Saturday, April 27, 2024

जिद के पक्के, चित्रकार भाऊ समर्थ

भाऊ के बारे में सहजतः कुछ औपचारिक बातें की जाती रही हैं जो कलाकारों के द्वारा कम साहित्यकारों के द्वारा अधिक कही गई हैं। स्पष्टतः इसका कारण भाऊ का साहित्यकों के प्रति अनुराग और साहित्यिक संवेदनशीलता ही प्रमुख कारण है। उस समय नागपुर में मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, अनिल कुमार आदि से उनका घनिष्ठ संबंध रहा। मुक्तिबोध पर एक बहुत अद्भुत संस्मरण भाऊ ने लिखा था जो ‘सापेक्ष’ में छपा था। बाद में ‘धरती’ में भी मैने उसे लिया।

यह सर्वविदित है कि भाऊ के सर्वाधिक रेखाचित्र लघुपत्रिकाओं में छपे। बिना किसी आर्थिक लाभ या अपेक्षा के। भाऊ की पोती मोना उनके रेखाचित्रों को तकरीबन हर लघुपत्रिका संपादक को लगातार भेजती थी। मेरे पास भी ये चित्र 1980 से लेकर 1990 तक बराबर आते रहे।

भाऊ से मेरा व्यक्तिगत परिचय 1980 में ही हुआ था। वह विदिशा आये हुए थे और डॉ विजय बहादुर सिंह के यहां रुके थे। तभी ‘धरती’ का गजल अंक प्रकाशित हुआ था। डॉ साहब ने सलाह दी कि इसका लोकार्पण भाऊ द्वारा करा लीजिए। भाऊ ने व्याख्यान कला पर दिया। कला और साहित्य के अंतर्संबंधों पर भी बात की। साथ ही चेतना के विकास के लिए लघुपत्रिकाओं की जरूरत और उनकी भूमिका पर अपनी राय साझा की। संयोग से उसके बाद मैने महाराष्ट्र में नौकरी कर ली और नागपुर यात्रा के दौरान दो एक मुलाकातें और हुईं। यहां चित्रकला से पहले उनके जीवन पर एक दृष्टि डालना उचित होगा।

भाऊ समर्थ का जन्म महाराष्ट्र में भण्डारा जिले के लाखनी नामक ग्राम में 1928 को हुआ था। बचपन से ही उन्हें चित्रकला का बहुत शौक था। वे छः वर्ष की आयु से ही चित्र बनाने लगे थे और कक्षा में भी मौका मिलते ही चित्रांकन में लग जाते थे। उनके शिक्षक ने एक बार उनसे ताजमहल पर लेख लिखने को कहा किन्तु उन्होंने ताजमहल का चित्र बना दिया। परीक्षक ने उन्हें शून्य अंक दिया। भाऊ के मन में पहला विद्रोह का बीज यहीं पनपा। रेखाओं के टुकड़ों से अक्षर और शब्द बनते हैं, वह चलता है परंतु रेखाओं से बना ताजमहल नगण्य। ये कैसी पढ़ाई है? ज्ञान शब्दों में ही है, रेखाओं में नहीं, यह शिक्षकों द्वारा पाला गया भ्रम नहीं तो और क्या है?

नागपुर में अपने बचपन में जहां भाऊ रहते थे उसके पास ही पारंपरिक मूर्तिकार रहते थे। लगातार मूर्तियां गढ़ने का काम वहां चलता रहता था। उस जगह का नाम चितारओली है। भाऊ के मन और उनकी चेतना पर इस परिवेश का प्रभाव होना स्वाभॎविक था। एक और कला-प्रभाव जो उनके मन पर पड़ा वह उनकी मां का था। रंगोली भरना, मांडने मांडना, गोबर में रुई मिलाकर दीवार पर आकृतियां बनाना, चावल कूटकर सफेद रंग बनाना, चित्रों में रंग भरना, विवाह वेदी बनाना, यह सब माँ से ही सीखा था। इसके अतिरिक्त सिवइयां, सरबुंदे, बड़ी, पापड़ आदि बनाना भी मां से ही सीखा था।

