दिल्ली में AAP की राजनीतिक नहीं अरविंद केजरीवाल की व्यक्तिगत और नैतिक हार है

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नई दिल्ली। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार और भाजपा की भारी जीत हुई है। 70 सदस्यीय विधनासभा के लिए हुए चुनाव में भाजपा को 48 सीट, आप को 22 सीट और कांग्रेस को पिछली बार की तरह इस बार भी जीरो पर संतोष करना पड़ा है। भाजपा ने मतगणना शुरू होते ही आप पर जो बढ़त बनाया वह अंत तक बना रहा।

दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम कई मामलों में अलग है तो कुछ मामले में यह बहुत सीधा और सपाट है। सपाट इस मामले में कि दिल्ली विधानसभा भले ही आम आदमी पार्टी जीतती रही लेकिन राजधानी की सभी 7 लोकसभा सीटों पर भाजपा 2014, 2019 और 2024 में जीत चुकी है। 2024 में कांग्रेस-आप गठबंधन भाजपा से एक भी सीट नहीं छीन सकी। इस तरह दिल्ली का मतदाता लोकसभा में भाजपा और विधानसभा में आप को जिताती रही।

यह भी कहा जा सकता है कि दिल्ली जैसे उच्च और मध्यम आय वर्ग के लोग और हिंदी भाषी राज्यों के प्रवासी सवर्ण जब तक आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल को संघ-भाजपा के एजेंडे और विचार के करीब पाए, तब तक जिताते रहे। जैसे भी केजरीवाल और उनकी पार्टी भाजपा सरकार के विरोध में मुखर हुए, उनको उनकी जगह दिखा दी।

अरविंद केजरीवाल की सरकार ने पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य और कई मुद्दों पर जनता को काफी राहत पहुंचाने वाला काम किया है। लेकिन जैसे ही पीएम मोदी ने भाजपा की जीत होने पर राजधानी में केजरीवाल सरकार की योजनाओं को जारी रखने की घोषणा की, तो पासा पलट गया।

फिर भी दिल्ली का चुनाव परिणाम कई मायनों में काफी अलग है। यह महज आप की हार और भाजपा की जीत नहीं है। यह आम आदमी पार्टी की हार के साथ ही पार्टी के वरिष्ठ नेता यानि अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया की व्यक्तिगत और नैतिक हार भी है।

व्यक्तिगत हार इसलिए क्योंकि केजरीवाल समेत आप के अधिकांश बड़े नेता चुनाव हार गए हैं। विधानसभा चुनाव -2020 के मुकाबले आप के मत प्रतिशत में करीब 10 प्रतिशत की कमी आई है। पार्टी की पराजय, शीर्ष नेताओं की हार और मत प्रतिशत में गिरावट आम आदमी पार्टी की नीति और नेतृत्व पर सवाल है। भाजपा का जहां करीब 9 प्रतिशत मत बढ़ा है वहीं कांग्रेस का भी 2 फीसद वोट बढ़ा है।

इस पराजय को नैतिक हार इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से राजनीति में आए। लेकिन 10 वर्षों के अंदर ही उनपर नई शराब नीति के नाम पर भ्रष्टाचार करने, करोड़ों रुपये लगाकर मुख्यमंत्री आवास बनाने और अन्य दलों की ही तरह जाति-धर्म के आधार पर राजनीति करने का आरोप लगने लगा। जबकि ये लोग राजनीति में आने के पहले लालबत्ती गाड़ी न लेने, बड़े बंगलों की जगह फ्लैट में रहने का नारा बुलंद किया था। लेकिन चंद वर्षों में ही सारे वादे भूल गए।

आम आदमी पार्टी की इज्जत को तो दलित और मुसलमान मतदाताओं ने बचा लिया। अगर दलित और मुस्लिम मतदाता भी चुनावी प्रचार में बह कर कांग्रेस की तरफ खिसकते तो आप कहीं की नहीं रहती। राजधानी में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 12 सीटों में से 8 पर आप की जीत हुई है।

