bjp shrinking

बेहद कमजोर जमीन पर खड़ी भाजपा की ताक़त

जब नरेंद्र मोदी ने 400 पार का नारा दिया था, तो इसके पीछे दो बड़ी वजहें थीं, एक तो ये कि भाजपा 2024 के चुनाव में, 2019 में हासिल सीटों तक पहुंच पाएगी की नहीं, ये बहस ही खत्म हो जाए, बहस 400 पार पर केंद्रित हो जाए। और दूसरा ये कि मोदी सरकार तो फिर से आएगी ही आएगी, चौतरफ़ा यह स्थापित हो जाए और फिर न केवल पार्टी कार्यकर्ता बल्कि भारतीय मतदाताओं व राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं का बड़ा हिस्सा भी चुनाव के बाद के दौर पर सोचने लगे, या तो हर्ष का अनुभव करे या फिर अभी से डर में जीने लगे। एक हद तक ऐसा ही हुआ भी, बहुत से कार्यकर्ता, जनता का अगुआ हिस्सा व टिप्पणीकार, चुनाव बाद के भारत, संविधान, राज्य मशीनरी, बहुमत की निरंकुशता आदि प्रश्नों पर विमर्श को केंद्रित करते गए। पर यह सब कुछ बहुत देर तक नहीं चल पाया जमीनी सच्चाइयां सामने आने लगी, भारतीय गणतंत्र के हर कोने पर ध्यान जाने लगा,सामाजिक समूहों के बनते बिगड़ते राजनीतिक रिश्ते खंगाले जाने लगे और अब ठीक चुनाव के बीच ऐसा लगने लगा है कि 400 पार का मोदी सरकार द्वारा उछाला गया नारा, एक और जुमला भी साबित हो सकता है, जिस पर विस्तार से बातचीत करने की जरूरत है..

अपने ताकतवर इलाके में चरम बिंदु पर है भाजपा…..

उत्तर भारत में भाजपा लोकसभा सीटों के लिहाज से अपने चरम बिंदु पर पहुंच चुकी है यानि भाजपा, 2019 के अपने प्रदर्शन को दोबारा दोहरा पायेगी कि नहीं, 2024 की भाजपा के लिए यह एक बड़ा सवाल है, इस मसले आप इस तरह से भी समझ सकते हैं कि इस बार भाजपा को केवल विपक्ष से ही नहीं 2019 वाली भाजपा द्वारा प्रस्तुत चुनौती का भी सामना करना पड़ेगा। अगर उत्तर भारत में 2019 के लोकसभा चुनावों में, भाजपा के प्रदर्शन को देंखे तो राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड में तो सभी सीटें भाजपा के पास हैं। साथ ही मध्यप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ और झारखंड और यहां तक कि उत्तरप्रदेश में भी भाजपा लगभग अपने चरम बिंदु के आस-पास है यानि 90 से 95 फीसदी सीटें भाजपा के ही पास है।

लेकिन आज जब 2024 का लोकसभा चुनाव होने जा रहा है तब इनमें से कई प्रदेशों में भौतिक परिस्थितियां बदल गई हैं जो कि भाजपा और उसके सहयोगियों के खिलाफ जातीं हैं, जैसे कि हरियाणा में भाजपा को अपने मुख्यमंत्री को बदलना पड़ा है और एक ओबीसी मुख्यमंत्री को लाना पड़ा है, किसान आंदोलन का दबाव वहां पर बढ़ता ही जा रहा है इसी के चलते सहयोगी पार्टी को सरकार से बाहर आना पड़ा है। दिल्ली में भी माहौल बदला हुआ है आप और कांग्रेस जो 2019 में चिर प्रतिद्वंद्वी के बतौर आमने-सामने थे, जन आकांक्षा के चलते इस बार इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं और पिछली बार सभी सीटें जीती हुई भाजपा, अरविंद केजरीवाल को जेल भेजने के बाद भी डरी हुई है और अपने जीत के प्रति आश्वस्त नहीं है, झारखंड में भी हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद भाजपा की मुश्किल कई गुना बढ़ने जा रही है।

