(‘दलित वायस’ पत्रिका के संपादक वीटी राजशेखर का बुधवार, 20 नवंबर को 92 साल की उम्र में निधन हो गया। उनका पूरा नाम वोथिबेट्टु थिम्माप्पा राजशेखर था और उन्हें प्यार से लोग वीटी बुलाया करते थे। वीटी का जन्म कर्नाटक के उडुपी जिले में 1932 में हुआ था। वह जीवन भर दलितों और वंचितों की आवाज बने रहे। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरुआत डिकन हेराल्ड से की और बाद में उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस ज्वाइन कर लिया। जहां उन्होंने 25 साल तक पत्रकारिता की। और फिर वहां से अलग होकर उन्होंने 1991 में ‘दलित वायस’ नाम की पत्रिका की शुरुआत की। जिसके वह आजीवन संपादक बने रहे।-संपादक)
यह कोई अक्तूबर, 1991 का समय था जब मैं डॉ. मुल्कराज आनंद के पसंदीदा स्थान लोकायत के लॉन में बैठा हुआ था जहां वह अक्सर बैठा करते थे। उस सुबह पेपर को पढ़ते हुए हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक के नाम पत्र के कॉलम ने मुझे आकर्षित किया। मैंने पत्र पढ़ा जो तीन पैरे में था और उसमें मीडिया तथा जातिवाद के बारे में लिखा गया था। पत्र को भेजने वालेे ‘दलित वायस’ के संपादक वीटी राजशेखर थे। यह वह समय था जब कुछ दैनिक अखबारों के पत्र के स्तंभ बेहद सूचनात्मक हुआ करते थे और उनमें बहुत बड़े-बड़े नाम लिखा करते थे। मैंने पता नोट किया और वीटी राजशेखर या फिर अपने मित्रों और पाठकों के बीच उनके लोकप्रिय नाम वीटी या फिर वीटीआर को एक पत्र लिखा। आश्चर्यजनक रूप से उनका उत्तर ‘दलित वायस’ की कुछ कॉपियों और एक नोट के साथ आया। यह एक रिश्ते की शुरुआत थी जिसे हमने वीटी राजशेखर के साथ आखिरी समय तक बनाये रखा।
दिलचस्प बात यह है कि ‘दलित वायस’ ने अपनी यात्रा की शुरुआत 1981 में की और डॉ. मुल्कराज आनंद, लेखक जिन्होंने 1927 में अछूत लिखा था, पहले शख्स थे जिन्होंने उनका सहयोग किया। उन्होंने वीटी को प्रोत्साहित किया और शुरुआत में उनका नाम पत्रिका में पैट्रन के तौर पर जाता था। दुर्भाग्य से 1980 के शुरुआती दशक में पंजाब में घटी घटनाएं जिनका नतीजा आपरेशन ब्लू स्टार था, और उसी के बाद हुई श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या वीटी और एमआरए दोनों के लिए एक मोड़ साबित हुई। मुल्क राज आनंद बगैर किसी किंतु-परंतु के आतंकवाद के खिलाफ थे। जबकि इसके बिल्कुल उलट वीटी जनरैल सिंह भिंडरावाले से बेहद प्रभावित थे। वीटी राजशेखर ने आपरेशन ब्लू स्टार की निंदा की और भिंडरावाले को एक महान नेता माना और शायद दलितों के एक उद्धारक के तौर पर देखा। राजशेखर ने मुल्कराज के साथ अपने रिश्तों के बारे में मुझे बताया था।
