भाजपा आज अपनी ताकत से नहीं, विपक्ष की कमजोरी से सत्तासीन है

‘इधर दुधारू गाय अड़ी थी, उधर सरकसी बक्कर था’- यह हिंदी कवि नागार्जुन की एक काव्य-पंक्ति है। जयप्रकाशजी के सम्पूर्ण क्रांति से मोहभंग के बाद यह कविता लिखी गई थी। 1970 के दशक में मुल्क की स्थितियां कुछ ऐसी ही थीं कि कवि तय नहीं कर पा रहा था कि वह क्या करे। मुक्तिबोध ने संभवतः इन्ही स्थितियों में लिखा होगा- दिल्ली जाऊं या उज्जैन।

मैं समझता हूं मुल्क की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियां आज भी कुछ वैसी ही हैं। एक गहन वैचारिक अराजकता की स्थिति है। एक तरफ भाजपा और आरएसएस की सोच और कार्यप्रणाली है, दूसरी तरफ कांग्रेस और दूसरे क्षेत्रीय दल हैं। मैं यह स्वीकार कर चलता हूं कि राजनीति का वामपक्ष लगभग अप्रासंगिक हो चुका है। उनसे कोई उम्मीद अब नहीं की जा सकती। 1990 के आसपास प्रतिपक्ष राष्ट्रीय मोर्चा और वाम मोर्चा के रूप में सशक्त था। आज विपक्ष में उनकी उपस्थिति प्रभावित करने वाली नहीं है। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस में आमने -सामने की टक्कर है। दोनों के साथ कुछ क्षेत्रीय दल हैं।

लेकिन प्रश्न वैचारिकता का है। भाजपा की विचारधारा उसकी कार्यप्रणाली से स्पष्ट होता है। अपनी वैचारिकता में वह आज अपने ही जनसंघ दौर से भिन्न है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दूसरे हिन्दूमहासभाई ज्ञान-केंद्रित राजनीति के आग्रही थे। अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने उसे आरएसएस के अधिक नजदीक लाया। लेकिन हिन्दू महासभाई परंपरा से भी जुड़े रहे। आरएसएस राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से कभी नहीं जुड़ा, किन्तु हिन्दू महासभा उससे जुडी रही। उसके अधिकतर नेता कांग्रेस के साथ उसी तरह सक्रिय थे, जैसे समाजवादी नेता अपने मार्क्सवादी दृष्टिकोण के साथ कांग्रेस में सक्रिय थे।

आज की भाजपा के बारे में यह कहना मुश्किल होगा कि उसकी विचारधारा का ठीक-ठीक स्वरूप क्या है। यह जरूर दिख रहा है कि उसका केन्द्रक सावरकरवाद है- ‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण’। यह सैन्यीकरण आज सशक्तिकरण में रूपांतरित दीख रहा है। यानी आज की भाजपा की वैचारिकता राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुओं का सशक्तिकरण हो गया है। कई नस्लों और संस्कृतियों वाले इस मुल्क में भाजपा की मुश्किलें कम नहीं हैं। लेकिन उत्तर-पूर्व के राज्यों में उसने जिस तरह अपना फैलाव-विस्तार किया है, वह भी दीख रहा है।

गांधी और जवाहरलाल की विचारधारा में हिन्दू एक भिन्न रूप में था। गांधी का हिन्दू भागवत -वैष्णव प्रकृति -प्रवृति का था। यही उनका वैचारिक केन्द्रक था। उनका राम राजा तो था, लेकिन सम-मति वाला। मुसलमानों के अल्ला का ही एक प्रतिरूप। ईश्वर -अल्ला उनके लिए एकरूप था। इसी भावना के वृत्त पर उनकी राजनीति थी। लेकिन, मुसलमानों के पढ़े-लिखे बड़े हिस्से ने उनकी राजनीतिक प्रस्तावना ठुकरा दी और मुस्लिम लीग को बढ़ावा दिया। नतीजतन देश का विभाजन हुआ। मुसलमानों के इस फैसले ने हिंदुत्व की राजनीति को मजबूत आधार दे दिया।

जवाहरलाल ने गांधी के हिन्दू को भारत बनाने की कोशिश की। वह नास्तिक थे, जो सेकुलर होने की पहली शर्त होती है। इस नास्तिकता के साथ वह हिंदुत्व की बौद्ध चेतना से जुड़ते हैं और वही उनका सांस्कृतिक आधार बनता है। वह किसी पौराणिक राम को नहीं, उस अशोक मौर्य को अपना आदर्श मानते हैं, जिसने ईसा के पूर्व एक ऐसे भारत का वजूद संभव किया था,जो धम्म केंद्रित तो था, लेकिन सर्वधर्मसमभाव उसका आदर्श था। जवाहरलाल ने धर्मों को भी राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा, वह चाहे हिन्दू हो, इस्लाम हो या कोई और। अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में उन्होंने अपनी वैचारिकी को स्पष्ट किया है।