इसी तरह 11 अल्पसंख्यक सीटों पर भी 8 पर आप की जीत हुई है। दिल्ली के पॉश कालोनियों और मध्यम वर्ग वाले क्षेत्रों में आप को करारी शिकस्त मिली है। जैसे जंगपुरा और नई दिल्ली विधानसभा सीट। इस तरह से यह कह सकते हैं कि दिल्ली का उच्च और मध्यम वर्ग आप से दूर हो गया है।

पहले वह केवल लोकसभा में ही भाजपा के साथ था और अब विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के साथ चला गया। आने वाले दिनों में यदि यही ट्रेंड रहा तो दिल्ली नगर निगम से भी आप का बोरिया-बिस्तर बंध सकता है।

दिल्ली में क्षेत्रीय दलों और उनके नेताओं यानी नीतीश कुमार, चिराग पासवान, अजित पवार, मायावती और असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी को जिस तरह से जनता ने खारिज किया वह इन दलों के विचारहीन नेतृत्व को करारा तमाचा है। ये लोग चुनाव में जाति और धर्म का हवाला देकर अपना प्रत्याशी उतारते हैं। लेकिन इस बार दिल्ली की जनता ने ऐसे सारे दलों को खारिज कर दिया है। सबसे शर्मनाक स्थिति का सामना तो बसपा सुप्रीमो मायावती को करना पड़ा है।  

दिल्ली में आप की हार ने कई सवालों को जन्म दिया है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की पराजय सिर्फ केजरीवाल की हार नहीं बल्कि विपक्ष यानि इंडिया गठबंधन की भी हार है। जो लोग यह सपना संजो रहे थे कि चुनाव के समय गठबंधन करके लोकसभा चुनाव में एनडीए को हरा देंगे, अब उनकी आंख खुल जानी चाहिए। उनको अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना चाहिए।

दिल्ली में एक भी सीट न पाकर कांग्रेस खेमे में भारी खुशी देखी जा रही है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने कहा कि अब 2030 में हम दिल्ली में सरकार बनाएंगे। यानि कांग्रेस अगले विधानसभा चुनाव में सीधे भाजपा से लड़ेगी। कांग्रेस को इस बात का संतोष है कि इस बार उसका मत प्रतिशत बढ़ा है। और अगली बार उसे आप से नहीं सीधे भाजपा से मुकाबला करना होगा।

कांग्रेस ने इस चुनाव में शीला दीक्षित के हार का बदला ले लिया। और केजरीवाल भी मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी सीट नहीं बचा सके। अरविंद केजरीवाल की हार में शीला दीक्षित के सुपुत्र संदीप दीक्षित की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

आम आदमी पार्टी के चुनाव हारने के बाद अब यह भ्रम भी समाप्त हो गया कि राजधानी में भाजपा विरोधी सरकार है। अरविंद केजरीवाल ने समय-समय पर जिस तरह का राजनीतिक स्टैंड लिया उसे देखकर यह कहा गया कि आप भाजपा की बी टीम है। और आप का उदय संघ-भाजपा के सहयोग से ही हुआ। लेकिन विपक्ष की राजनीतिक मजबूरी के चलते केजरीवाल विपक्ष का भी फायदा उठाते रहे और मौका पड़ने पर सत्ता के सुर से सुर भी मिलाते रहे।

अरविंद केजरीवाल के ‘कल्याणकारी राज्य’ वाली नीतियों को छोड़ दिया जाये तो वर्तमान समय की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर उनके विचार भाजपा से बहुत अलग नहीं हैं। उनको जिस मुद्दे में राजनीतिक फायदा दिखता था उसे वह पकड़ लेते थे। दिल्ली दंगों में वह और उनकी सरकार चुप बैठी रही। भाजपा सरकारों की तर्ज पर वह भी दिल्ली की जनता के लिए तीर्थयात्रा स्कीम चलाते रहे। ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जिस पर वह अवसर देखकर अपनी राजनीति-रणनीति तय करते हैं।

(प्रदीप सिंह जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं)

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प्रदीप सिंह https://www.janchowk.com

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

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