उन्होंने कहा कि “मुझे इंडियन एक्सप्रेस से बर्खास्त किया गया था और यह पूरे देश में एक बड़ी खबर बनी थी और उन्होंने उसे कहीं पढ़ा था। उन्होंने कहा कि मैंने आपके बारे में पढ़ा। मैं आपसे मिलने आ रहा हूं। उसके बाद वो आए और मैंने उन्हें अपनी सभी किताबें दिखायीं। उन्होंने उनकी सराहना की। और फिर एक सलाह भी दी। आपको एक पेपर शुरू करना चाहिए। मैं उसे नाम दूंगा। उनके द्वारा ‘दलित वायस’ नाम सुझाया गया। उन्होंने शुरुआती कुछ पैसे भी देने का प्रस्ताव दिया। वह कुछ लेख भी नियमित लिखने के लिए तैयार थे। इस तरह से ‘दलित वायस’ शुरु हुआ”। राजशेखर ने बताया कि उनका पंजाब पर मतभेद बौद्धिक नहीं था। बल्कि मुल्कराज का इंदिरा गांधी के लिए अंध समर्थन उसके आड़े आता था।
वीटी राजशेखर बेहद साहसी थे और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चलने वाले आंदोलनों की उन्हें व्यापक समझ थी। यह वही शख्स थे जिन्होंने अफ्रीकी अमेरिकियों के मुद्दों और अमेरिका में ब्लैक आंदोलन के साथ दलित जुड़ाव की शुरुआत की। यह सब कुछ उस समय हुआ जब दलित बहुजन आंदोलन अपने राजनीतिक युद्ध के मैदानों तक ही सीमित था। लेकिन राजशेखर ने निश्चित तौर पर हमारी सोच को व्यापक बनाया। रुनाको रशीदी जैसे विचारक दोनों आंदोलनों के साथ नजदीकी रिश्ते के समर्थन के साथ लगातार ‘दलित वायस’ में लिखते रहे।
‘दलित वायस’ उन सभी के लिए एक प्लेटफार्म बन गया जो वैकल्पिक मीडिया की तलाश में थे। उन्होंने हमें खुद में विश्वास करने का भरोसा दिया। वही कारण थे जिसके चलते मैं पूरी दृढ़ता से कह सकता हूं कि हम जैसी युवा आवाजें वास्तव में वैकल्पिक वायस की तरफ आकर्षित हुईं और उन सब चीजों से दूर रहने का फैसला लिया जिसे मुख्यधारा के मीडिया के तौर पर जाना जाता है। उनकी शब्दावली में शब्दों और मुहावरों की कोई कमी नहीं थी। ‘दलित वायस’ का सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाला स्तंभ पाठकों का स्तंभ था। जो लेखकों का नाम और उनका पता दोनों मुहैया कराता था। यह लोगों को आपस में एक दूसरे से संपर्क करने का मौका देता था।
उस समय जब कोई इंटरनेट और ईमेल आम इस्तेमाल का हिस्सा नहीं हुआ करता था, ‘दलित वायस’ का पत्र स्तंभ हम सब को एक दूसरे से जोड़ता था। एक बार आपका पत्र पत्रिका में प्रकाशित हो गया। तो आप इस बात के लिए निश्चिंत हो जाइये कि ढेर सारे लोग आपको फोन करेंगे या फिर आप से संपर्क करेंगे। यह एक तरह का परिवार बन गया था जहां लोग एक दूसरे का आदर करेंगे और अपने विचार भी एक दूसरे से साझा करेंगे। मैंने कभी नहीं देखा जब एक पत्रिका या फिर जरनल अपने पाठकों के नेटवर्क को इतनी ताकत से जोड़ता था।
मजेदार बात यह है कि वीटी इस बात को सुनिश्चित करते थे कि वे सभी जो संपादक के नाम पत्र लिखते थे वो लेख या फिर प्रकाशित पत्र के बारे में एक निजी नोट के साथ ‘दलित वायस’ की एक कॉपी हासिल करें। उस समय मीडिया जब कभी-कभार ही अंबेडकरवादी आवाजों या फिर जातिवाद विरोधी ताकतों का स्वागत करता था उस समय ‘दलित वायस’ में प्रकाशित होना हम लोगों को बहुत ज्यादा आत्मविश्वास देता था। गुणवत्ता उस समय बहुत मायने नहीं रखती थी हम लोग इस बात से ज्यादा उत्साहित होते थे कि हम एक परिवार के हिस्से बन गए हैं जिसे वीटी विकसित कर रहे हैं। उनका विजन बहुत व्यापक था। जिसमें सभी उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएं शामिल थीं जिसमें एससी-एसटी-ओबीसी-अल्पसंख्यक भी थे। मुझे देश के विभिन्न हिस्सों से मेल और फोन आया करते थे।
