Saturday, April 27, 2024

राधा कुमार का लेख: अनुच्छेद-370 हटाने के बाद कश्मीर में नॉर्मेल्सी का दावा सफेद झूठ

ऐसे तर्क कि अनुच्छेद 370 हटाने से जम्मू और कश्मीर में ज़मीनी हालात और लोगों की ज़िंदगियां बेहतर हुई हैं, तथ्यों और दृष्टिकोण पर गुमराह ही करते हैं। 

अनुच्छेद 370 हटाए जाने की चौथी वर्षगांठ (5 अगस्त) के दिन राम माधव (‘जे एंड के, लाइक  अदर स्टेट्स’ इंडियन एक्सप्रेस, 5 अगस्त) और अखिलेश मिश्रा के लेख और जम्मू एवं कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिंह का इंटरव्यू (इंडियन एक्सप्रेस, 5 अगस्त) छपे थे। तीनों ने तथ्यों और दृष्टिकोण दोनों पर ही गुमराह किया।

माधव दावा करते हैं कि जम्मू एवं कश्मीर अपना विशेष दर्जा खोने और दो केंद्र शासित प्रदेशों में  बांटे जाने के बाद अधिक सुरक्षित, आर्थिक रूप से बेहतर और सामाजिक रूप से अधिक स्थिर है। वह कहते हैं कि इन ऐतिहासिक कार्रवाइयों के नतीजतन ‘नॉर्मल्सी’ वहां ‘न्यू नॉर्मल’ है। उनके उदाहरण हैं: सिनेप्लेक्स खुलना, बेहतर पर्यटक सीजन और पत्थरबाजी की घटनाओं में कमी आना। सिन्हा दावा करते हैं कि इंफ्रास्ट्रक्चर तेज़ी से विकसित हो रहा है, निवेश आ रहा है और “आम लोग” अपनी राय देने में स्वतंत्र हैं। मिश्रा इन्हीं बातों को दोहराते हैं लेकिन यह भी बताते हैं कि कैसे आरएसएस ने मोदी सरकार की अगस्त 2019 कार्यवाही के लिए जमीन तैयार की।

दुर्भाग्य से, तथ्य संकेत देते हैं कि तीनों ज़मीनी हालात को लेकर गलत हैं। 5 और नौ अगस्त, 2019 की कार्यवाहियों के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को दबाने के लिए 5000 लोगों को हिरासत में लेने में क्या नॉर्मल है? क्या पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को वर्षों तक सलाखों के पीछे रखना वह भी इसलिए कि वह ऐसी जानकारी या विचार प्रकाशित करते हैं जिन्हें सरकार दबाना चाहती है, नॉर्मल है?

क्या यह नॉर्मल है कि पंडितों और प्रवासी मजदूरों को उग्रवादी निशाना बनाते हों, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों में वृद्धि हो रही हो और बेरोजगारी 23.1 फीसदी (राष्ट्रीय औसत का तीन गुना) हो जाए? क्या यह नॉर्मल है कि उग्रवाद पीर पंजाल क्षेत्र में फिर सिर उठाने लगे जहां से वह 15 साल पहले समाप्त हो चुका था?

क्या यह नॉर्मल है कि राजनीतिक नेताओं को शांतिपूर्वक विरोध करने की अनुमति न दी जाए या उनके कार्यालय सील किए जाएं जैसा कि पीडीपी और एनसी के साथ शुक्रवार को हुआ, जबकि तीनों लेख प्रेस में थे? क्या यह नॉर्मल है कि क्षेत्र अलग-थलग पड़ जाए, सीमा-पार व्यापार बंद कर दिया जाए, स्थानीय होटलों को उनकी लीज़ बढ़ाने से इनकार कर कारोबार से बाहर कर दिया जाए और खनन अधिकार गैर-स्थानीय उद्योग को दिए जाएं? क्या यह नॉर्मल है कि 2019-2022 के दौरान चार सालों में 71 सीआरपीएफ जवान मारे जाएं जो संख्या 2014-2018 के दौरान मारे गए जवानों (35) की संख्या से दुगनी है? और सबसे महत्वपूर्ण, क्या यह नॉर्मल है कि विधानसभा चुनाव पांच साल तक टाले जाएं?

माधव बड़ा दावा करते हुए कहते हैं कि मोदी सरकार ने वही हासिल किया है जो युद्ध के बाद जर्मनी और जापान में मित्र राष्ट्रों ने हासिल किया था – सैन्यवादी ढांचे को समाप्त कर देना। वह क्या बोल रहे हैं? यह भारतीय सुरक्षा बल थे जिन्होंने जम्मू एवं कश्मीर में सैन्यवादी ढांचा बनाया था। यह समाप्त नहीं हुआ है। क्या वह अपेक्षाकृत सीमित पाकिस्तान समर्थित शस्त्र समूहों की तुलना हिटलर के जर्मन-प्रशियाई-जापान या जापान की साम्राज्यवादी सेना से कर रहे हैं? यदि ऐसा है तो सशस्त्र समूहों का सैन्यवादी ढांचा पाकिस्तान में है और न तो मोदी प्रशासन और न भारतीय सेना ने उसे समाप्त करने का प्रयास किया है या समाप्त ही किया है। एनएसए अजित डोभाल संभवत: हाल तक पाकिस्तानी सेना प्रतिनिधियों से गुपचुप वार्ता कर रहे थे, शायद अब भी कर रहे हैं।

