Saturday, April 27, 2024

रानी कमलापति या आदिवासियों का धृतराष्ट्र आलिंगन!

संघी कुनबे को भारत के मुक्ति आंदोलन के असाधारण नायक बिरसा मुण्डा की याद उनकी शहादत के 122वें वर्ष में आयी। अंग्रेजों से लड़ते हुए और इसी दौरान आदिवासी समाज को कुरीतियों से मुक्त कराते हुए महज 24 साल की उम्र में रांची की जेल में फांसी पर लटका दिए गए बिरसा मुण्डा के जन्मदिन 15 नवम्बर के दिन भाजपा आदिवासियों के लिए मार आकाश पाताल गुंजायमान मोड में दिखी। इस तरह दिखी कि पूरी तरह निजी कंपनी के हाथ में सौंपे जा चुके भोपाल के एक रेलवे स्टेशन – हबीबगंज – का नाम बदलकर खूब पुराने स्टेशन का पुनः उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी “मैं बचपन से ही अलाँ और फलां होना चाहता था” के फलां में आदिवासी जोड़कर खुद को बिरसा मुण्डा का नवावतार साबित करने पर आमादा नजर आये। यूँ यह सरासर आदिवासी और किसान विरोधी सरकार के घड़ियाली आँसू ही थे – मगर इस पर बाद में, पहले इनके इस दिखावे की असलियत जान लेते हैं।  

कोई 52 करोड़ (कुछ के मुताबिक़ करीब 100 करोड़ रूपये) के सरकारी खर्च से जम्बूरी मैदान में हुयी यह जमूरागीरी एक त्रासद प्रहसन थी।  चोर चोरी से भी न जाएगा और हेराफेरी के साथ ठगी भी करेगा की तर्ज पर इस बीच, इस बहाने  मुस्लिम विरोधी संघी एजेंडे को भी पूरे जोर शोर से लागू किया जा रहा था। इतिहास के साथ हेराफेरी संघी कुनबे का प्रिय शगल है। वैसे देखा जाए तो यह उनकी जन्मजात मजबूरी भी है क्योंकि भारत के 5-7 हजार वर्षों के लिखित इतिहास में ऐसा एक भी – जी हाँ, मनु के अलावा एक भी – नहीं है जिसे ये अपना कह सकें। यही वजह है कि ये पुरखे उधार लेने की हड़बड़ी में मारे मारे फिरते हैं और उस फ़िराक में प्रामाणिक इतिहास में भी गड़बड़ी करने से बाज नहीं आते। पूरी तरह निजी कम्पनी को सौंपे गए देश के पहले तथाकथित वर्ल्ड क्लास हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर रानी कमलापति किया जाना भी इसी तिकड़म का हिस्सा है।  

तीन सदी पुरानी रानी कमलापति की कहानी दिलचस्प है।  

सोलहवीं सत्रहवीं सदी में बाकी पूरे मध्यभारत की तरह आज का भोपाल भी गोंड राजाओं के राज में था। गिन्नौरगढ़ के निज़ाम शाह इसके राजा थे। रानी कमलापति उनकी अनेक (कुछ के मुताबिक़ 7) रानियों में से एक थीं – उनका व्यक्तित्व इतना भव्य था कि उसे विशाल भोपाल ताल से जोड़कर कहावत में आज भी याद किया जाता है कि “ताल में भोपाल ताल बाकी सब तलैया / रानी तो कमलापति बाकी सब रनैया !!”  हुआ कुछ यूं कि राजदरबारों की साजिशों और षड्यंत्रों का शिकार बनाकर निज़ाम शाह मार डाले गए, युवा विधवा रानी कमलापति अपनी और अपने छोटे बच्चे की जान की खातिर जैसे तैसे वहां से बचकर आज के भोपाल गाँव में पहुँची। 

उन दिनों इस इलाके में इस्लामपुर में अफगानी सरदार दोस्त मोहम्मद खान का मुकाम हुआ करता था। रानी कमलापति ने उन्हें राखी भेजकर अपना भाई बनाया और मुसलमान दोस्त मोहम्मद की मदद से अपने पति की ह्त्या करने वालों से बदला लेकर बदले में भोपाल उसे सौंप दिया। इतिहासकारों के मुताबिक़ दोस्त मोहम्मद ने भाई का यह रिश्ता आखिर तक निबाहा और इधर गोंड राजा भूपाल सिंह के नाम से बने भूपाल (रेलवे स्टेशन का पुराना नाम भूपाल ही था, उच्चारण में कठिनाई के चलते इसे अंग्रेजों ने भोपाल कर दिया) बसाया, उधर अपनी बहन बनी कमलापति को एक सुन्दर सा महल बनाकर दिया, जहां उसने अपने बाकी के दिन गुजारे। 