इसलिए पाठकों को ब्राह्मण-बनिया एलीट क्लास द्वारा निर्मित मौजूदा संकट की राजनीतिक समझ देने के अलावा राजशेखर इस बात को सुनिश्चित करते थे कि पाठक एक दूसरे से संपर्क में भी रहें। उनका यह गुण बेहद अनोखा था। कोई भी पत्र वह जो हमको लिखते थे या फिर फोन करते थे उसके साथ कुछ नये संपर्क भी होते थे और मुझसे उन लोगों से मिलने के लिए कहते थे। इस तरह से उन्होंने अंबेडकरवादी, पेरियारवादी बहुजन बौद्धिकों का दुनिया के स्तर पर एक बेहद शक्तिशाली नेटवर्क निर्मित कर दिया था। ये ‘दलित वायस’ के पेज ही थे जिनके जरिये मैंने वीटी हीरेकर, विशप अजारियाह, हेनरी त्यागराज, डॉ. वेलु अन्नामलाई, रुनाको रशीदी और ढेर दूसरी शक्तिशाली आवाजों के बारे में जाना।
यह भी एक सच्चाई है कि बहुत सारे विचार थे जिनको पचा पाना बहुत मुश्किल था। लेकिन वह उनको लेकर बिल्कुल स्पष्ट थे और उनको लेकर किसी भी तरह की माफी के लिए तैयार नहीं थे। उनको लगता था कि पंजाब में सिख गलत हैं और उन्होंने इसके बारे में लिखा भी। दुनिया के अंडेबकरवादियों के अलावा उनके पास मुस्लिम पाठकों की भी एक अच्छी खासी तादाद थी। बहुत सारे लोग सोचते हैं कि वह बीएसपी और बामसेफ के लिए प्लेटफार्म थे लेकिन सच्चाई यह थी कि ‘दलित वायस’ खुद में एक प्लेटफार्म था जहां अलग-अलग राजनीतिक संघर्षों में शामिल सभी तरह की आवाजें शामिल थीं। वह बेहद तीक्ष्ण बुद्धि के थे और मुद्दों को लेकर बिल्कुल एक नया एंगल ही विकसित कर लेते थे। वह खुले तौर पर नक्सलवादियों और दूसरों के हिंसक तरीके का विरोध करते थे। और उनके प्रति आलोचक भी थे और दलितों को उनसे सजग रहने की चेतावनी देते थे।
उनकी वैचारिक कठोरता के साथ समस्या ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है’ दर्शन था। वह चाहते थे कि न्याय की सभी ताकतें भारत में ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ें। बहुत सारे अंबेडकरवादी उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को पसंद नहीं करते थे और अपनी राजनीतिक स्थिति के चलते उनके पास ढेर सारी समस्याएं थीं। वह लीबिया से जब लोटे तो एयरपोर्ट पर उनके पासपोर्ट को जब्त कर लिया गया। और 1986 में उन्हें टाडा के तहत गिरफ्तार किया गया था। बाद में उन्हें रिहा कर दिया गया।
