मध्यप्रदेश के मुलताई में किसान आंदोलन पर कांग्रेस सरकार द्वारा कराये गये गोली चालन को 12 जनवरी को आज 27 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इन 27 वर्षों में किसानों की स्थिति में क्या परिवर्तन हुआ? किसानों के प्रति सरकारों का रवैया कितना बदला? किसान आंदोलन के खिलाफ सरकारों की दमनात्मक कार्यवाहियों में क्या अंतर आया? इसका मूल्यांकन आवश्यक है।
किसानों की स्थिति-
गत 27 वर्षों में किसानों की संख्या में लगातार कमी हुई है। 2016-17 में औसत खेती के लिए भूमि जोत 1.08 हेक्टेयर थी, 2021-22 में घटकर 0.74 हेक्टेयर ही रह गई है। इसमें 31% यानी एक तिहाई की कमी आई है। तमाम सारे किसान गत 27 वर्षों में खेतीहर मजदूर बन चुके हैं या शहरों में पलायन कर चुके हैं।
27 वर्ष पूर्व जब किसानों की फसलें ओलावृष्टि और अतिवृष्टि से खराब हुई थी तब अनावरी मापने की इकाई तहसील थी जो अब बदलकर पटवारी हल्का हो चुकी है। तब सरकार 400 रूपये प्रति एकड़ राजस्व मुआवजा दिया करती थी और वह दर लगभग 10,000 रूपये प्रति एकड़ हुई है। उस समय फसल बीमा का लाभ किसानों को नहीं मिलता था।
आज आधा अधूरा ही सही कुछ ना कुछ मिलने लगा है लेकिन किसानों की फसलों की एम एस पी पर खरीदी तब की जाती थी न अब की जा रही है। इतना परिवर्तन जरूर आया है कि स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट आने के बाद अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति और संयुक्त किसान मोर्चा के संघर्षों के बाद एमएसपी की कानूनी गारंटी का मुद्दा देश के राजनीतिक पटल पर आ गया है।
किसानों की आत्महत्या निरंतर जारी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष औसतन 15,168 किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं। इनमें लगभग 72 प्रतिशत ऐसे छोटे किसानों है, जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। कृषि बजट 3 प्रतिशत तक सिकुड़ गया है। कृषि की लागत में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है लेकिन महंगाई की तुलना में समर्थन मूल्य नहीं बढ़े है।
सरकारों की किसान संगठनों के साथ संवादहीनता –
12 जनवरी 1998 को मुलताई के किसानों ने जब प्राकृतिक आपदा से नष्ट हुई फसल का मुआवजा- फसल बीमा, कर्ज मुक्ति और बिजली बिल माफी की मांग की तब सरकार ने किसान संघर्ष समिति बातचीत करने की बजाय गोलीचालन कर 24 किसानों की दिन दहाड़े हत्या कर गई तथा 150 किसानों को गोलियों से घायल कर दिया और 250किसानों पर 67 मुकदमे लाद दिये। 12 साल पहले मुझे तीन किसानों सहित 52 वर्ष की सजा सुना दी गई।
मंदसौर में जब 2017 में किसान आंदोलन चला तब भी सरकार ने किसानों से बातचीत करने की बजाय 6 जुलाई 2017 को गोली चालन किया जिसमें 6 किसान शहीद हुए। 100 से अधिक एफआईआर दर्ज कराई गई लेकिन किसानों ने अपनी ताकत से सभी एफ आई आर ठंडे बस्ते में डलवा दी।
अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने जब लाभकारी मूल्य और कर्जा मुक्ति के दो कानून पारित कराने का आंदोलन चलाया तब भी सरकार ने अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति से बातचीत करने की आवश्यकता नहीं समझी।
जब संयुक्त किसान मोर्चा ने 2020 से तीन किसान विरोधी कानून वापस करने का आंदोलन शुरू किया तब सरकार ने पहले पंजाब के किसानों का रास्ता रोका, किसान संगठनों को बदनाम किया, 26 जनवरी 2021 को किसानों के साथ हिंसात्मक षड्यंत्र किया। चार राउंड किसान संगठनों से बातचीत भी हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
लखीमपुर खीरी में बीजेपी नेता ने चार किसानों की गाड़ी से कुचलकर हत्या कर दी, उल्टे किसानों पर ही फर्जी मुकदमें लाद दिए गए तथा उन्हें जेल में डाल दिया गया। बाद में 9 दिसंबर 2021 को केंद्र सरकार ने कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के सचिव के माध्यम से किसानों को लिखित आश्वासन पत्र दिया जो धोखा साबित हुआ।
गत 13 फरवरी 2024 से खन्नौरी और शंभू बॉर्डर पर किसान आंदोलन चल रहे है लेकिन सरकार ने बातचीत करने की आवश्यकता नहीं समझी। पंजाब के किसानों को हरियाणा की बॉर्डर पर रोके रखा है। 21 फरवरी 2024 को खनौरी बॉर्डर पर हरियाणा पुलिस द्वारा गोलीचालन में 24 वर्षीय शुभकरणसिंह की शहादत हो चुकी है।
हाल ही में नोएडा और ग्रेटर नोएडा के किसानों के खिलाफ लाठी चार्ज कर 142 किसानों को जेल में डाल दिया गया। यह लेख लिखे जाते समय किसान नेता जगजीतसिंह डल्लेवाल के अनशन के 47 दिन हो चुके हैं लेकिन सरकार बातचीत करने को तैयार नही है।