संघी और भाजपाई अब इस इतिहास को बदलना चाहते हैं। आज जो हबीबगंज का नाम बदलकर रानी कमलापति करके आदिवासियों के सम्मान का दावा कर रहे हैं इन्हीं ने कुछ साल पहले गोंड राजा भूपाल के नाम वाले भोपाल का नाम बदलकर भोजपुर करने की कोशिश की थी। यह अलग बात है कि भोपाली अवाम ने एकजुट होकर इस हरकत को नाकाम कर दिया था। भाजपाई एजेंडा आदिवासियों की अस्मिता का सम्मान नहीं – उनका धृतराष्ट्र आलिंगन करने का है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने अपने ट्वीट में इसे साफ़ भी कर दिया जब उन्होंने दावा किया कि “कमलापति भोपाल की आख़िरी हिन्दू रानी थीं।”  इस तरह स्टेशन का नाम बदलना आदिवासियों को सम्मानित करने की नहीं उनके हिन्दूकरण की संघी मुहिम का हिस्सा है।

आदिवासियों के प्रति उनका रुख क्या है यह प्रधानमंत्री द्वारा निजी कंपनी के रेलवे स्टेशन के उद्घाटन के ठीक एक दिन पहले ही शिवपुरी के गाँव सैंकरा में पहुँची हरिलाल की लाश बयान कर रही थी। अति गरीब सहरिया आदिवासी हरिलाल ने दीवाली से पहले अपनी मजदूरी का बकाया पैसा माँगा तो दबंगों ने घर में बंद करके लाठियों और कुल्हाड़ी से उसकी पिटाई लगाकर अधमरा करके छोड़ दिया था। भाजपा राज की पुलिस ने हरिलाल की रिपोर्ट कुछ मामूली धाराओं में दर्ज कर दबंगों की हिमायत की कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद हरिलाल नहीं उनकी लाश ही घर लौटी। इस गाँव के आदिवासियों को भरकर मोदी की सभा में लाने के लिए बसें भेजी गयी थीं – जिन्हे इस मौत से दुःखी और गुस्साए आदिवासियों ने खाली वापस लौटा दिया। यह सिर्फ एक घटना नहीं थी – आदिवासियों और दलितों के उत्पीड़न, जिसमें ह्त्या, बलात्कार भी शामिल हैं, के मामले में मध्यप्रदेश, टॉप पर बैठे योगी के यूपी से थोड़ा सा ही नीचे है।

मोदी जिन आदिवासियों की “अब तक हुयी उपेक्षा” का राग भैरव जिस मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में सुना रहे थे,  उस मध्यप्रदेश में आदिवासी बच्चों की शिशु मृत्यु दर देश में सबसे ज्यादा, राष्ट्रीय औसत 40 के मुकाबले 111 है। आदिवासी अवाम की गरीबी में भी सबसे आगे मध्यप्रदेश है तो बेरोजगारी में भी सबसे ऊपर मध्यप्रदेश के आदिवासी हैं।  तीन साल पहले राज्यसभा में खुद मोदी के मंत्री ने स्वीकारा था कि रोजगार के लायक 69 प्रतिशत आदिवासी बेरोजगार हैं। उसके बाद कोरोना काल के दो वर्षों में क्या हुआ इसे औरंगाबाद की रेल पटरियों पर अपने खून को स्याही, बची रोटियों को कलम और खुद की देह को कागज़ बनाकर मध्यप्रदेश के आदिवासी दुनिया को बता चुके हैं।  