एक बार बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे बताया कि लीबिया से लौटने के बाद उनका पासपोर्ट जब्त किया गया था जहां उनकी लीबियाई नेता कर्नल गद्दाफी के साथ मुलाकात थी। वह वहां विश्वबैंक के एक सम्मेलन में हिस्सा लेने गए थे जहां उन्हें बोलने का मौका मिला। उन्होंने मुझे बताया कि मुझे बोलने के लिए तीन मिनट दिया गया। मैंने अपना विचार तैयार किया और बोला। उसको टीवी पर प्रसारित किया गया। जिसको मैं नहीं देख पाया। उसकी लोगों ने खड़े होकर तालियों के साथ तारीफ की। उसके बाद मैं अपने कमरे में लौट आया। और अपना लंच किया और उसके बाद आराम कर रहा था। तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी।
मैंने दरवाजा खोला एक शख्स दरवाजे पर जो भारतीय दिखता था, ने कहा कि वह पीटीआई त्रिपोली का चीफ है। उसने कहा कि मैंने आपका भाषण टीवी पर देखा। लाइव टीवी भाषण। मैंने कहा आपका शुक्रिया। उसके बाद उसने कहा कि आपने भारत की आलोचना की है। क्या आप बाहर भारत की आलोचना कर सकते हैं? मैंने पूछा किसने कहा कि हम देश के बाहर भारत की आलोचना नहीं कर सकते हैं? उसके बाद उन्होंने कहा कि यह एक बौद्धिक बहस है।
यहां तक कि हम ईश्वर की भी आलोचना कर सकते हैं। हम ईश्वर की भी आलोचना करते हैं। आगे जाने के लिए किसी भी तरह की आलोचना बहुत महत्वपूर्ण होती है। मैंने उनको बताया कि मैं चीफ रिपोर्टर हूं। उसके बाद उनका इंडियन एक्सप्रेस में रुकना कठिन हो गया। और आखिर में उनको वहां से बर्खास्त कर दिया गया। उन्होंने कोर्ट में अपना मुकदमा लड़ा और वहां से जीते भी।
वीटी राजशेखर और ‘दलित वायस’ का सबसे प्रभावित करने वाला हिस्सा यह था कि यह बेहद प्रोफेशनल तरीके से संपादित होती थी और शुरुआत से लेकर अंत तक शायद ही कोई ऐसा मौका आया हो जब यह प्रकाशित न हुई हो। हम सभी यह सोचते थे कि बंगलुरू में इसकी कोई बड़ी आफिस होगी जिसमें ढेर सारे लोग काम करते होंगे लेकिन बाद में पाया कि ‘दलित वायस’ शुद्ध रूप से वन मैन शो था। वह टाइपिस्ट से लेकर सारे काम खुद कर लेते थे। एडिटिंग से लेकर सभी टेक्निकल काम उनके द्वारा किया जाता था। कल्पना करिए तीस सालों तक एक शख्स एक जरनल निकाल रहा है। यह बहुत ज्यादा फंडेड मैगजीन नहीं थी लेकिन इसे पूरी दुनिया में जाना जाता था।
ऐसा नहीं था कि लोग उनकी उनके द्वारा लिखी गयी भाषा या फिर उनके ‘षड्यंत्रपूर्ण सिद्धांतों’ की आलोचना नहीं करते थे जिसका वह अपनी पत्रिका में खुलासा करने का दावा करते थे। उन पर एक लक्जरी जीवन जीने और ढेर सारी चीजों के लिए आरोप लगता था। सच्चाई यह थी कि कोई उनके सिद्धांतों से भले ही सहमत न हो लेकिन वह अपनी प्रतिबद्धताओं और दलितों-बहुजनों के सशक्तिकरण के सरोकारों के प्रति बहुत ईमानदार थे। यह अकेली पत्रिका थी जिसमें देश के सभी हिस्सों से लेख छपते थे। इसके साथ ही अफ्रीका के प्रतिरोध के भी इसमें लेख होते थे। यह वह समय था जब पत्रिकाएँ तो होती थीं लेकिन अधिकांश सामग्री क्षेत्रीय इलाकों तक ही सीमित होती थीं और अधिकतर तो बाबा साहेब अम्बेडकर तक ही सीमित होती थीं।
यह ‘दलित वायस’ था जिसके जरिये हम पेरियार हैदराबाद में भीम सेना की स्थापना करने वाले महान नेता श्याम सुंदर के महत्वपूर्ण कामों से परिचित होते थे। इसके साथ ही हम बहुत सारे क्षेत्रीय आइकनों से भी परिचित हुए।