इसी तरह बिहार में नीतीश कुमार भाजपा के साथ चले तो गए हैं पर अब तक के अपने सबसे कमजोर दौर में हैं और ठीक इसके विपरीत तेजस्वी यादव अपनी पार्टी की पुरानी छवि से बाहर निकल कर एक साकारात्मक नेतृत्व के बतौर उभर कर सामने आए हैं, साथ ही वाम दलों के साथ एकता ने गठबन्धन को ज़मीनी आधार भी मुहैया करा दिया है। यहां तक कि गुजरात में भी आम आदमी पार्टी और कांग्रेस की एकता ने भारतीय जनता पार्टी के लिए मुश्किलें बढ़ा दी है। ऐसे में यह साफ-साफ दिख रहा है कि उत्तर भारत में भाजपा 2019 के अपने ही प्रदर्शन से आगे तो बिल्कुल ही नहीं जा रही है बल्कि पिछले प्रदर्शन को दुहरा पाना भी उसके लिए चुनौती बना हुआ है। इसे और ज्यादा स्पष्टता से कहें तो अगर कोई अनहोनी न हुई तो भारतीय जनता पार्टी 2024 के लोकसभा चुनावों में, उत्तर भारत के हर राज्य में अपने चरम बिंदु से,नीचे की ओर लुढ़कने जा रही है और नीचे की यात्रा कहां तक जाएगी, यह समय बताएगा।

बंद होता दक्षिण द्वार व उत्तर पूर्व में बढ़ता संकट…

हिंदू धर्म की सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के लंबे इतिहास के चलते और मानव विकास सूचकांक में वनिस्पत आगे निकल चुके दक्षिण भारत में, सांप्रदायिक तनाव फैलाना हमेशा से ज्यादा मुश्किल काम रहा है, बल्कि कई बार तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति उल्टे परिणाम लेकर आती है। अभी हाल-फिलहाल में ही हम सबने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में देखा जहां भाजपा को उसकी विभाजनकारी राजनीति के चलते भारी खामियाजा भुगतना पड़ा और सत्ता से बाहर होना पड़ा।

दक्षिण में भाजपा, उत्तर की वर्चस्ववादी सोच की प्रतिनिधि पार्टी के बतौर पहचानी जाती है और ऐसा कई बार हुआ है कि जो भी पार्टी भाजपा से गठबंधन करती है वह भी हार जाती है। दिल्ली या उत्तर भारत के वर्चस्व की आशंका की हर दौर में कोई न कोई जमीन रहती आयी है, दक्षिण के ये आरोप तथ्यात्मक रूप से सही है कि दक्षिण अपने सकारात्मक विकास के दम पर जो पैसा दिल्ली को भेजता हैं उसका 30-40 फीसदी हिस्सा ही उसे वापस मिलता है बाकी उत्तर की तरफ भेज दिया जाता है, वहां की ग़रीबी का वास्ता देकर, यानि दक्षिण को अपने सकारात्मक विकास की सज़ा भुगतनी पड़ती है।

उसी तरह जनसंख्या नियंत्रण जैसे सकारात्मक उपलब्धि के लिए भी दक्षिण भारतीय राज्यों को सजा भुगतनी पड़ सकती है, 2026 में होने जा रहे लोकसभा परिसीमन के बाद इस इलाके की लोकसभा की सीटें और घट सकती है, 130 से 110 या 100 हो सकती है और उत्तर भारत की सीटें व ताकत और बढ़ सकती है, इस तरह भारतीय गणतंत्र पर उत्तर का दबदबा और विस्तार ले सकता है।मोदी के नेतृत्व में भाजपा जबसे केंद्र में सत्तारूढ़ है, दक्षिण की इन तमाम असुरक्षा, आशंकाओं को, भाजपा के इतिहास और मोदी की निरंकुश कार्यशैली से और विस्तार मिला है। संघ-भाजपा की हिंदू राष्ट्र की संकल्पना भी दक्षिण को अब और डराने लगी है, और अब उनकी पहचान धीरे-धीर इन इलाकों में उत्तर भारतीय सवर्ण हिंदू मर्दों की पार्टी के बतौर होती जा रही है, और चूंकि अभी मात्र 100 सालों के अंदर ही दक्षिण के कई इलाके जाति के जकड़न और वर्णवादी-ब्रह्मणवादी वर्चस्व को लगभग तोड़कर बाहर निकले हैं, संरचनात्मक दमन की वो सारी यादें अभी भी ताजा है, इसीलिए आप देखेंगे कि स्टालिन द्वारा सनातन की तुलना डेंगू और मलेरिया से कर दिए जाने के बावजूद उन इलाकों में कोई खास नकारात्मक हलचल नहीं दिखी। इन सब वजहों के चलते ही भाजपा दक्षिण में अभी भी हाशिए की पार्टी है, कुल 130 में भाजपा के पास सिर्फ 30 सीटें हैं, उसमें भी 25 सीट कर्नाटक से है जहां अभी-अभी भाजपा विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हारी है। इसका मतलब है 2024 में दक्षिण का द्वार भाजपा के लिए लगभग बंद ही रहना है, और अगर ऐसा होता है तो 400 पार नारा हास्यास्पद जुमले में तब्दील हो सकता है।

