Friday, April 26, 2024

दिसंबर जिस कस्बे के लिए ‘मौत का महीना’ है!  

दिसंबर साल का आखिरी महीना होता है। पूरे वर्ष का लेखा-जोखा इस इस महीने लगभग पूरी दुनिया में किया जाता है। दुनिया भर में मनाया जाने वाला क्रिसमस का त्यौहार भी इसी महीने की 25 तारीख को मनाया जाता है और दिसंबर के दूसरे पखवाड़े में दुनिया भर के सिख शहादत पखवाड़ा मनाते हैं। नए साल की तैयारियां भी इन्हीं दिनों शुरू हो जाती हैं, हो गईं हैं। मीडिया अब दिसंबर की उस तारीख की बात बहुत कम करता है, जो हादसे और दर्द का ऐसा जख्मी पन्ना है-रहती दुनिया तक जिसे भुला पाना असंभव है।

यह तारीख आती है क्रिसमस के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब धूमधाम के साथ मनाए जाने वाले पर्व से महज दो दिन पहले और नववर्ष की तैयारियों तथा उमंगों के बीच, आठ दिन पहले। इन्हीं तारीखों के बीच तवारीख का वह जख्मी अध्याय बाइस साल पूरा खुला था उत्तर भारत के एक छोटे से कस्बे में। इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ कि सिर्फ सात मिनट में कस्बे की एक फ़ीसदी आबादी मौत के मुंह में चली जाए। बीस फ़ीसदी इस तरह जख्मी हो जाए कि ना जिंदा लोगों में गिनी जाए और न मृतकों में। हादसे की यह दास्तान 26 साल पुरानी है। इंसाफ के लिए भटकते फिर रहे लोगों को यह कल की ही बात लगती है।                           

हरियाणा-पंजाब और राजस्थान की सीमाओं से सटा हुआ (हरियाणा प्रदेश का) एक कस्बा है डबवाली। छब्बीस वर्ष पहले इस कस्बे की पहचान इतनी भर थी कि उप प्रधानमंत्री रहे देवीलाल और मुख्यमंत्री रहे ओम प्रकाश चौटाला तथा हरियाणा के मौजूदा उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला का गांव ‘चौटाला’ इसी कस्बे का एक हिस्सा है। पंजाब के कुछ कद्दावर नेताओं के आलीशान फार्म हाउस भी इर्द-गिर्द बने हुए हैं। इस लिहाज से इसे ‘वीवीआईपी’ कस्बा कह सकते हैं। 26 साल पहले इसका अपना कोई उल्लेखनीय इतिहास ऐसा नहीं था जो सियासतदानों की रिहाइशगाहों और उनकी आवाजाही से अलग हो। लेकिन 1995 में डबवाली भयावह इतिहास का ऐसा हिस्सा बन गया जिसकी दूसरी कोई मिसाल समूची दुनिया में नहीं है।      

कुछ शहर और कस्बे महज‌ एक हौलनाक हादसे की वजह से रहती सभ्यता तक ‘मौत का शहर’ कहलाते हैं और कभी न भरने वाले जख्म उसके कोने-अंतरों में स्थायी जगह बनाकर सदैव रिसते रहते हैं। जिला सिरसा का कस्बानुमा शहर डबवाली ऐसा ही है! 23 दिसंबर 1995 में यहां ऐसा अग्निकांड हुआ था, जिसकी दूसरी कोई मिसाल देश-दुनिया में नहीं मिलती।       

इसकी पुख्तगी के लिए यहीं से अंदाजा लगाइए कि इस अति भयावह अग्निकांड में महज सात मिनट में 400 लोग ठौर जिंदा झुलस मरे थे। इनमें 258 बच्चे और 143 महिलाएं थीं। मृतकों की कुल तादाद बाद के सरकारी आंकड़ों में 442 दर्ज की गई और गंभीर घायलों की 152। उस नन्हें से लम्हे में कई परिवार एक साथ जिंदगी से सदा के लिए नाता तोड़ गए थे। मौत की है बरसात 23 दिसंबर, 1995 की दोपहर एक बस कर 40 मिनट पर शुरू हुई थी और सात मिनट में इतनी जिंदगियां स्वाहा करते हुए 1.47 पर बंद हुई थी। डबवाली अग्निकांड की भयावहता का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि देश में सबसे ज्यादा चर्चित दिल्ली के उपहार सिनेमा की आग में 59 लोगों की मौत हुई थी। इंसाफ की जंग वहां भी जारी है और डबवाली में भी। फर्क है तो इतना कि उपहार देश की राजधानी में है और डबवाली तीन प्रदेशों की सीमाओं के बीचों-बीच।      