वीटी मीडिया की ताकत को जानते थे और वह एक मीडिया हाउस शुरू करना चाहते थे जो देश में बहुजन ताकतों के लिए एक प्लेटफार्म के तौर पर काम कर सके। वह स्वर्गीय काशीराम के बहुत नजदीक थे। बाद में उन्होंने दिल्ली से एक जर्नल की शुरुआत करने की कोशिश की लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा राजनेता मुद्दे को बहुत गंभीरता से नहीं लेंगे। उनके मुताबिक केवल लालू यादव इस मामले में गंभीर थे हालांकि चीजें जमीन पर नहीं उतर सकीं।
1990 में वीपी सिंह के शासन के दौरान वह दिल्ली शिफ्ट हो गए लेकिन भीषण मंडल विरोधी प्रदर्शन के बाद वह बंग्लौर लौट गए। उस समय की सरकार द्वारा गठित की गयी नेशनल कमेटी ऑफ बाबा साहेब अंबेडकर सेंटेनरी सेलिब्रेशन के सदस्य भी थे। उनके नजदीकी मित्र और ‘दलित वायस’ के सदस्य दलित एझिलमलाई अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बने। वीटी उस समय दिल्ली आये थे लेकिन बहुत दिनों तक नहीं रह सके। बाद में उन्होंने मुझे बताया कि वह अपने मित्र से खुश नहीं थे जिस तरह से वो बीजेपी से जुड़े और फिर भ्रष्ट हो गए।
धीरे-धीरे बहुजन नेताओं की नई पीढ़ी विश्वविद्यालयों और कालेजों में आकार लेने लगी। ढेर सारे दलित संगठन उभर कर सामने आ गए। सिविल सोसाइटी और एनजीओ भी बने। दलित और ओबीसी समुदायों के पास ढेर सारे राजनीतिक दल हो गए। वीटीआर ने कभी भी ‘दलित वायस’ को किसी दलित बहुजन की आलोचना करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया। जब तक कि वह सामुदायिक हितों के खिलाफ काम करता हुआ नहीं दिखा। वह उन सभी को एक स्थान पर लाने की कोशिश करते थे लेकिन राजनीति में वह ऐसा नहीं कर सकते हैं। राजनीतिक नेता बगैर किसी किंतु-परंतु के निष्ठा चाहते हैं।
राजनीतिक नेता स्वतंत्र मीडिया को समर्थन नहीं दे सकते हैं क्योंकि वो प्रचार के आदी हो जाते हैं। और यह चाहते हैं कि चमचे उनके इर्द-गिर्द घूमते रहें। उनके दौरों, उद्घाटनों और भाषणों की खबरें प्रकाशित करते रहें। इस तरह से किसी भी स्वतंत्र बुद्धिजीवी को वो नहीं चाहते हैं।
वीटी को सभी प्यार करते थे लेकिन राजनेता जानते थे कि राजनीतिक रूप से वह बोझ साबित होंगे और वह जिस विचार को प्रचारित कर रहे हैं वह उनकी राजनीति के लिए नुकसानदायक साबित होगी जबकि उन्हें वहां केवल भक्त की जरूरत है न कि राजनीतिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी की। दूसरा उनमें से ज्यादा अपने लिए केवल प्रचार का अखबार चाहते थे और वीटी इतने स्वतंत्र थे कि वह किसी राजनीतिक नेतृत्व के सामने झुक ही नहीं सकते थे। वह एक रीढ़ वाले इंसान थे और उनकी प्रतिबद्धता बहुत गहरी थी इसलिए कोई समझौता नहीं करते थे।
(विद्या भूषण रावत का यह लेख काउंटर करेंट से साभार लेकर इसका हिंदी में अनुवाद किया गया है।)
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