ये वही भारत के आदिवासी और बिरसा मुण्डा, सिद्दू कान्हू मुर्मू , टांटिया भील, वीर नारायण सिंह, अलूरी सीताराम राजू, रानी गाइदिन्लयू और बादल भोई के वारिस हैं जिन्हे लुभाने के लिए रेलवे के लिए नवाब हबीब मियाँ की दान की जमीन पर बने हबीबगंज स्टेशन पर 49 प्रतिशत अमेरिकी कंपनी की पार्टनरशिप के साथ बंसल ग्रुप के कब्जे पर ठप्पा लगाने प्रधानमंत्री मोदी स्वयं आये थे। वही आदिवासी जिनकी सभ्यता के पूर्व से जो उनकी बसाहट है उन जंगलों को मध्यप्रदेश सरकार कंपनियों को सौंपने का फैसला पिछले महीने ही ले चुकी है। सरकार और कंपनियों के बीच हुए समझौतों में दर्ज होगा कि सरकार ये वन इन  कंपनियों को आदिवासियों से खाली कराकर सौंपेगी।  

गरीबों, उसमें भी आदिवासियों से, भाजपा की नफ़रत आज की नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय 30 मई 2002 को आदेश जारी कर आदिवासियों और वनवासियों को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश जारी किया गया था। इस आदेश में यहां तक था कि उनकी बेदखली और उनकी बसाहटों को तोड़ने फोड़ने पर जो खर्चा आएगा उसे भी इन्हीं आदिवासियों से वसूला जाएगा। यही खतरनाक आदेश था जिसे रद्द करवाकर यूपीए प्रथम के कार्यकाल में आदिवासी वनाधिकार क़ानून 2006 बनवाने में सीपीएम की नुमाईंदगी वाले वामपंथ ने पूरी ताकत लगा दी थी। दो साल पहले 2019 में सुप्रीम कोर्ट के मोदी चारण जज अरुण मिश्रा ने फिर करोड़ों आदिवासियों की बेदखली का आदेश सुनाया था। जिसे जबरदस्त देशव्यापी प्रतिरोध के बाद रुकवाया गया।

करें गली में कत्ल बैठ चौराहे पर रोयें की संघी-मोदी अदा आम अवाम के साथ अब आदिवासी भी समझने लगे हैं। उन्हें पता है कि भाजपा देश की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है जो आदिवासियों के अस्तित्व को ही स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है – वह उन्हें आदिवासी कहने तक को तैयार नहीं है, वनवासी कहती है और अपने कार्पोरेटी आकाओं के मुनाफे की तिजोरियां भरने के लिए उन्हें उनकी परम्परागत बसाहटों से खदेड़ कर कोलम्बस के अमरीका के आदिवासियों की दशा में पहुंचाना चाहती है। वे समझते हैं कि पहले नमस्कार कर पाँव छूना फिर मारना इन संघी-भाजपाईयों की ख़ास रणनीति है। 

यही वजह थी कि मुफ्त की सरकारी बसें, 500 रुपयों की दिहाड़ी, रास्ते भर भोजन के इंतजाम  और प्रधानमंत्री से मिलवाने के झांसे के बावजूद जितने का दावा किया गया था उसका 40 प्रतिशत भी नहीं आये। उन्हें मालूम है कि आदिवासी सीटों को जीतने की उम्मीद में यह धोखे की आड़ खड़ी की जा रही है, जैसे  राजभर वोटों को लुभाने के लिए आज़मगढ़ यूनिवर्सिटी का नाम राजा सुहेलदेव के नाम पर रखा जा रहा है उसी तरह हबीबगंज स्टेशन का नाम रानी कमलापति के नाम पर करने का झुनझुना भोपाल में बजाया जा रहा है। उन्हें, साल भर से दिल्ली की सीमाओं पर मोर्चा बनाये अपने किसान भाईयों की तरह पता है कि बिना बिरसा मुण्डा की तर्ज पर संगठित हुए और उलगुलान मचाये न उन्हें कुछ मिलेगा, न ही वे सलामत रहेंगे।   

ठीक यही सन्देश था जो सिलगेर में अपने धरने को लगातार जारी रखके आदिवासी दे रहे हैं। धरना अभी भी जारी है। सिलगेर छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर के सुकमा जिले में स्थित है, जहां इसी साल 14-15 मई की रात को पुलिस कैम्प स्थापित कर दिया गया। ग्रामीण आज तक इसका शांतिपूर्ण ढंग से विरोध कर रहे हैं। 18 मई को पुलिस गोलीबारी में 4 आदिवासियों की मौत के  बावजूद आदिवासी डटे हैं और 26 नवंबर को देशव्यापी किसान आंदोलन की पहली साल पूरी होने पर देश भर में किये जा रहे प्रदर्शनों में भी शामिल होने जा रहे हैं।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।) 

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles