जब ज़मीर घायल हो और ख़बरें ख़ामोश- पहलगाम की पुकार और पर्दानशीं हक़ीक़त

“ज़ख़्म अगर शहर की दीवारों से रिसने लगें, तो समझ लीजिए कोई ख़ामोशी क़त्ल कर दी गई है।” भारत की…

जहां मोहब्बत के फूलों को नफ़रत की गोलियों से रौंदा गया- पहलगाम की रूह रोती रही

बर्फ़ से ढकी वादियां, झीलों की तह में छुपे नर्म जज़्बात, और हवा में घुली सुकून की सरगोशियां- कश्मीर की…

जब अदालतों पर सियासत की उंगली उठे- लोकतंत्र के आईने पर एक सियाह धब्बा

बयान कभी-कभी महज़ अल्फ़ाज़ नहीं होते, बल्कि वो आईना होते हैं, जिसमें किसी शख़्स की नीयत, सियासत और सोच की…

इस्तांबुल की फ़िज़ाओं में इंसानियत की सदा-जब आसिफ मुज़तबा की ख़ामोश आंखों से रौशनी बह निकली

इस्तांबुल/नई दिल्ली। कुछ लोग तारीख़ नहीं बदलते, तर्ज़-ए-फ़िक्र बदलते हैं। कुछ नाम अपने वजूद से नहीं, अपने असर से ज़िंदा…

तहज़ीब की ताबानी पर साया-ए-सियाही- औरंगज़ेब से बहादुर शाह ज़फ़र तक तारीख़ की तौहीन का दर्दनाक फ़साना

तहज़ीब की रूह कभी-कभी चीख़ती नहीं, सिसकती है। वो शोर नहीं मचाती, बस ख़ामोश होकर हमारी पेशानी से अपना नूर…