उनकी प्राकृतिक कला का विकास घर और पड़ोस से लेकर गांव में बैलों की रंगाई-सज्जा से लेकर स्कूल की नोटबुक में शिक्षकों के स्केच बनाने तक हो गया था। माँ उनकी पहली कलागुरु थी। दुर्योग से एक दुखद घटना यह हुई कि 14 वर्ष की आयु में उनकी मां का निधन हो गया। मां की मॄत्यु से भाऊ बहुत विचलित हुए। वह मां को ढूंढने 52 किलोमीटर मामा के गांव पैदल चले गए। यद्दपि उन्हें पता था मां अब नहीं हैं। मामा से मिलकर पैदल ही वे वापस नागपुर आ गए।

मैट्रिक की परीक्षा फीस जमा करने के लिए एक सिनेमा थिएटर में बुकिंग क्लर्क की नौकरी कर ली। फिल्मों के पोस्टर बनाए पर साढ़े सोलह रुपये जमा नहीं कर पाये। पिता से उनकी बिलकुल भी नहीं पटती थी। बाद में पिता ने दूसरी शादी भी कर ली। सौतेली मां का स्नेह प्राप्त न होने पर वे मामा के गांव लाखनी पहुंच गये। यहां घर के काम के साथ-साथ स्थानीय विद्यालय में चित्रकला और अन्य विषय पढ़ाने लगे। लेकिन एक दिन नानी के ताना मारने पर वापस नागपुर लौट आए। संघर्ष जारी रहा और शिक्षा भी। उत्सवों के अवसर पर घर-घर में जाकर चित्र बनाने का काम करते।

वे नागपुर में कला विद्यालय में पढ़ते और छोटी कक्षा के बालकों को पढ़ाते। भाऊ कामर्स के विद्यार्थी थे किन्तु कापी पर व्यंग्य चित्र का रेखांकन करते देख कर उनके शिक्षक ने उन्हें चित्रकला की ओर प्रेरित किया। धीरे-धीरे वे चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हो गये और उनके चित्र भी छपने लगे। 1946 ई० में अखबारों में उनके कार्टून छपने पर उनके मित्रों ने उनके चित्रों का एलबम अमरीका भेज दिया। वहां से भाऊ को आर्थिक सहायता मिल गई और उनकी शिक्षा आगे बढ़ी।

1951 में उन्होंने अपनी प्रथम प्रदर्शनी अपने गांव में लगाई। 1951 में माचिस की डिब्बी में जितने रंगों की वस्तुएं हैं उन्हीं को लकड़ी पर चिपका कर लैण्ड स्केप बनाया। तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष जनरल केएम करिअप्पा प्रदर्शनी में आये। उन्होनें बीस मिनट तक उस चित्र को देखा और खरीद लिया। सारे देश में यह समाचार छपा। नागपुर के स्कूल ऑफ आर्ट में पढ़ते-पढ़ाते हुए उन्होंने मुंबई के सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। इसी समय वे सर जे. जे. स्कूल आफ आर्ट्स बम्बई में कला की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए चले गये। 1955 में जी. डी. आर्ट की शिक्षा के समय ये शबीह बनाया करते थे। उनके पास चित्रण सामग्री का बहुत अभाव रहता था।

वे आरम्भ में राजनीतिक कार्टून्स और पोर्ट्रेट्स बनाते थे। उनकी चित्रकला सिर्फ ब्रश, कागज़-कैनवास, रंगों तक सीमित नहीं थी बल्कि वे मूंगफली के छिलके, दियासलाई के विभिन्न हिस्से और तीलियां, चिंदियां, रंगीन कागज़ की कतरनें, लकड़ी का पिछला हिस्सा जलाकर कोलाज़ कलाकृतियां भी बनाया करते थे। पेन और पेन्सिल से बिंदुओं को थपककर, रेखाओं के पुंजों से विभिन्न आकार-प्रधान चित्रों का अंकन कर, उंगलियों से, ब्लेड से तथा बेकार और टूटे ब्रश की सहायता से रंग फैलाकर चित्र बनाते थे।

