्या बोलती चली जा रही भैया की तेज़ और पैनी नजरों ने अचानक उसकी ज़बान पर ब्रेक लगा दिया। ‘तनु ! क्या तुम लोगों से यह कहलवाना चाहती हो कि बाप के मरने के बाद सैयद हसन अब्बास ने बहन की कमाई खाई और जवान कुंवारी बहन के होते हुए खुद अपनी शादी रचाकर बैठ गया? जाओ अपने कमरे में! अच्छे रिश्ते बार बार नहीं मिला करते। तुम्हें बाहरी दुनिया और समाज का कोई अंदाज़ा नहीं है। मैं तुम्हारा सगा भाई हूं तुम्हारा खैरख्वाह। इकबाल से तुम्हारी कोई शिकायत नहीं होगी। मैंने उसे अच्छी तरह छान फटक लिया है। भैया का लहज़ा पुर सकून था, ठंडा था, और उसमें ऐसी कठोरता थी जैसी अब्बा के लहज़े में हुआ करती थी।
तनु फूट-फूट कर रो पड़ी।
शादी के कई महीने बाद तनु को लगा कि इकबाल आदमी तो अच्छे खासे हैं। हालांकि इनसे प्यार करने में अभी वक्त लगेगा। सिर्फ काज़ी के सामने ‘हां’ कह देने भर से तो कोई प्यार नहीं किया जा सकता। ज़रा इनसे थोड़ी और दोस्ती कर लूं, थोड़ा और जांच परख लूं तो फिर इन्हीं से कहूंगी कि जर्नलिज्म का डिप्लोमा कोर्स करने की इजाज़त दें।
‘सुनो इकबाल’….. एक दिन उसने कुछ कहने को मुंह खोला। ‘ए तनु बेगम, यह आप अकेले में तो इकबाल, इकबाल कर लीजिए, लेकिन ख़ुदा के वास्ते अम्मी और फूफी के सामने मेरा नाम यूं न लिया कीजिए, जैसे मैं शौहर नहीं छोटा भाई हूं। हमारे यहां इसका रिवाज़ नहीं है।
तनु हंस पड़ी। आपके यहां क्या अभी तक ‘ए जी’ और ‘ओ जी’ का रिवाज है?
इकबाल के माथे पर लकीरें पड़ गई। ‘आपके यहां से क्या मतलब है आपका ? यह मेरा घर मेरा कुनबा अब आपका भी है। यहां की रवायतें अब आपकी अपनी हैं।’ इकबाल का लहज़ा बहुत गंभीर था और ठंडा भी।
तनु ने कुछ कहना चाहा ही था, कि इकबाल ने हाथ के इशारे से उसे रोक दिया- ‘एक बात और कहना चाह रहा था आपसे-आपके कई ब्लाउज़ में आस्तीनें नदारद हैं। इनमें बाहें लगवा लीजिए। अगर मैचिंग कपड़ा नहीं मिल सके तो फिर दूसरे ब्लाउज सिलवाइए। इस मौजू पर और कोई बातचीत नहीं होगी।’
अगले छह माह में तनु को और भी बहुत सी परंपराओं से आगाह किया गया जिनकी उसे पाबंदी करनी थी। इनमें सबसे बड़ी परंपरा यह थी इकबाल को बहस करना सख्त नापसंद था। वह घर का सबसे बड़ा बेटा और उसे बिना हीलहुज्जत अपनी बात मनवाने की आदत थी।
वैसे इस नए घर के सभी लोग अच्छे थे। इकबाल की मां और बहन प्यार करने वाली और हंसमुख औरतें थी। इकबाल बड़ा पक्का ‘फैमली टाइप’ का आदमी था। आफिस से सीधा घर आता। तनु के लिए अक्सर कुछ लेता हुआ आता। शनीचर की शाम को दोनों घूमने ज़रूर जाते। कभी कभी अम्मी से इजाज़त लेने के बाद खाना भी बाहर खा लिया करते थे।
लेकिन सारा प्यार सारी अनुकम्पाएं शर्तों में बंधी हुई थीं। तनु को उनकी जिन्दगी जीनी थी। कोई काम ऐसा नहीं करना था जो इकबाल या घर के लोगों को नापसंद हो। इकबाल की नाराजगी, उसकी उपेक्षा का दानव उसे निगल जाता।
उसके चारों ओर लक्ष्मण रेखा खिंची हुई थी। इससे बाहर निकलती वह लक्ष्मण रेखा से बहुत ज्यादा दूर निकल जाती तो….. मगर क्या कभी ऐसा होता है कि छोटी-छोटी बातों पर ब्याही हुई लड़कियां अपनी रस्सी तुड़ाकर कहीं दूर निकल जाएं? प्यार और सामाजिक सुरक्षा की बुनियादी ख्वाहिश का गला क्या सिर्फ इसलिए घोंट दिया जाता है कि औरत जो चाहती कि वह उसके घर वालों को मंजूर नहीं है? यह कीमत बहुत ज्यादा है क्या? और बगैर कीमत चुकाए इस संसार में किसी को कुछ मिल पाता है?