संयुक्त किसान मोर्चे ने 17 जनवरी को पूरे देश में सरकार के बातचीत न करने के अलोकतांत्रिक और तानाशाही पूर्ण रवैया के खिलाफ भूख हड़ताल करने का ऐलान किया है।
उपरोक्त तथ्यों से यह नतीजा निकाला जा सकता है कि 27 वर्षों में केंद्र सरकार और राज्य सरकारें पंजाब सरकार के अपवाद को छोड़कर किसान संगठनों से संवाद करने को तैयार नहीं है तथा सरकारों का रवैया हिंसात्मक तरीकों से किसान आंदोलन का दमन करने का बना हुआ है।
किसानों के मुद्दे बने चुनावी हथकंडे-
गत तीन दशकों में हुये चुनावों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि सरकारें किसानों का वोट लेने के लिए किसानों के किसी न किसी मुद्दे का इस्तेमाल कर रही है। मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 2 लाख रुपए तक के कर्ज माफ करने की घोषणा तथा छत्तीसगढ़ में 2400 रूपये प्रति क्विंटल की दर पर धान की खरीद के मुद्दे पर सरकार बनायी थी।
गत वर्ष छत्तीसगढ़ के चुनाव में भाजपा ने 3100 रू प्रति क्विंटल पर धान खरीदी को लेकर सरकार बनायी। हरियाणा में भाजपा ने किसानों की फसलें समर्थन मूल्य पर खरीदने का आश्वासन देकर सरकार बनायी। लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन ने किसानों को समर्थन मूल्य पर खरीदी की गारंटी का वायदा कर 234 सीटें हासिल की।
दूसरी तरफ भाजपा ने किसानों को 6000 रूपये प्रति वर्ष किसान सम्मान निधि का मुद्दा बनाकर 240 सीटें हासिल करने में सफलता प्राप्त की इस तरह गत 27 वर्षों में राजनीतिक दलों ने सत्ता हथियाने, सरकार बनाने के लिए किसानों के मुद्दे का इस्तेमाल किया जाने लगा है। अर्थात किसानों के मुद्दे देश में राजनीतिक एजेंडे में स्थान बना चुके हैं लेकिन पार्टियां किसानों के वोट से सत्ता पाने की कोशिश कर रही है। किसानों की स्थिति को आमूल चूल बदलने में पार्टियों सरकारों की कोई रूचि नहीं है।
किसान संगठनों की ताकत बढ़ी-
27 वर्ष पहले की तुलना में आज किसान संगठनों की ताकत काफी बढ़ गई है। किसान संगठन ताकतवर होने के साथ-साथ ज्यादा एकजुट हुए हैं। 27 साल पहले जब मुलताई किसान आंदोलन पर गोली चालन हुआ था तब देश में किसान संगठनों का कोई बड़ा राष्ट्रीय मंच नहीं था लेकिन मंदसौर किसान आंदोलन के बाद 250 किसान संगठनों ने अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन किया।
मुलताई किसान आंदोलन के 27 वर्ष बाद देश में संयुक्त किसान मोर्चा 550 किसान संगठनों के सशक्त मोर्चे के तौर पर मौजूद है। विशेष तौर पर पंजाब के किसान संगठनों की ताकत किसी भी सरकार को ठप्प कर देने की बन चुकी है। किसी भी पार्टी की राज्य सरकार की हिम्मत पंजाब के किसान आंदोलन के खिलाफ बड़ी पुलिस कार्यवाही करने या पुलिस गोली चालन करने की नहीं है।
कॉर्पोरेट को चुनौती-
देश में पहली बार पंजाब में अडानी-अंबानी जैसे कॉर्पोरेट घरानों के खिलाफ जमीनी आंदोलन सशक्त रूप से सामने आए हैं जिसके तहत अडानी के अन्न भंडारण करने वाले सायलो, अंबानी के पेट्रोल पंपों और रिलायंस के मॉल के खिलाफ बड़े धरने प्रदर्शन हुए हैं।
कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिए बनाए गये तीन किसान विरोधी कानून को वापस कराने में किसान संगठनों ने सफलता हासिल की है। हालांकि गत दो दशकों में कई बार जेनेटिकली मॉडिफाइड बीजों और कृषि उत्पादों को जब देश में उतारने की कोशिश हुई तब भी किसानों ने इसका बड़ा प्रतिरोध किया है।
हाल ही में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय कृषि बाजार नीति का ड्राफ्ट तैयार कर फिर से कॉरपोरेट को कृषि क्षेत्र में एकाधिकार देने और मंडी व्यवस्था समाप्त करने तथा अडानी-अंबानी को किसानों की जमीनें सौंपने की तैयारी कर ली है। संयुक्त किसान मोर्चा ने नई राष्ट्रीय कृषि बाजार नीति का ड्राफ्ट की प्रतियां जलाकर कॉरपोरेट को बड़ी चुनौती देने की बड़ी कार्यवाही शुरू कर दी है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि किसानों के प्रति सरकारों का रवैया गत 27 वर्षों में नहीं बदला है, न ही सरकारों ने किसान संगठनों से संवाद की शुरुआत की है लेकिन किसानों के बीच अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता बढ़ी है तथा किसान संगठन बड़ी शक्ति के तौर पर सरकारों के सामने खड़े हैं जिसके चलते राजनीतिक दल किसानों के मुद्दों को चुनावी नतीजे का हथियार बनाने के लिए मजबूर हुये हैं।
(डॉ. सुनीलम पूर्व विधायक एवं किसान संघर्ष समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)
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