उनके कुछ चित्र हैं, जिनमें वे अक्षरों को बार-बार लिखकर विभिन्न आकृतियों का सृजन करते थे। उन्होंने लगभग 25 शैलियों में चित्र बनाए थे। वे अपने छोटे-बड़े चित्र बनते ही कभी यूँ ही बाँट दिया करते थे तो कभी अपनी तात्कालिक आर्थिक ज़रूरत पूरी करने के लिए किसी भी मूल्य पर बेच देते थे। उनके असंख्य परिचितों की बैठकों, खाने-सोने के कमरों में उनके रेखांकन और रंगीन चित्र दीवार पर टंगे मिल जाएंगे। उनकी अनेक छोटी-बड़ी जगहों पर चित्र-प्रदर्शनियाँ भी आयोजित होती रही हैं।

वे अपने किसी भी चित्र को दोबारा दूसरी प्रदर्शनी में नहीं लगाते थे। प्रायः दो प्रदर्शनियों के बीच उनके पहले वाले चित्र बंट जाते थे। उनकी प्रदर्शनियाँ उनके जन्म-ग्राम लाखनी से शुरू हुई थीं। नागपुर में ही लिबर्टी सिनेमा के गलियारे में, सदर इलाके के एक बंगले में, मोर भवन में, विदर्भ साहित्य संघ में कभी एकल तो कभी अन्य चित्रकारों के साथ प्रदर्शनी आयोजित करते थे।

जे. जे. स्कूल में वे मेधावी छात्र माने जाते थे। परीक्षा के दौरान ये चित्रण में इतने रम गये कि समय का ध्यान ही न रहा और अनुत्तीर्ण हो गये। किन्तु वह चित्र पूर्ण होने पर उत्कृष्ट माना गया और उनके शिक्षकों तक ने उनकी प्रशंसा की। 1956 में भाऊ ने जी. डी. आर्ट तथा फाइन आर्ट की परीक्षा उत्तीर्ण की।

1958-59 के आस पास भाऊ बिना रंगों और कूंची के चित्र बनाते थे और वे केनवास खरीदने की स्थिति में नहीं थे। 1950 में उन्होंने मूँगफली के छिलकों में गांधी जी का एक चित्र बनाया था जिसे महाराष्ट्र के राज्यपाल तथा मन्त्रियों ने देखा। भाऊ को प्रशंसा मिली और उनका चित्र भी बिका। तभी से उन्हें प्रसिद्धि मिलने लगी।

1960 से उन्होंने महाराष्ट्र के विभिन्न नगरों में प्रदर्शनियां आयोजित करना आरम्भ कर दिया। वे अनेक साहित्यकारों से भी परिचित थे और 1960 की उनकी नागपुर की प्रदर्शनी में ख्वाजा अहमद अब्बास, गुलाम अली तथा कृश्न चन्दर उपस्थित थे।

भाऊ ने पोर्ट्रेट, लैण्डस्केप, स्टिल लाइफ, न्यूड, सादे तथा रंगीन अनेक चीजों से चित्र बनाये। उनका काम आकृति मूलक भी है और अमूर्त भी। प्रायः भारतीय जीवन के साधारण रूपों को भाऊ ने अपनी कला में स्थान दिया है। उन्होंने कला में कई प्रयोग भी किये हैं और संगीत पर तथा नक्षत्रों पर भी चित्र बनाये हैं। आकार की बजाय वे रंगों को अधिक महत्व देते थे।