सिन्हा और माधव का दावा है कि आम लोग अब अपने विचार व्यक्त करने को स्वतंत्र हैं, उतना  बड़ा नहीं है लेकिन दिलचस्प ज़रूर है। मुझे आश्चर्य है कि लोग कहां अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। अगस्त, 2019 से मैंने घाटी के किसी अखबार में विचारों का स्वतंत्र प्रवाह नहीं देखा। जम्मू के कुछ अखबारों में कुछ विचार दिखते हैं पर उनमें भी असंतुष्टों के कम ही होते हैं।

इसी तरह, बेरोज़गारी के आंकड़ों पर अफसोस जताते हुए, माधव ज़ोर देकर कहते हैं की 30000 सरकारी पद (वास्तव में 29295) भरे गए हैं पर इसका ज़िक्र करना भूल जाते हैं कि 54710 पद  रिक्त हैं। आश्चर्यजनक रूप से वह दावा करते हैं कि भ्रष्टाचार को समाप्त कर दिया गया है पर भूल जाते हैं कि जम्मू कश्मीर सिलेक्शन बोर्ड ने इंजीनियरों की नियुक्ति प्रक्रिया एक काली सूची वाली कंपनी एप्टेक लिमिटेड को दी थी और जम्मू में कड़े विरोध के बाद करार को रद्द किया गया।

क्या वह जानते हैं कि मंदिरों की ज़मीनें हड़पने के मामलों में प्रशासन के खिलाफ जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय में कई मंदिर न्यासों के मामले लंबित हैं, इनमें एक पारस समूह को अस्पताल बनाने के लिए, दूसरा एक हेलिकॉप्टर कंपनी को श्रद्धालुओं को हिन्दू तीर्थ स्थलों तक ले जाने के लिए ज़मीन लिए जाने का मामला शामिल है? या क्या यह सब भ्रष्टाचार में नहीं आता?

मिश्रा का लेख भी त्रुटियों से भरा पड़ा है। वह आरोप लगाते हैं कि महाराजा हरी सिंह ने भारतीय संघ में शामिल होने का प्रस्ताव जुलाई, अगस्त और सितंबर 1947 में दिया था लेकिन वह यथास्थिति और विलय करारों को लेकर भ्रम में लगते हैं। महाराज पहला विकल्प चाहते थे। पाकिस्तान ने उस पर हस्ताक्षर किए और फिर उसका उल्लंघन किया, भारत ने नहीं किये।

खैर, मिश्रा का यह खुलासा कि कैसे आरएसएस ने अनुच्छेद 370 हटाने को लेकर ज़मीन पर जनमत बनाया- कश्मीर को छोड़कर हर कहीं – यदि सच है तो दिलचस्प है। जो बात उभर कर सामने आती है वह यही है कि कश्मीर के जनमत का कोई महत्व नहीं है और भाजपा की गिनती में कभी नहीं था। वह कहते हैं कि आरएसएस का राष्ट्रीय जनमत-निर्माण मिशन 2016 में शुरू हुआ जब भाजपा और पीडीपी गठबंधन सरकार में थीं। जाहिर है, भाजपा ने अपने सहयोगी दल को इस अभियान के बारे में बताना ज़रूरी नहीं समझा।

कोई भी जो इस सब को नॉर्मल्सी करार दे, जान-बूझ कर अंधा ही होगा। और बहुत ही कठोर भी। सच यही है कि मोदी सरकार के किए मनमाने कानूनी और राजनीतिक बदलावों ने स्थानीय जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है, इसके साथ ही मानवाधिकारों के प्रति असम्मान दर्शाने वाले अनवरत पुलिस अभियानों ने घाटी में और जम्मू की मुस्लिम आबादी में ऐसा भय पैदा किया है कि आम नागरिक बोलने की हिम्मत ही न करे। वास्तव में नॉर्मल्सी के अभाव का इससे बड़ा और क्या संकेत हो सकता है कि लद्दाख, जिसमें लेह ने विशेष दर्जा समाप्त करने और दो केंद्र शासित प्रदेश बनाने का स्वागत किया था, अब कारगिल के साथ मिलकर लेफ्टिनेंट गवर्नर के बजाय चुने हुए प्रशासक की मांग कर रहा है।

माधव कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव समय के साथ होंगे। बेहतर होता कि वह मोदी सरकार को संसद सत्र में लाये जा रहे चार प्रस्तावों, जो आरक्षण से चुनाव को प्रभावित करने की मंशा रखते हैं, को रोकने की सलाह देते। अगस्त, 2019 की कार्यवाहियों को चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है, जैसा कि मिश्रा भी लिखते हैं। शुचिता की यही मांग है कि सरकार अदालत के फैसले तक रुके ताकि विधेयक महीनों के भीतर ही निरस्त न करने पड़ें। पर फिर, जैसा कि मणिपुर में संघर्ष हो, हरियाणा में हिंसा हो या दिल्ली सेवा विधेयक से मिल रहे संकेत, हमारी सरकार करुणा, जवाबदेही और शुचिता से अपना दमन छुड़ा ही चुकी है। जम्मू एवं कश्मीर में भी और बाकी देश में भी नया नॉर्मल यही है।

(लेखिका राधा कुमार जम्मू-कश्मीर और केंद्र के बीच पूर्व वार्ताकार के तौर पर काम कर चुकी हैं। उनका यह लेख इंडियन एक्सप्रेस से साभार लिया गया है।)

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