‘इकबाल – तुम्हारी बहन ने लॉ का इम्तहान पास कर लिया है। तुम्हारे बहनोई ने फक्र से लिखा है कि अब वह प्रैटिक्स करेगी।’
‘तुम्हारी बहन अगर घर से बाहर निकलकर मर्दों वाला पेशा अपना सकती है, तो मैं नौकरी क्यों नहीं कर सकती ?’
‘तनु तुम टेढ़ी-मेढ़ी बातें मत किया करो। सीमा अब महफूज की बीवी है। महफूज जो चाहे उससे करा सकते हैं। सीमा पर अब मेरा कोई हक नहीं हैं; रही तुम यानी मेरी बीवी, तो तुम पर मेरा पूरा हक है। तुम्हारा नौकरी करना मुझे पसंद नहीं। खासकर वह अखबार वाली नौकरी जो तुम करना चाह रही थी।
फिर वह बड़ी नरमी से बोला- ‘तनु अब हमारे बच्चे होंगे, मुझे पसंद नहीं कि बच्चों की देखभाल नौकरों के हाथों हो। और जब मैं घर लौटूं तो तरो-ताजा और शादाब बीवी की जगह एक थकी-हारी, चिड़चिड़ी औरत दिखाई दे। तुम्हें क्या कमी है तनु? आखिर क्यों तुमने नौकरी-नौकरी की रट लगा रखी है? – कमी क्या हो सकती है? तनु ने सोचा। कम से कम दुनिया की आंखों में तो कोई कमी नहीं।
अपनी अस्मिता, अपने व्यक्तित्व को मनवाने, कुछ करने, अपनी तालीम का फायदा उठाने का मौका न मिल रहा हो तो कोई कमी कहां कही जाएगी! जिन्दगी चलती रहे चक्की की तरह घों-घों-घों करती। सपाट…… उबाऊ…..नीरस- कमी कहां है? सिर्फ कल्पना में कोई कमी मानने को तैयार क्यों हो !
अचानक इकबाल का ट्रांसफर एक दूसरे शहर में हो गया। तनु थोड़ी खुश हो उठी। शायद अब जिन्दगी में कुछ नयापन आए। उसे मुश्तरका खानदान से कोई शिकायत नहीं थी। लेकिन हर औरत के अंदर छिपी वह ख्वाहिश उसके अंदर भी मौजूद थी कि उसका अपना घर हो जहां वह इकलौती मालकिन हो।
जहां बाहर जाने से पहले किसी से यह न कहना पड़े कि ‘इजाज़त हो तो हम बाहर घूम आएं’ और शौहर के साथ पूरी तनहाई मिल सके। यहां तो कुनबे के सारे लोगों में बंटने के बाद बचा-खुचा ही उसे मिल पाता था। सवेरे की चाय तक कभी अलग नहीं पी उसने, सब इकट्ठे मिलकर चाय पिया करते थे। मगर इकबाल ने कहा कि वह तनु को साथ लेकर नहीं जाएगा। तनु यहीं रहेगी। साल दो बरस बाद वह अपना ट्रांसफर वापस यहीं करवा लेगा। बीच-बीच में आता रहेगा।
और मैं?
‘तुम्हें यहां क्या तकलीफ है? तकलीफ हो तो जाओ मायके चली जाओ!’
‘इस हालत में मैं सिर्फ तुम्हारे नजदीक रहना चाहती हूं इकबाल कठदलीली मत किया करो।’
…….’ इस हालत में मैं क्या करूंगा?’
इकबाल ! सिर्फ यही बात नहीं। कुछ और भी है। मैं अपना घर चाहती हूं। बिल्कुल अपना, जिसे मैं अपनी मर्जी से संवारूं सजाऊं, जहां तुम सिर्फ मेरे हो, और…..’
