अरविन्द केजरीवाल: सॉफ्ट हिंदुत्व की चाशनी में जनसेवा और सुशासन का ‘भ्रमजाल‘

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हालिया संपन्न दिल्ली विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की हार हुई। पार्टी के दो बड़े चेहरे अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया, जो मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री रह चुके थे- चुनाव हार गए। यही नहीं, अरविन्द केजरीवाल के बेहद नजदीक माने जाने वाले पार्टी के ज्यादातर विधायक भी अपनी सीट गंवा बैठे। पार्टी के जनाधार में दस फीसद से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई।

इस तरह दिल्ली में सत्ताईस साल से सत्ता से बाहर रही भाजपा ने अड़तालीस विधानसभा सीटें जीतकर मजबूत वापसी की। आम आदमी पार्टी को केवल बाईस सीटों पर संतोष करना पड़ा। यह 2013 में पार्टी की स्थापना के साल हुए विधानसभा चुनाव में मिली 28 सीटों में भी छह कम है।

इन चुनावी नतीजों पर आम धारणा यह है कि दिल्ली में हुए कथित शराब घोटाले के उजागर होने, मुख्यमंत्री आवास शीशमहल में विलासी सुविधाओं पर जनता के करोड़ों रुपये खर्च करने के खिलाफ भाजपा ने दिल्ली में जिस तरह आम आदमी पार्टी की जमीनी घेराबंदी की- उसने केजरीवाल को सत्ता से बाहर कर दिया। लेकिन, बात सिर्फ इतनी नहीं है।

इस चुनावी हार के पीछे संघ परिवार द्वारा दिल्ली में की गई एक लाख से ज्यादा छोटी बैठकों और बूथ स्तर तक भाजपा कैडरों की कड़ी मेहनत जिम्मेदार है। सबसे बड़ी बात है केजरीवाल की राजनीति के खिलाफ भाजपा के बनाये गए ‘नैरेटिव’ को दिल्ली के इलीट क्लास की सहमति, जिसने आम आदमी पार्टी के पतन की पटकथा को जमीन पर उतार दिया।

असल में भाजपा ने दिल्ली विधानसभा चुनाव जीतने की स्क्रिप्ट आज से तीन साल पहले लिखनी शुरू की थी, जिसके मूल में अरविन्द केजरीवाल की सरकार के भ्रष्टाचार पर एक आक्रामक रणनीति के साथ, आम आदमी पार्टी की ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की राजनीति को ‘बेकार और राष्ट्र हित के खिलाफ’ घोषित और प्रचारित करते हुए इसके मतदाताओं को भाजपा के साथ वापस जोड़ना था।

अपनी इस रणनीति में भाजपा दिल्ली के मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग (इलीट क्लास) के मतदाताओं को जोड़ने में सफल हुई, लेकिन महिला मतदाता और दलित समुदाय का वोट केजरीवाल के साथ लगभग बना रहा। इस समुदाय पर भाजपा अपनी कोई मजबूत कोई छाप क्यों नहीं छोड़ पाई यह एक अलग विमर्श का विषय है। केजरीवाल को जो 44 फीसद वोट मिला है उसमें इन दोनों समुदाय का बड़ा योगदान है।

आम आदमी पार्टी की इस हार के कारणों को गहराई से समझने के लिए हमें संघ परिवार प्रायोजित अन्ना हजारे के ‘जन लोकपाल’ आन्दोलन की तह में एक बार फिर से जाना होगा जो केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार के दौरान दिल्ली में हुआ था।

इस पूरे आन्दोलन का एक प्रमुख चेहरा अरविन्द केजरीवाल भी थे। आन्दोलन की इस पूरी पटकथा में एक सरकार को ‘भ्रष्ट और घोटालेबाजों की संरक्षक’ घोषित करते हुए संघ के उग्र हिंदुत्व के दर्शन को सियासी पटल पर स्थापित करते हुए, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की लम्बी कार्य योजना लिखी गई थी।