हिंदी कवि रामधारी सिंह दिनकर की किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका के तौर पर लिखे गए एक विस्तृत आलेख में एक बार फिर उन्होंने अपने विचारों को स्पष्ट किया। उनका भारत एक ऐसा समावेशी भारत है, जहां भिन्न संस्कृतियां घुल-मिल कर भारतीयता का सृजन करती हैं। उन्होंने धर्म की जगह संस्कृति को रेखांकित किया। जैसे समंदर में मिलने वाली नदियां अपना पूर्व नाम खो देती हैं, वैसे ही भारत में शामिल भिन्न संस्कृतियां एक भारतीय संस्कृति का निर्माण करती हैं। उनकी भावना में गंगा भी है, जिसमें अपने चिता की एक मुट्ठी राख वह समर्पित करना चाहते हैं; और भारत के वे खेत -खलिहान भी जिसका वह हिस्सा हो जाना चाहते हैं।

बुद्ध उनके कानों में गुनगुनाते हैं, कालिदास और रवीन्द्रनाथ को समझना चाहते हैं, कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मनु के जिगिविषु राजा को ढूंढते हैं और उसे मैकियावेली के प्रिंस से तौलते हैं। अपने हिंदुस्तान को वह पश्चिमी ज्ञान के आलोक में निमज्जित करते हैं। उसे सुसंस्कृत करते हैं। मुल्क के प्रधानमंत्री के रूप में कुछ वर्षों तक उन्होंने जम्बूद्वीप के बड़े हिस्से को भारत बनाने की कोशिश की। वह भारत जिसकी कल्पना और प्रस्तावना हमारे ऋषि -मुनियों और कवियों ने की थी। उन्होंने हिन्दू को भारत और हिंदुत्व को भारतीयता में तब्दील कर दिया था। जब तक उनका प्रभाव रहा संघ-जनसंघ-भाजपा की राजनीति हाइबरनेशन में रही। सतह पर नहीं आई। बल्कि अटलबिहारी वाजपेयी जैसे उल्लेखनीय संघी-जनसंघी-भाजपाई जवाहरलाल से अनुप्राणित रहे और उनका हिंदुत्व भारत के कोष्ठक में रहा।

लेकिन क्या आज स्वयं कांग्रेस ने ही अपनी उस परंपरा की ऐसी-तैसी नहीं कर दी है, जिसे कभी गांधी-जवाहरलाल ने संवारा था। अपनी आंतरिक और विदेश दोनों नीतियों को कांग्रेस ने परिवर्तित स्थितियों में विवेचित नहीं किया। सामाजिक -राजनीतिक मामलों पर उसके वक्तव्य लगातार अगंभीर होते चले गए हैं। सामाजिक प्रश्नों पर वह लालू-मुलायम की सोच के पीछे खड़ी दिखती है, जिसका ताज़ा उदाहरण जाति-जनगणना पर उसका वक्तव्य है। धार्मिक प्रश्नों पर उसकी सोच का एक स्वरूप भी सम्यक की जगह तुष्टिकरण वाला दीखता है। जिस कांग्रेस को अपने अध्यक्षता काल में जवाहरलाल ने सांगठनिक स्तर पर परवान चढ़ाया था, आज कुंठित- भूलुंठित होकर रह गया है।

यह सब क्यों और कैसे हुआ? मैं नहीं समझता इसके लिए सोनिया या राहुल दोषी हैं। सोनिया ने उस कांग्रेस को हाथ में लिया था, जो बर्बाद हो चुकी थी और राहुल उस कांग्रेस को अपनी ऊर्जा दे रहे हैं, जिसमें वह किसी पद पर नहीं हैं। दरअसल कांग्रेस को बर्बाद करने में भूमिका उन कांग्रेस जनों की है, जो जड़विहीन शहरी हैं। उनके लिए ऐसा संगठन लाभदायक रहा जो व्यक्ति-केंद्रित हो, ताकि गणेश-परिक्रमा कर पद हासिल किए जा सकें। किसी लोकतान्त्रिक पार्टी को राजतंत्रीय अभिकरणों से मंडित करने का नतीजा यह हुआ कि पार्टी ही लोकतंत्र के लिए अप्रासंगिक हो गई। कांग्रेस आज इस रूप में भाजपा का मुकाबला कर सकेगी इसकी मुझे तनिक भी उम्मीद नहीं है। उसे आमूलचूल बदलना होगा। अपनी प्रकृति-प्रवृति और वैचारिकता सब में।

मेरा मानना है कि भाजपा आज अपनी ताकत से नहीं, विपक्ष की कमजोरी से सत्तासीन है। प्रतिपक्ष को भाजपा की आलोचना के बजाय अपने को हर स्तर पर सुगठित करने पर लगना चाहिए। क्षेत्रीय दलों की भूमिका है और रहनी चाहिए; कांग्रेस को उनके साथ मोर्चा भी बनाना चाहिए। लेकिन उसे तंगदिमाग राजनीतिक दलों से दूरी भी बनानी चाहिए। भले ही अभी कुछ नुक्सान हो, लेकिन इससे उसकी एक तय विचारधारा का प्रकटीकरण होगा जो अंततः एक आकर्षण पैदा करेगा।

नई पीढ़ी के युवक-युवतियां जब तक त्याग भावना के साथ किसी संस्था से नहीं जुड़ेंगे, वह मजबूत नहीं होगी। भाजपा के साथ आज भी नई पीढ़ी का एक हिस्सा उसके हिंदुत्व की विचारणा के कारण आकर्षित होता है। इसके मुकाबले कांग्रेस जवाहरलाल के भारत की नहीं, लालू-मुलायम के मुस्लिम तुष्टिकरण और जाति-व्याकरण की राजनीति के पीछे खड़ी हो गई है। यह उसके लिए आत्मघाती फैसला है।

(प्रेमकुमार मणि साहित्यकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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