अपने चित्रों में वे विविध प्रकार की सामग्री का प्रयोग करते रहे हैं जैसे जल-रंग, तैल-रंग, पेस्टल, रददी कागज, हल्दी-चूना, लकड़ी कचरा, छिलके आदि। उनके चित्रों में पीले तथा लाल रंग का प्राधान्य है। उन्होंने डेढ़ लाख से अधिक रेखांकन, दो हजार जल रंग चित्र तथा ढाई हजार से अधिक तैल चित्रों की रचना की है। वे गाढ़े रंगों का प्रयोग अधिक करते थे और उन्हें लगाने में चाकू का भी प्रयोग करते थे। चिकनी पृष्ठभूमि उन्हें पसन्द नहीं थी। खुरदरे घरातल में वे आधुनिक जीवन से समता का अनुभव करते थे।

1964 में उन्होंने जबलपुर के एक संगीतज्ञ के साथ मिलकर एक प्रयोग किया था। उनके द्वारा गाई गई राग-रागिनियों के अनुसार रंगों-रेखाओं-आकृतियों का सृजन किया था। 1968 में एक और नया प्रयोग किया फुल ब्राइट स्कॉलर अमेरिकन प्राध्यापिका मिस सिल्डेड जेनिंग्स (मिस्सी) के साथ संयुक्त चित्र बनाए, जिसकी प्रदर्शनी नागपुर के सेन्ट्रल म्युज़ियम में लगाई गई थी। 1970, 1981 और 1987 में मुंबई की जहाँगीर आर्ट गैलरी में प्रदर्शनी लगी थी, जिसमें उनके लगभग सारे चित्र बिक गए थे।

यहां यह जानना प्रासंगिक होगा कि ‘मिस्सी’ नाम से भाऊ की दस आत्मकथात्मक कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसमें उनके जीवन की कुछ गांठें खुलती नजर आती हैं। मसलन विवाह से पूर्व अपनी उम्र से बड़ी एक युवती से प्रेम। जिसका नाम शशि बताया गया है। शशि से जो प्रेम है वह कलाकार की चेतना को आकार देता है। वहीं जब प्रेम, विवाह में परिणित नहीं हो पाता तो एक अवसाद, निराशा और तद्जनित कुंठाएं भी पनपती हैं जो भाऊ के रेखांकनों में स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनके अधिकांश रेखांकनों में, जो अमूर्त तो हैं लेकिन उनमें एक स्त्री अवश्य मौजूद है।

उनके चित्र उनकी वैचारिक अवस्थिति को कम उनकी मानसिक स्थिति को अधिक प्रतिबिंबित करते हैं। इसके बाद वे एक बुनकर (कोष्टी) बेसहारा विधवा स्त्री प्रतिभा बाई से जो दो लड़कियों की माँ थी उससे विवाह कर लेते हैं। यह विवाह उस स्त्री के प्रति एक भावुकतापूर्ण सहानुभूति और आदर्शवादिता के कारण किया जाता है। वे उसका पूर्णतः निर्वाह भी करते हैं लेकिन मानसिक बराबरी के स्तर पर उससे तालमेल नहीं बिठा पाते। यह सब उनकी कला को कहीं न कहीं प्रभावित करता रहा है।

वे कला में व्यावसायिकता पसन्द नहीं करते थे और कभी-कभी आर्थिक संकट आ जाने पर केवल पानी पीकर पत्नी और बच्चों सहित कई-कई दिन भी गुजार देते थे। वे जिद के पक्के थे। न तो वे चित्रकला की राजधानियों के पक्षपाती थे और न कला में अति-बौद्धिकता के वे समर्थक थे। कला को जनमानस से जोड़ने के हामी थे। उन्होंने हुसैन की राजनीतिक चाटुकारिता का विरोध भी किया था। भाऊ समर्थ मूलतः चित्रकार थे। यही उनकी आजीविका भी थी। जाहिर है उनकी कला, लोक प्रतिष्ठित और लोक-समादृत है।

24 मार्च 1991 को भाऊ ने देह त्याग दी। नागपुर में बड़ी संख्या में लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे।

(शैलेन्द्र चौहान लेखक-साहित्यकार हैं और जयपुर में रहते हैं।)

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