इस आन्दोलन का एक बड़ा उद्देश्य नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय राजनीति में ‘देश के उद्धारक’ के बतौर ‘सेट’ करना भी था। पटकथा में इतनी बारीकी से हिंदुत्व के हितों का समायोजन किया गया था कि कई ‘परिपक्व’ लोग भी इसके कलेवर को देखकर धोखा खा गए। केजरीवाल की समूची सियासत का वैचारिक आधार इसी आन्दोलन के प्रायोजक का मूल उद्देश्य ‘हिंदुत्व’ था।

इस आन्दोलन के बाद जब उन्होंने राजनीति में आने का फैसला किया तब उनकी मज़बूरी थी कि वह भाजपा के रहते खुले तौर पर हिंदुत्व की ‘राजनीतिक लाइन’ पर सियासी पारी नहीं खेल सकते थे। क्योंकि हिंदुत्व राजनीति की एकमात्र वैधता धारक पार्टी भाजपा है। इसलिए उन्होंने हिंदुत्व के एक संशोधित वर्जन ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ का सहारा लिया और उसे जनसेवा और सुशासन का ‘भ्रामक’ नाम दिया।

इस तरह जनसेवा और सुशासन का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ जिसके मूल सियासी उद्देश्य में हिंदुत्व का एक ‘सॉफ्ट वर्जन’ काम कर रहा था।

निःसंदेह दिल्ली में उनके इस राजनीतिक प्रयोग को, आरम्भ में संघ परिवार के जमीनी कार्यकर्ताओं का खुला समर्थन हासिल हुआ और बहुत ‘जादुई’ तरीके से बेहद कम समय में संघ परिवार के इन्हीं कार्यकर्ताओं के सहयोग से कांग्रेस के ‘मॉस वोटर’ पर आम आदमी पार्टी ने कब्ज़ा कर लिया। दिल्ली का ‘फ्लोटिंग’ वोट सबसे पहले आम आदमी पार्टी के साथ गया और इस प्रयोग ने कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार को चुनाव में पराजित कर दिया।

जिस पार्टी के पास कोई संगठन नहीं हो उसे पहले ही चुनाव में 29 फीसद वोट और 28 सीटें सिर्फ इसलिए संभव हो सकीं क्योंकि संघ परिवार ने अरविन्द केजरीवाल को सांगठनिक सहयोग दिया था। इस सहयोग के मूल में वह ‘उद्देश्य’ था जिसे भाजपा अपने दम पर दिल्ली और केंद्र की सत्ता में पहुंचने में अक्षम पा रही थी।

हालांकि, इतने सहयोग के बाद भी भाजपा का वोट शेयर बहुत चमत्कारिक तौर पर तीस फीसद के आस-पास हमेशा टिका रहा। मतलब यह कि भाजपा के वोटर केजरीवाल के साथ बड़ी संख्या में शिफ्ट नहीं हुए। अरविन्द केजरीवाल की राजनीति से भाजपा को मिलने वाले चार से छह फीसद के फ्लोटिंग वोट में ही गिरावट हुई, लेकिन कांग्रेस को बहुत ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा।

दिल्ली की सत्ता में आने के बाद, अरविन्द केजरीवाल ने खुले तौर पर यह माना कि वह लेफ्ट या राइट कुछ भी नहीं हैं, बल्कि वह जनसेवा और सुशासन की राजनीति कर रहे हैं। उनके जनसेवा और सुशासन के इस ‘भ्रमजाल’ में अन्ना आन्दोलन के दौर के उनके सहयोगियों को ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की राजनीति दिखाई दी। उन्होंने अरविन्द केजरीवाल के समक्ष अपना खुला विरोध भी दर्ज कराया।

इस विरोध के खिलाफ़ केजरीवाल ने कई सहयोगियों को बेहद निर्मम तरीके से ‘बेइज्जत’ करके पार्टी से ही निकाल दिया। इस तरह पार्टी पर भले ही अरविन्द केजरीवाल और उनके कुछ विश्वस्त लोगों का कब्ज़ा हो गया, लेकिन इससे साबित हुआ कि उन्हें बहुसांस्कृतिक समावेशी विचार, आदर्श और मूल्यों साथ जीने वाले लोग कतई पसंद नहीं हैं।

यह आम आदमी पार्टी का हिंदुत्व के प्रति पटल पर दिखने वाला बड़ा स्पष्ट वैचारिक झुकाव था- जिसमें केजरीवाल का ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ केन्द्रित ‘जनसेवा और सुशासन’ का ‘भ्रमजाल’ खुल चुका था।

हालांकि, मुख्यमंत्री बनने के बाद, दिल्ली वासियों के लिए उनकी सरकार द्वारा कई ऐसी योजनाएं शुरू की गईं जिससे लोगों को सीधे फायदा हुआ। मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी, बेहतर चिकित्सा सेवा (मोहल्ला क्लीनिक और दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का सुधार), महिलाओं के लिए मुफ़्त बस यात्रा सुविधा और दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में सुधार समेत कई काम इस दौरान किए गए।

बेशक, अरविन्द केजरीवाल की दिल्ली की सत्ता में कम से कम दो बार की वापसी में इन योजनाओं का बड़ा योगदान रहा लेकिन, राजनैतिक तौर पर अरविन्द कजरीवाल ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ की सियासी लाइन पर ही चलते रहे और इस ‘भ्रमजाल’ को हमेशा ‘जनसेवा और सुशासन’ की राजनीति बताते रहे। उनके पास पार्टी के लिए कोई ऐसी वैचारिक लाइन ही नहीं थी जिससे मजबूत कार्यकर्त्ता और समर्पित समर्थक तैयार किए जा सकें।

लेकिन, देश में लगातार मजबूत हो रहे उग्र हिंदुत्व और हिन्दू बहुसंख्यकवाद के उभार के इस दौर में यह भ्रमजाल लम्बा नहीं टिक पाया। केजरीवाल को कई बार खुलकर अपनी सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति का प्रदर्शन करना पड़ा जिसमें हनुमान चालीसा का पाठ, राम मंदिर निर्माण का समर्थन, शाहीन बाग के प्रदर्शन पर हिंदुत्व समूहों के स्टैंड पर सहमति और नोटों पर गांधी की जगह लक्ष्मी की फोटो लगाये जाने जैसी बातें शामिल थीं। यह इसलिए हुआ ताकि हिंदुत्व से प्रभावित बहुसंख्यकवादी हिन्दू समाज को ‘संतुष्ट’ रखा जा सके।

दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों में आम आदमी पार्टी की चुप्पी ने उसकी सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीतिक लाइन को ‘नंगा’ कर दिया और सियासी हलकों में इसे भाजपा का ‘छोटा रिचार्ज’ माना जाने लगा। इस तरह यह साबित हो गया कि आम आदमी पार्टी ‘जनसेवा और सुशासन’ के नाम पर संघ परिवार की ‘हिंदुत्व’ राजनीति का एक ‘सॉफ्ट वर्जन’ भर है, जिसका वैचारिक दर्शन भाजपा से एकदम अलग नहीं है।

गौरतलब है कि बहुदलीय लोकतंत्र में कोई भी राजनीति तभी सर्वाइव कर सकती है जब उसके पास एक स्पष्ट विचारधारा हो और उस विचारधारा पर केन्द्रित एक जमीनी संगठन मौजूद हो। आम आदमी पार्टी के पास ऐसा कुछ नहीं था। संगठन के नाम पर केवल पेड वालंटियर थे और समर्थक के नाम पर योजनाओं के लाभार्थी। विचारहीन सियासी दल की यही सीमा थी। अब संघ की ‘हिंदुत्व’ केन्द्रित राजनीति पर दो दल सामानांतर नहीं चल सकते थे।

जैसे-जैसे केजरीवाल का ‘जन सेवा और सुशासन’ का भ्रमजाल कमजोर हुआ- आम आदमी पार्टी के ‘जनाधार’ में कमजोरी आती गई। एक ही विचारधारा पर दो दल ‘सर्वाइव’ ही नहीं कर सकते थे। जो संशोधनवादी दल था उसके वोटर अपने मूल दल में वापस चले गए। दरअसल उग्र हिंदुत्व की राजनीति ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को अपने में समाहित कर लिया था क्योंकि दिल्ली की राजनीति में उसकी कोई ‘प्रासंगिकता’ नहीं रह गई थी।

यही नहीं, अरविन्द केजरीवाल के समर्थक वोटर को भाजपा से कोई वैचारिक शिकायत नहीं थी। दोनों की राजनीतिक लाइन एक थी जो सामान उद्देश्यों की पोषक थी। जब केजरीवाल की इसी जनता को इतनी ही सुविधाओं के साथ ‘उग्र या शुद्ध हिंदुत्व’ परोसा गया तो उसने अपनी मूल जगह जाना पसंद किया।

वह उसे नकारने का कोई ‘वैचारिक आधार’ नहीं रखती थी क्योंकि केजरीवाल ने उसे कभी इस बारे में कुछ बताया ही नहीं था। जब भाजपा ने यह साफ़ कर दिया कि वह आम आदमी पार्टी द्वारा चलाई जा रही किसी भी योजना को बंद नहीं करेगी, तब केजरीवाल का दिल्ली की जनता को इक्कीस सौ रुपये मासिक नकदी सीधे खाते में डालने की घोषणा भी चुनावी जीत नहीं दिला पाई।

दरअसल लोकलुभावन योजनाएं विचारधारा का विकल्प नहीं बन सकतीं। यह आप की विचारधारा का संकट था कि दिल्ली के लोगों ने इतनी सारी रियायती घोषणाओं के बाद भी नर्म हिंदुत्व की जगह हार्डकोर हिंदुत्व का साथ करना पसंद किया, क्योंकि हार्डकोर हिंदुत्व भी उसे ऐसी रियायतें देने के लिए तैयार खड़ा था।

अरविन्द केजरीवाल की हार का एक सबक यह भी है कि एक ही वैचारिक दर्शन पर कुछ किन्तु-परन्तु के साथ लम्बा सियासी जीवन नहीं पाया जा सकता। किसी भी दल को यदि राजनैतिक रूप से ‘सरवाइव’ करना है तो वैचारिक रूप से उसे न केवल ‘स्पष्ट और अद्वितीय’ होना पड़ेगा बल्कि राजनीति के मैदान में स्पष्ट तौर पर ‘अलग’ दिखना भी पड़ेगा।

जहां तक महिलाओं और दलितों द्वारा दिल्ली में आम आदमी पार्टी को वोट करने की बात है- इसके मूल में भाजपा की राजनीति के खिलाफ किसी मजबूत ताकत का अभाव दिखने के कारण दलितों का एक हिस्सा आम आदमी पार्टी में ही बना रहा। अगर कांग्रेस दिल्ली चुनाव में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवाती तो अरविन्द केजरीवाल को वोट शेयर में और ज्यादा नुकसान होता।

महिलाओं के वोट पाने की केजरीवाल की रणनीति को इसलिए सफल माना जा सकता है क्योंकि केजरीवाल सरकार द्वारा इस समुदाय के लिए कई रियायतों जैसे मुफ़्त परिवहन व्यवस्था की घोषणा के साथ इक्कीस सौ रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा की थी। महिलाओं और दलितों ने केजरीवाल के खिलाफ कोई ‘विकल्प’ नहीं देखा जिसका फायदा आम आदमी पार्टी को हुआ। यह केजरीवाल की पार्टी का वोट नहीं कहा जा सकता।

हालांकि महिलाओं का यह समर्थन केजरीवाल के सत्ता में बाहर होने से ख़त्म हो जायेगा क्योंकि योजनाओं के ये लाभार्थी हमेशा ‘पॉवर’ के साथ खड़े होते हैं। अगर महिलाओं की रियायती योजनाएं नई भाजपा सरकार जारी रखेगी तो अगले चुनाव में इन महिलाओं का वोट भाजपा के लिए होगा।

