हमारे देश में राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण तो बहुत पुरानी परिघटना है। इस परिघटना का विकसित रूप है- अपराध का सरकारीकरण और सरकारों का अपराधीकरण। उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा मॉडल है जो नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहा है और जहां फर्जी एनकाउंटर, बुलडोजर और अपराधियों को सरकारी संरक्षण के आगे कानून और संविधान बेबस है। कुख्यात माफिया डॉन और पूर्व सांसद अतीक अहमद व उसके भाई की पुलिस सुरक्षा में हत्या इस परिघटना की ताजा मिसाल है, जिसमें मीडिया का अपराधीकरण होते हुए भी देखा जा सकता है।
अतीक अहमद को गुजरात की साबरमती जेल से प्रयागराज लाने और प्रयागराज से वापस साबरमती ले जाने का खेल तो पहले से ही चल रहा था, जिसमें पहले फर्जी एनकाउंटर जुड़ा और फिर पुलिस की कड़ी सुरक्षा में हत्या की घटना भी जुड़ गई। 20 दिन में दूसरी बार अतीक अहमद को साबरमती से प्रयागराज लाया गया था। पहले मार्च के आखिरी हफ्ते में जब राहुल गांधी को मानहानि के मामले में सजा हुई थी और लोकसभा सचिवालय ने मनमाने तरीके से उनकी लोकसभा की सदस्यता खत्म कर दी थी। उस समय चार दिन तक यह ड्रामा चला था।
पहली बार सड़क के रास्ते 25 घंटे में अतीक अहमद को साबरमती से प्रयागराज ले जाया गया था। पूरे रास्ते दर्जनों न्यूज चैनलों की गाड़ियां पुलिस के काफिले के साथ चलती रही थीं और मिनट टू मिनट रिपोर्टिंग हो रही थी। टीवी चैनलों ने अतीक अहमद के पेशाब करने तक की रिपोर्टिंग की थी। अदालत में पेशी के बाद उसी दिन शाम को फिर अतीक को साबरमती ले जाया गया था। इस पूरे ड्रामे का टेलीविजन के सभी न्यूज चैनलों ने सीधा प्रसारण किया था। मकसद था राहुल गांधी से संबंधित खबरों पर से लोगों का ध्यान हटाना।
फिर 12 अप्रैल को उसे दोबारा साबरमती से प्रयागराज लाया गया। इस बार भी वही ड्रामा हुआ। अतीक अहमद को साबरमती से प्रयागराज ला रही गाड़ी बीच रास्ते में खराब हो गई तो राजस्थान के एक थाने मे अतीक को ढाई घंटे बैठाया गया। टीवी चैनलों ने पल-पल की रिपोर्टिंग की। फर्जी मुठभेड़ के मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास को देखते हुए दिन भर यह कहानी मीडिया में चलती है कि विकास दुबे की तरह अतीक की गाड़ी भी पलट सकती है और उसका भी एनकाउंटर हो सकता है। उस समय अतीक का तो एनकाउंटर नहीं हुआ लेकिन उसके बेटे सहित दो लोगों को उत्तर प्रदेश पुलिस ने एनकाउंटर के नाम पर मार डाला। टीवी चैनलों को दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान हटाने और अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए एक नया ड्रामा मिल गया।
टीवी चैनलों ने पुलिस की बताई कहानी के मुताबिक एनकाउंटर की रिपोर्टिंग तो जश्न मनाने के अंदाज में की ही, साथ ही अतीक अहमद के मारे गए बेटे को दफनाने की रिपोर्टिंग करते हुए यह तक बताया कि उसकी कब्र कितनी फीट गहरी, कितनी लंबी और चौड़ी खोदी गई और उसके जनाजे में कितने और कौन-कौन लोग शामिल हुए। मकसद वही था कि दूसरी महत्वपूर्ण खबरों से लोगों का ध्यान हटाना।
गौरतलब है कि उसी दौरान 12 अप्रैल को पंजाब के बठिंडा में सैन्य ठिकाने पर हुई गोलीबारी की घटना में सेना के चार जवानों की मौत हो गई थी। यह घटना सीधे-सीधे केंद्रीय रक्षा और गृह मंत्रालय से जुड़ी हुई थी। इस बेहद गंभीर घटना को नजरअंदाज कर अतीक अहमद के पेशाब में नहाया हुआ मीडिया उसके बेटे की कब्र में लोट लगा रहा था। यह भी कह सकते हैं कि समूचा टेलीविजन मीडिया ‘अतीक पर्व’ मनाने में मशगूल था।
इस सबके बाद 15 अप्रैल की देर रात को प्रयागराज में पुलिस की सुरक्षा में अतीक और उसके भाई अशरफ अहमद को तीन लोगों ने उस समय गोलियों से भून दिया, जब पुलिस दोनों भाइयों को मेडिकल चेकअप के लिए अस्पताल ले जा रही थी। अतीक और उसके भाई को मारने वाले तीनों व्यक्ति पत्रकार बन कर आए थे। वे किस कदर बेखौफ थे और उन्होंने कितनी आसानी से इस हत्याकांड को अंजाम दिया, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने धार्मिक नारे लगाते हुए अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ अहमद पर गोलियां दागी तो दोनों भाइयों की सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मी वहां से भाग गए।
यह भी कम हैरानी वाली बात नहीं है कि एक ओर जहां अतीक और उसके भाई पर गोलियां चलती देख पुलिसकर्मी उन्हें छोड़ कर डर के मारे दूर हट गए, वहीं दूसरी ओर वहां तैनात टीवी चैनलों के कैमरामैन बेखौफ होकर वारदात का वीडियो बना रहे थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पूरा नाटक उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रायोजित था। फेक एनकाउंटर की घटनाएं न्यायपालिका की आवश्यकता या प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं, लेकिन अतीक हत्याकांड ने तो पुलिस की जरूरत पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है। सवाल है कि सत्ता की शह पर और पुलिस की देखरेख में अपराधी ही अपराधी को सजा देने लगेंगे तो फिर कानून, अदालत और संविधान का क्या होगा?
अतीक हत्याकांड में हत्यारों के पत्रकार बन कर आने में चौंकने या हैरान होने जैसी कोई बात नहीं है, क्योंकि सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभा रहा मीडिया भी सुपारी शूटर की भूमिका निभाने लगा है। फर्क सिर्फ इतना है कि पत्रकार बन कर अतीक और उसके भाई की हत्या करने वालों के हाथों में पिस्तौल थी और सुपारी शूटर पत्रकारों के हाथ में कैमरा या कलम रहती है। पिस्तौल वाले हाथ एक-दो या दस लोगों को मारते हैं, जबकि कलम और कैमरा वाले पूरे समाज को मारने का काम करते हैं।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)