और…… इकबाल उठकर खड़ा हो गया। उसका चेहरा इंतहाई कठोर हो उठा था। यह खुराफात तुम्हारे दिमाग में किसने भरी? तुम मुझे सबसे अलग कर देना चाहती हो? मेरी मां, जिन्होंने मुझे पैदा किया, पाला-पोसा, मेरे भाई जो मुझे भैया कहते नहीं थकते? मेरी बेवा फूफी? मैं इन सबको छोड़ दूं?”
भावावेश में वह हकलाने लगा।
‘- इकबाल खुदा के लिए मुझे गलत मत समझो, अलग रहने का मतलब रिश्ते-नाते खत्म करना नहीं होता। मुझे तुम्हारे तमाम रिश्तों से प्यार है, इकबाल यकीन करो।’
-‘ खामोश रहो!’ वह किसी शेर की तरह गरज उठा।
‘नहीं रहूंगी।’ पहली बार तनु चिल्लाई।’ अब मैं भी चुप नहीं रहूंगी। मेरी बात का गलत मतलब निकाल रहे हो तुम! क्या मुझे तुम्हारे ऊपर कोई हक नहीं? अपनी किसी आरज़ू का इज़हार करना गुनाह है? अगर है तो सिर्फ मेरे लिए क्यों है?’
अम्मी दौड़ती हुई अंदर चली आईं। क्या हुआ दुल्हन? उन्होंने रोती दुल्हन को गले से लगा लिया। फिर इकबाल को डांटते हुए बोलीं ‘क्या कहा तुमने? जानते नहीं वह मां बनने वाली है, ऐसे में कुछ औरतें चिड़चिड़ी और हस्सास हो जाती हैं।
इकबाल ने मां की बात का कोई जवाब नहीं दिया। तनु से मुखातिब होकर बोला- ‘तुमने मुझसे ऊंची आवाज में चिल्लाकर बात की है। इसकी तुम्हें सजा मिलेगी।’
और उसने तनु को सबसे कठोर सजा दी। दो हफ्ते बाद उसे नए जगह जाना था; पर वह जाते वक्त उससे मिला भी नहीं। उसके ‘खुदाहाफिज’ कहने पर भी जवाब नहीं दिया। उसे चले जाना था। इस पूरी मुद्दत में उसने तनु से बात नहीं की। चलते वक्त उसने अपना सामान दुरुस्त करने की इजाजत भी नहीं दी। कुछ सामान खुद रखा, कुछ मां और बहनों ने रखवाया। तनु के हाथ का नाश्ता तक लेने से साफ इनकार कर दिया।
बेइज्ज़ती और घोर उपेक्षा की आग में जलती तनु अपने आंसू पीती रही। शायद उसने किसी दिन कहा होता ‘मुझे माफ कर दीजिए आका। मैं कसूरवार हूं।’ तो शायद बात इतनी न बिगड़ती। लेकिन न जाने किस गूंगे दुख ने तनु की ज़बान बंद कर दी थी।
आका दो माह बाद छुट्टी लेकर घर आए तो वह तनु को माफी दे चुके थे, या फिर सजा की मियाद उन्होंने इतनी ही रखी थी। सज़ा देना और फिर माफ करना, सजा का स्वरूप तय करना यह सब उनके अधिकार थे। तनु इतना डर गई थी कि अपनी अम्मा के बुलाने के बावजूद मायके नहीं गई थी। मायके जाने से न जाने इकबाल पर क्या रिएक्शन हो। घर वापस आए इकबाल को उसने नार्मल पाया तो उसकी जान में जान आई। गर्चे भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट गया था।
तीन माह बाद तनु ने एक छोटे बेटे को जन्म दिया। फलालैन में लिपटे गोलमटोल खूबसूरत बच्चे को गोद में डालते हुए इकबाल की बहन ने कहा- ‘बेटा मुबारक हो भाभी।’
‘बेटा!’ तनु खिलखिलाकर हंस पड़ी। ‘यह मेरे चौथे अब्बा हैं। मेरा बुढ़ापा इनकी छत्रछाया में बीतेगा। खुदा न खास्ता इकबाल ने कहीं मुझसे पहले मरने का फैसला कर लिया तो ये मेरे गार्जियन होंगे। यह मेरे चौथे अब्बा।” उसने बच्चे को दोनों हाथों में संभाल लिया।
औरत के इतने अब्बा होने में क्या उसका या समाज का भला है?
(ज़किया मशहदी ;महिला समस्याओं को अपनी कहानियों का विषय बनाने वाली मशहूर लेखिका )
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