ठीक इसी तरह से उत्तर पूर्व में भी भाजपा अभी अपनी कोई जमीन नही तलाश पायी है, अभी भी उस इलाके के ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय दलों के सहारे या इन दलों को तोड़कर, अपने वजूद को बनाए रखना पड़ता है, यह रिश्ता भी स्वाभाविक नहीं है, इन दलों को भी सीमित संसाधनों के चलते अपने राज्यों के लिए केंद्रीय सत्ता के साथ रहना पड़ता है। जम्मु कश्मीर में 370 के खात्मे के बाद पूर्वोत्तर के पूरे इलाके में अपने संरक्षण देने वाले कानूनों के खात्मे का लगातार डर बना हुआ है और अब तो सीएए-एनआरसी जैसे भाजपाई पहल व मणिपुर में सत्ता प्रायोजित हिंसा-नृशंसता के चलते जो तनाव खड़ा हुआ है उसने कुल मिलाकर भाजपा के संकट को पूर्वोत्तर में और बढ़ा देने वाले संकेत दे रहे हैं..

नए सामाजिक समूहों से भाजपा के रिश्ते में पड़ती दरार….

2014 में भाजपा के वोट प्रतिशत में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ और 2019 में तो भाजपा का वोट प्रतिशत लगभग 37-38 फीसदी तक चला गया यानि मोदी काल में भाजपा के वोटों में 14-15 फीसदी का बड़ा इजाफा देखने को मिला है, ये कौन लोग हैं, इसपर जब उत्तर भारत में, आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि इन बढ़े हुए वोटों का बड़ा हिस्सा ओबीसी व दलित जैसे किसान और कारीगर जातियों से आया है, इसे और ठोस ढंग से कहें तो इन्हें नान यादव, नान जाटव ओबीसी-दलित के रूप में आप चिन्हित कर सकते हैं जो भाजपा के साथ, उसके समग्र विचारों से सहमति के साथ नहीं आया है यानि इस समय भी यानि 2024 में भी इन समूहों का भाजपा से रिश्ता सिमित किस्म का है, संक्रमणकालीन है। इस रिश्ते का आधार भी नकारात्मक है यानि संघ-भाजपा की सांगठनिक मशीन को न केवल अपनी बहुत सारी उर्जा, इन समूहों को एंटी मुस्लिम और एंटी यादव-जाटव बनाए रखने में खर्च करनी पड़ती है बल्कि साथ ही इन समूहों को, वर्णवादी संरचना को छेड़े बग़ैर, विराट हिंदू दायरे में समेटे रखने के लिए भी बराबर जद्दोजहद करनी पड़ती है, असल में ऐसे किसी भी दिर्घजीवी रिश्ते के लिए कोई न कोई साकारात्मक आधार होना बेहद जरूरी होता है पर भाजपा आज़ तक कोई भी साकारात्मक आधार नहीं तलाश पायी, नतीजतन इन रिश्तों में दरार साफ़-साफ़ दिखने लगी है, जाति जनगणना के सवाल पर सकारात्मक पहल लेकर इस दरार को बढ़ने से रोका जा सकता था पर संघ-भाजपा ये हिम्मत नहीं कर पायी। इस टिप्पणी को दर्ज किए जाने तक पहले चरण के तहत 100 लोकसभा सीटों पर मतदान हो चुका है, इनमें से जो सीटें भाजपा की जीती हुई है, उन सीटों पर आश्चर्यजनक रूप से पिछले चुनाव के मुकाबले 6 से 7 फीसदी मतदान में कमी आयी है। आप अगर इस तथ्य पर गौर करें तो यह भाजपा से जुड़े नए सामाजिक समूहों के मोहभंग की तरफ़ इशारा है, और अगर यह ट्रेंड अगले चरणों में भी जारी रहा तो मोदी सरकार के लिए संकट बहुत ज्यादा बढ़ने वाला है।

हड़बड़ी में गड़बड़ी करती जा रही है भाजपा…

अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन समारोह के समय को देखते हुए, ढेर सारे राजनीति विज्ञानी, टिप्पणीकार, इसे 2024 के चुनाव के लिए मास्टर स्ट्रोक की तरह ले रहे थे और भाजपा ने भी अपनी समूची ताकत को झोंकते हुए इस आयोजन की लिए जितनी भव्य और विराट तैयारी की थी, इसे देखते हुए लगता भी है कि भाजपा इस पहल को 2024 लोकसभा चुनाव का न केवल केंद्रीय प्रश्न बना देना चाहती थी बल्कि गणतंत्र दिवस समारोह के ठीक पहले इस आयोजन के जरिए, तिरंगे पर भगवा झंडे की बरतरी के अभियान को लंबे काल के हितों के लिहाज से भी हवा देना चाहती थी। पर वो जैसा चाहते थे वैसा नही हुआ, जल्दी ही यह मुद्दा, केंद्रीय मुद्दा नहीं रह गया और सिमित प्रभाव वाले मसले में तब्दील हो गया। फिर यहीं से भाजपा का संकट शुरू हुआ, उसे किसी बड़े केंद्रीय मुद्दे की जगह दर्जनों, वनिस्पत छोटे-छोटे मसले-मुद्दे निर्मित करने पड़े, और इस दौरान हड़बड़ी में ढेर सारी गड़बड़ियां भी होती गई।

जल्द ही हमने देखा इडी सीबीआई आदि को और ज्यादा आक्रामक मोड पर रखना पड़ा, राजनीतिक ख़तरा उठा कर अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन को जेल भेजा गया जो कि दिल्ली और झारखंड में भाजपा के लिए उल्टा दांव भी साबित हो सकता है, बिहार में नीतीश कुमार, जो कि लगभग राजनीतिक रूप से अपने सबसे ख़राब दौर में है, उन्हें फिर से भाजपा द्वारा अपने पाले में लाना, अपनी ही कमज़ोरी को सामने लाने जैसा साबित हुआ। इसी तरह ठीक चुनाव से पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री को बदल कर भाजपा यह संदेश प्रचारित होने से नहीं रोक पायी कि हरियाणा को लेकर वह आश्वस्त नहीं है। ध्रुवीकरण के मक़सद से ठीक इसी दौर में ज्ञानवापी मस्जिद को, लोकल न्यायिक प्रक्रिया के ज़रिए कब्ज़ा करने की कोशिश भी की गई पर मक़सद हल नहीं हो पाया, शांति बनी रही, और फिर जेल में जिस तरह से मुख्तार अंसारी की संदिग्धावस्था में मौत हुई उससे जनता में उल्टे ये बात चली गई कि अन्याय हुआ है, और इस अन्याय के खिलाफ सामाजिक एकता व प्रदर्शन, जनाजे में उमड़ी भीड़ के जरिए लोगों ने देखा भी। उसी तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ मोदी की निर्मित छवि की भी, इलेक्टोरल बांड जैसे मसले और वाशिंग मशीन जैसे जुमले ने, हवा निकाल कर रख दी है। और अब पहले चरण के बाद मिल रहे नकारात्मक संकेतों के चलते, मोदी ने सीधे मुसलमानों को टारगेट करना शुरू कर दिया है जो उनकी हताशा का ही प्रदर्शन है।

अंत में ये कहते हुए कि इस लोकसभा चुनाव में भाजपा की ज्यादातर दांव गलत साबित होते जा रहे है और अब तो ऐसा लग रहा है कि यह लोकसभा चुनाव, भाजपा बनाम विपक्ष से आगे बढ़ते हुए भाजपा बनाम जनता के बीच होने जा रहा है जो कि मोदी सरकार के लिए बिल्कुल ही ठीक नही है…

(मनीष शर्मा का लेख)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments