म्यांमार! यह मुल्क 1948 में आजाद तो हो गया, परंतु इस आजादी को कायम रखने की जद्दोजहद हमेशा बनी रही। आजादी के दशकों गुजर जाने के बाद भी इस मुल्क में लोकतंत्र कभी स्थायी नहीं रहा। कभी लोकशाही तो कभी तनाशाही के बीच म्यांमार ने खुद को हमेशा ढलकता हुआ महसूस किया। म्यांमार की प्रमुख समस्या रही यहां के सैन्य तंत्र की दखलंदाजी। ये किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए अच्छा नहीं कि सेना जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के कार्यों में दखलंदाजी करे, या सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों को अपने अनुरूप परिवर्तित करने के लिए उन पर दबाव बनाए।
उल्लेखनीय है कि म्यांमार में सैन्य तंत्र की शुरुआत 1962 के तख्ता पलट से होती है, जो 1988 तक चलती है। दो वर्षों तक लोकतंत्र कायम रहने के बाद दोबारा सैन्य शासन 1990 से 2010 तक लागू हो जाता है। 1988 से दो वर्षों तक चले लोकतंत्र के शासन का अगर जिक्र करें, तो म्यांमार के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले आंग सान की बेटी “आंग सान सू की” की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेटिक (एनएलडी) ने म्यांमार में हुए आम चुनाव में बहुमत हासिल किया था, परंतु दो वर्षों तक चले लोकतांत्रिक शासन के बाद सैन्य शासन ‘जुंटा’ ने चुनाव के परिणामों में हेर फेर का आरोप लगाकर, दोबारा सैन्य शासन आरोपित कर दिया। इस तख्तापलट के साथ ही सू की को उनके अपने ही आवास में सैन्य अधिकारियों द्वारा नजरबंद कर दिया गया, जिसके चलते वो 20 वर्षों (2010) तक नजरबंद रहीं।
वर्ष 2008 में सत्तारूढ़ जुंटा सैन्य तंत्र ने राज्य शांति और विकास परिषद में लोकतंत्र के लिए खाका तैयार कर नए संविधान की घोषणा की, जिसमें ह्लुटाव (निचला सदन) में सेना के लिए 25% सीटें आरक्षित की गईं। इसमें रक्षा मंत्रालय, सीमा सुरक्षा और गृह मंत्रालय सेना के अधीन होगा। इन नए नियमों के चलते सू की को 2010 में रिहा कर दिया गया। वर्ष 2011 में जब आम चुनाव हुए तो इसमें सैन्य समर्थित पार्टी यूनियन सोलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी की जीत हुई। वर्ष 2015 में जब दूसरा आम चुनाव हुआ तो उसमें सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेटिक ने जीत हासिल की। उनकी पार्टी को 86 फीसद मत मिले। मगर सू वहां की राष्ट्रपति नहीं बन पाईं। इसके पीछे का कारण था, सैन्य शासन द्वारा बनाए गए नियम।
इस नियम में कहा गया था कि कोई भी व्यक्ति जिसका विवाह किसी विदेशी व्यक्ति से हुआ होगा, वो कभी भी म्यांमार का राष्ट्रपति नहीं बन सकता। इस नियम के बनाए जाने पर सेना पर हमेशा ये आरोप लगता रहा है कि सेना ने यह नियम सू की को सत्ता से दूर रखने के लिए बनाया था। इन पांच वर्षों तक चले लोकतांत्रिक शासन में सू की पार्टी पर कई आरोप भी लगे, जिनमें सेना से उनकी नजदीकी और रोहिंग्या मुसलमानों पर हुए नरसंहार के समय उनकी निष्क्रिय भूमिका के भी आरोप लगे।
नवंबर 2020 के आम चुनाव में सू की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेटिक ने 83 प्रतिशत मत हासिल किए। दो महीने तक चले उनके शासन के बाद सेना द्वारा एक फ़रवरी को दोबारा तख्ता पलट कर सैन्य शासन लागू कर दिया गया। जिस म्यांमार में 10 साल पहले लोकतांत्रिक प्रणाली को बहाल किया गया था, एक बार फिर से वही सैन्य शासन लौट आया।
सेना ने सत्ता अपने हाथों में लेते हुए, सू की और म्यांमार के राष्ट्रपति यूवी मिंट समेत कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। सेना द्वार स्टेट टीवी चैनल पर ये घोषणा की गई कि तत्काल प्रभाव से देश में एक साल का आपातकाल लागू किया जा रहा है। सत्ता सेना प्रमुख कमांडर-इन-चीफ़ मिन आंग व्हाइंग के हाथ में रहेगा।
इस आपातकाल के पीछे सेना का तर्क है कि 8 नवंबर 2020 में हुए आम चुनाव में सू की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेटिक ने बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी की है। इस एक साल के आपातकाल के दौरान चुनाव में हुई धोखाधड़ी की जांच की जाएगी, साथ ही चुनाव आयोग में सुधार किया जाएगा। सेना द्वारा ये आश्वासन भी दिया गया है कि इस एक साल के बाद देश में दोबारा चुनाव कराया जाएगा।
यदि हम इस तख्तापलट पर विश्व भर के देशों की प्रतिक्रिया पर नजर डालें, तो म्यांमार के पड़ोसी देश भारत ने इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि हमने पड़ोसी देशों में सत्ता के लोकतांत्रिक ढंग से हस्तांतरण का हमेशा से समर्थन किया है, भारत के सू की के साथ हमेशा काफी अच्छे संबंध रहे हैं। वहीं अमेरिका ने इस सैन्य तख्तापलट और सू की समेत अन्य नेताओं की गिरफ्तारी पर कहा कि यदि म्यांमार में लोकतंत्र को बहाल करने के लिए सही कदम नहीं उठाए गए, तो वह इस पर उचित कार्रवाई करेगा। यहां सवाल ये उठता है कि जो डेमोक्रेटिक पार्टी खुद धोखाधड़ी के आरोप को अब तक झेलती आ रही है क्या उसका म्यांमार के चुनाव में कोई निर्णय लेना कितना सही होगा।
इस तख्तापलट पर चीन ने म्यांमार में सैन्य तख्तापलट पर सभी पक्षों से संविधान और कानूनी ढांचे के तहत गतिरोध दूर करने और देश में राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने का आह्वान किया है। चीन के इस बयान पर गौर करने वाली बात यह है कि चीन जो अपने खुद के देश में लोकतंत्र स्थापित नहीं कर पा रहा है, वो म्यांमार में लोकतंत्र को स्थापित करने में कितना मदद करेगा।
वहीं म्यांमार में हुए इस घटनाक्रम पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने म्यांमार सेना के इस कदम की निंदा करते हुए चिंता व्यक्त की है। ब्रिटेन ने इस तख्तापलट और गिफ्तारी की निंदा करते हुए कहा कि जनता के मतों का आदर किया जाना चाहिए। म्यांमार के पड़ोसी देश बांग्लादेश ने पुनः शांति और स्थिरता बहाल करने की मांग की है, साथ ही उम्मीद जताई है कि ताजा घटनाक्रम से रोहिंग्या प्रत्यर्पण की प्रक्रिया प्रभावित नहीं होगी।
म्यांमार में दोबारा लोकतंत्र कब काबिज होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है, शायद एक साल या फिर शायद उससे भी कहीं अधिक, जिन्होंने पिछली बार म्यांमार के लोकतांत्रिक संघर्ष का समर्थन किया था, क्या वह दोबारा से ऐसा करने में सू की की मदद करेंगे, या कोई हिचक महसूस करेंगे। यह भी सोचने का एक विषय हो सकता है।
उनके समर्थकों का उनसे दूर जाने का प्रमुख कारण यह भी है कि सू की के द्वारा अपनी नीतियों के चलते निराश किया जाना। सत्ता संभालने के बाद सू की ने जिस तरह अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों और सयुंक्त राष्ट्रसभा में रोहिंग्या मुसलमानों के उत्पीड़न पर सेना का बचाव किया, वो काफी निराशाजनक था। यदि वह सेना की नजर में अच्छी बने रहने के लिए ही नरसंहार का समर्थन कर रहीं थीं, तो यह निश्चित रूप से उनके काम नहीं आया। यह स्पष्ट रूप से कहना गलत नहीं होगा कि सू की के हाथ भी रोहिंग्या के खून से रंगे हैं। वो जिस सांप को पाल-पोस कर बड़ा कर रहीं थीं, आज वही उनके विनाश का कारण बन गया है। वर्तमान में म्यांमार में जो घटना हुई है, वो सू की के गलतियों का परिणाम है।
(लेखक उपेंद्र प्रताप आईआईएमसी के छात्र हैं।)
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