दरअसल केजरीवाल के भ्रम जाल को दिल्ली के अमीर तबके ने तोड़ा। दिल्ली का दस फीसद अमीर तबका भाजपा के साथ शिफ्ट हुआ तब भाजपा अपने कैडर वोट के सहयोग से केजरीवाल की ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ पॉलिटिक्स को ख़त्म करने में कामयाब हो गई। यह फ्लोटिंग वोट की शिफ्टिंग नहीं थी बल्कि संघ के समर्थक इलीट वोटर की की उग्र हिंदुत्व में वापसी थी, जिसे हाल ही में इनकम टैक्स में बड़ी छूट का ‘लॉलीपॉप’ केन्द्रीय बजट में दिया गया था।

एक बात और है कि यहां भाजपा का केजरीवाल के जनसेवा और सुशासन के ‘भ्रमजाल’ को इसलिए भी बेनकाब करना जरूरी था क्योंकि केजरीवाल की महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ गई थीं। आम आदमी पार्टी का प्रसार भी हो रहा था और भाजपा हिंदुत्व के भीतर फिलहाल नरेंद्र मोदी का ‘विकल्प’ जैसी कोई बहस नहीं चाहती थी।

इसलिए संघ परिवार ने आम आदमी पार्टी के वोटर को अपनी मूल पार्टी के साथ खड़ा होने के लिए ‘निर्देशित’ कर दिया और केजरीवाल नुकसान में आ गए। दस फीसद वोट के नुकसान के पीछे यही कारक जिम्मेदार था।

यही नहीं, नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व में बनाये गए इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनना भी अरविन्द केजरीवाल के ‘इलीट’ समर्थकों को रास नहीं आया। इसे एक तरह से उस समझौते के उल्लंघन के बतौर देखा गया, जिसके मूल में दिल्ली में केजरीवाल और केंद्र में नरेंद्र मोदी के बतौर एक सीमा रेखा की तरह खींचा गया था। इंडिया गठबंधन में शामिल होकर केजरीवाल ने इस समझौते को तोड़ दिया था।

बेशक, भाजपा से टकराव का संकट केजरीवाल के सत्ता में आने के बाद ही शुरू हो गया था, लेकिन इसने गंभीर रूप तब अख्तियार किया जब केजरीवाल में बड़ी सियासी महत्वाकांक्षाएं उभरने लगीं। इस महत्वाकांक्षा के खिलाफ दिल्ली का कथित शराब घोटाला भाजपा के लिए एक अवसर जैसा आया। भाजपा ने इसे पूरी तरह अपने हित में इस्तेमाल किया और केजरीवाल की राजनैतिक महत्वाकांक्षा को निर्णायक चोट देनी शुरू की।

कुल मिलाकर, अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी का ‘राजनैतिक’ भविष्य अब कमजोर होने लगा है क्योंकि इनके इलीट समर्थक वाले मतदाता ने जनसेवा और सुशासन के भ्रम जाल को रिजेक्ट करके उग्र हिंदुत्व का दामन थाम लिया है। असल में केजरीवाल की अपनी कोई राजनीति नहीं थी और इन्होंने संघ परिवार की बनाई जमीन पर ही खुद को खड़ा किया और संघ के निर्देशों के मुताबिक आगे बढे़ थे।

अब संघ को अरविन्द केजरीवाल की जरूरत कम से कम उन जगहों पर नहीं है जहां भाजपा मजबूत है। गैर हिंदी भाषी राज्यों, या फिर उन राज्यों में जहां कांग्रेस उपस्थित है लेकिन भाजपा कमजोर है- आम आदमी पार्टी सॉफ्ट हिंदुत्व के सहारे संघ परिवार के लिए योगदान करती रहेगी। इसमें ही भाजपा का भी फायदा है और केजरीवाल का भी।

लेकिन सवाल यह है कि क्या संघ परिवार अब केजरीवाल को कोई रियायत देगा या फिर इनके जैसे किसी नए प्लेयर को तैयार करने की जमीन तैयार करेगा- यह आगामी छह महीनों में दिखने लगेगा। क्योंकि संघ पक्ष और विपक्ष दोनों ही सियासी पिच पर अपने मोहरे खड़ा करने की कला में माहिर है।

(हरे राम मिश्र स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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