जिस कस्बे (डबवाली) की एक फ़ीसदी आबादी सिर्फ सात मिनट में तबाह हो गई हो उसकी लगभग हर गली के किसी ना किसी घर में इसके रिश्ते निशान तो होंगे ही, जिनका अपना या दूर का कोई मरा, या जो गंभीर जख्मी होकर जिंदा होने के नाम पर जिंदा हैं, वे उस अग्नि दिन के बारे में बात करने से परहेज करते हैं। उस खौफनाक हादसे को याद करने से ही वे मानसिक तौर पर असंतुलित हो जाते हैं और फिर संभलने में काफी वक्त लगता है। इसकी पुष्टि डबवाली अग्नि पीड़ितों के बीच सक्रिय रहकर काम करते रहे मनोचिकित्सक डॉक्टर विक्रम दहिया भी करते हैं। बावजूद इसके कुछ लोगों से बहाने से बात होती है। रफ्ता-रफ्ता वे अपनी मूल पीड़ा और दरपेश दिक्कतों की अंधेरी कोठरियों में हमें ले जाते हैं।                    

उमेश अग्रवाल डबवाली अग्निकांड के सरकारी तौर पर घोषित 90 प्रतिशत विकलांग हैं। हादसे के वक्त वह नौवीं जमात के विद्यार्थी थे। शेष शरीर के साथ-साथ उनके दोनों हाथ भी पूरी तरह झुलस गए थे। बुनियादी जानकारी के बावजूद वे कंप्यूटर नहीं चला सकते। यहां तक की किसी को पानी तक नहीं पिला सकते। मिले मुआवजे से कब तक गुजारा होगा? भारत सरकार की आयुष्मान सरीखी योजनाओं का फायदा इसलिए नहीं ले सकते कि जले हाथों के फिंगरप्रिंट नहीं आते, जो नियमानुसार जरूरी हैं। इसके लिए वह प्रधानमंत्री और हरियाणा के मुख्यमंत्री सहित पक्ष विपक्ष के कई बड़े नेताओं से अनेक बार मिल चुके हैं। लेकिन नागरिकता कानून से लेकर धारा 370 तक तो बदली जा सकती है पर सरकारी नौकरी देने के नियम-कायदे नहीं!           

अग्नि पीड़िता सुमन कौशल की भी यही व्यथा है। सरकारी निजाम उन्हें पूरी तरह विकलांग और वंचित तो नहीं मानता है लेकिन सरकारी का हकदार भी नहीं। उमेश और सुमन सरीखे बहुतेरे युवा डबवाली में हैं, जो अग्निकांड का शिकार होने के समय बच्चे थे। अब आला तालीमयाफ्ता बेरोजगार हैं। 24 पढ़े-लखे युवा ऐसे हैं जो सौ फ़ीसदी अंगभंग का सरकारी सर्टिफिकेट लिए भटकते फिर रहे हैं लेकिन नौकरियां उनसे कोसों दूर हैं।        

दिसंबर 95 की त्रासदी ने बच गए लोगों को कदम कदम पर विकलांग और कुरूप होने का अमानवीय एहसास कराया है। रिपोर्टिंग के सिलसिले में इस पत्रकार की मुलाकात एक बार एक ऐसी महिला से हुई जिसका चेहरा लगभग पूरी तरह जल गया था और प्लास्टिक सर्जरी उसे सामान्य की सीमा तक भी नहीं ला सकी थी। उनका फोन नंबर मेरे पास था। इस रिपोर्ट को लिखने से पहले मैंने बात की तो उन्होंने बताया कि अभी भी वही आलम है कि बसों में सफर करते हैं तो जले चेहरों की वजह से दूसरी सवारी पास तक नहीं बैठती या बैठने नहीं देती। घृणा और संवेदनहीनता या कहिए कि अमानवीयता का ऐसा सामाजिक प्रदर्शन आहत करता है। यह नंगा सामाजिक सच है जिसकी क्रूरता अकथनीय है।                           

डबवाली अग्निकांड ने बड़े पैमाने पर लोगों को सदा के लिए मनोरोगी बना दिया है। किसी ने अपनी संतान खोई है तो कोई सात मिनट की उस आग में आकस्मिक अनाथ हो गया। किसी की पत्नी चली गई तो किसी का पति। वे 7 मिनट सैकड़ों लोगों के दिलो-दिमाग में 26 साल के बाद आज भी ठहरे हुए हैं। 442 लोग, जिनमें ज्यादातर मासूम बच्चे और महिलाएं थीं, तो जल मरे लेकिन वे सात मिनट हैं कि भस्म होने का नाम ही नहीं लेते।                          

डबवाली अग्निकांड राजीव मैरिज पैलेस में हुआ था। 23 दिसंबर 1995 को यहां डीएवी स्कूल का सालाना कार्यक्रम चल रहा था। हॉल बच्चों, अभिभावकों और मेहमानों से खचाखच भरा था। अचानक वहां आग लग गई और देखते ही देखते 400 लोग तिल-तिल झुलसकर राख हो गए। 42 ने उसी रात या अगले दिन की सुबह दम तोड़ दिया। 150 से ज्यादा घायल हुए जो आठ बड़े मेडिकल कॉलेजों के लंबे इलाज के बाद भी दो से सौ प्रतिशत तक स्थायी रूप से विकलांग हैं। ये सरकार की धूल फांकती सरकारी फाइलों के आंकड़े हैं। गैर सरकारी अनुमान के मुताबिक पीड़ितों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है।                           

डबवाली फायर विक्टिम्स एसोसिएशन के प्रधान विनोद बंसल ने फोन पर बताया कि उस वक्त दाह संस्कार के लिए श्मशान घाटों में जगह कम पड़ गई थी तो खुले खेतों में अंतिम संस्कार किए गए। बमुश्किल मृतकों की शिनाख्त हो पाई। बेहद गहरी विडंबना है कि 23 दिसंबर 1995 के उस मंजर को डबवाली का कोई भी बाशिंदा न तो भूल सकता है और न याद रखना चाहता है। जिन्होंने उस भयावह अग्निकांड को भुगतान या देखा, उनकी हालत आज भी विक्षिप्तों से कम नहीं। मुआवजे और मुनासिब सरकारी इलाज की लड़ाई एकजुट होकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी गई। फिर भी पूरा इंसाफ फिलहाल तक नहीं मिला। हर सरकार और डीएवी प्रबंधन ने बेइंसाफी की हदें पार करते हुए सरासर बेरुखी दिखाई और निर्दयता से दांव-पेंच बरते। सरकारों ने (नाकाफी) मुआवजा दिया और घायलों को एम्स से लेकर पीजीआई तक इलाज करवा कर अपना पल्ला झाड़ लिया।       

अग्निकांड के बाद जो हुआ उसमें राजीव मैरिज पैलेस और दो बिजली कर्मियों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 304 के तहत चला औपचारिक मुकदमा भी शामिल है। जिंदा बच्चों और लोगों की कब्रगाह बने मैरिज पैलेस को अब एक स्मारक में तब्दील कर दिया गया है। वहां मृतकों की तस्वीरें हैं और एक बड़ा पुस्तकालय। स्कूल ने नई इमारत बना ली, जहां हर साल दिसंबर के किसी दिन हवन की रसम अदा की जाती है।                                            

सरकारी तौर पर इस हादसे को शॉट सर्किट से हुआ बताया जाता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज तेज प्रकाश गर्ग के जांच आयोग और छह महीने की सीबीआई जांच के निष्कर्ष यही हैं। अन्य कई विशेष जांच रिपोर्ट भी यही कहती हैं। लेकिन स्थानीय लोग इससे इत्तेफाक नहीं रखते। विनोद बंसल खुद अग्निकांड में घायल हुए थे। वे लगातार तीन बार यहां से पार्षद रह चुके हैं। फोन-वार्ता में बंसल कहते हैं कि यकीनन यह कोई बड़ी साजिश थी जिस पर सरकार ने किसी नीति की वजह से पर्दा डाला। सात मिनट में पूरे परिसर में इस तरह आग फैलने का दूसरा कोई उदाहरण दुनिया भर में नहीं मिलता।                   

एक बड़ा सवाल डबवाली अग्निकांड आज भी यह खड़ा करता है कि इससे सबक क्या लिए? डबवाली अग्निकांड के बाद दिल्ली में उपहार सिनेमा अग्नि कांड व और यह सिलसिला देशभर में झुग्गी-झोपड़ियों में होने वाली अचानक आगजनी तक जारी है। सो जवाब है कि डबवाली अग्निकांड से अब तक किसी ने कोई सबक नहीं लिया। खास तौर से सरकारों ने। क्या यह हमारे देश में ही है कि मासूम बच्चों, औरतों और बूढ़े-बुजुर्गों की दर्दनाक मौतें हमारे लिए सनसनीखेज खबरें तो होती हैं लेकिन कोई सबक कतई नहीं! फिरकापरस्ती और सामुदायिक हिंसा की आग में जलने वाले देश को क्या सैकड़ों मासूमों की जान लेने वाली ऐसी आगों के बारे में सोचने की भी फुर्सत है?                

(वरिष्ठ पत्रकार अमरीक सिंह की रिपोर्ट।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles