Friday, April 19, 2024

जनस्वास्थ्य घोषणापत्र का मसौदा: शिक्षा और स्वास्थ्य सभी के लिये मुफ्त हो!

सभी राजनैतिक दल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी अपने-अपने ढ़ंग से कर रहे हैं। इस बीच हम जनस्वास्थ्य को भी एक चुनावी मुद्दा बनाना चाहते हैं। हमें थोड़ी भी गलतफहमी नहीं है कि इन मुद्दों को चुनाव प्रचार में शामिल कर लिया जायेगा। इसलिये हम जनस्वास्थ्य पर घोषणापत्र का मसौदा जनता के लिये पेश कर रहें हैं। जाहिर है कि जनता ही इसे और समृद्ध बना सकती है। अब हम क्रमवार ढ़ंग से आगे बढ़ेंगे जिससे मामला समझ में आने लगेगा।

प्रस्थान बिंदु

पराधीन भारत में जनस्वास्थ्य पर 1943 में कोचीन के दीवान सर जोसेफ विलियम भोरे समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने 1946 में अपनी रिपोर्ट पेश की। इस समिति ने कहा कि “यदि राष्ट्र के स्वास्थ्य का निर्माण करना है तो स्वास्थ्य कार्यक्रम विकसित किया जाना चाहिये”। इस समिति की सबसे प्रमुख अनुशंसा थी कि पैसा चुकता करने की क्षमता न होने के बावजूद किसी को स्वास्थ्य सेवा से मरहूम न किया जाये। हम इसे ही अपना प्रस्थान बिंदु मानकर अपनी यात्रा शुरू करते हैं। लेकिन हाल ही में कोरोना काल से जो सबक मिला है उसे भी इसमें शामिल किया जाना चाहिये।

पिछले करीब तीन दशकों से संक्रमणकारी रोग कम हुये हैं तथा जीवन शैली के रोग बढ़े हैं। नतीजतन स्वास्थ्य सुविधाओं का विकास भी उसके अनुरूप हुआ है। यह अनायास नहीं था कि जब कोरोना का संक्रमण फैला तो चारों तरफ त्राहि मच गई। अब तैयारी जीवन शैली के रोगों के अलावा संक्रमण की चिकित्सा करने के लिये एक साथ होना चाहिये।

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन सभी स्वास्थ्य सेवायें, चिकित्सक एवं पैरा मेडिकल स्टाफ, स्वास्थ्य चिकित्सा शिक्षा, पैरा मेडिकल शिक्षा, चिकित्सा उपकरण, दवा, वैक्सीन, स्वास्थ्य, चिकित्सा, चिकित्सा उपकरण एवं अस्पतालों में लगने वाली सभी वस्तुओं का उत्पादन तथा वितरण होना चाहिये ताकि स्वास्थ्य से संबंधित निर्णय लेने में देर न हो। सभी राज्यों में भी अपने-अपने स्वास्थ्य मंत्रालय का गठन इसी तरह से हो।

वर्तमान में NPPA, Chemical & Fertilizer Ministry के Pharmaceuticals Dept के पास है। इसी तरह से दवाओं में पेटेंट देने का अधिकार Controller General of Patent के पास है। उसी तरह से दवाओं के आयात-निर्यात किसी दूसरे मंत्रालय के पास है।

वित्त की व्यवस्था

स्वास्थ्य सेवा, अधोसंरचना तथा शिक्षण के लिये धन की व्यवस्था करनी होगी और वित्त की व्यवस्था देश के भीतर से ही करनी पड़ेगी। इसके लिये सुझाव है कि बड़े कार्पोरेट घराने के बैंक से लिये कर्ज को नान-परफार्मिंग-एसेट घोषित न किया जाये तथा उसे वसूला जाये तथा कॉर्पोरेट को टैक्स में छूट देना बंद किया जाना चाहिये।

उल्लेखनीय है कि दिसंबर 2022 को संसद में बताया गया कि पिछले 6 वर्षो में बैंकों के 11.17 लाख करोड़ रुपयों के कर्ज को बट्टे-खाते में डाल दिया गया है। इसी तरह से वित्तमंत्री ने जुलाई 2020 को बताया कि कार्पोरेट टैक्स में छूट देने के कारण सरकार को 1.45 लाख करोड़ रुपयों के राजस्व ही हानि हुई है। इस तरह से स्वास्थ्य के लिये वित्त व्यवस्था करने के लिये राजनैतिक दलों को कॉर्पोरेट का साथ छोड़कर जनता का हाथ थामना होगा तभी जाकर यह संभव होगा।

रोटी-कपड़ा और मकान की व्यवस्था लोग अपनी मेहनत के बल पर हासिल करें। इसके लिये सरकार को रोजगार की व्यवस्था करनी होती है। वहीं शिक्षा तथा स्वास्थ्य सभी के लिये मुफ्त होनी चाहिये। कम से कम जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा तो यही कहती है। शिक्षित और स्वस्थ्य लोग मजबूत देश का निर्माण करते हैं।

जनस्वास्थ्य पर खर्च

हम चाहते हैं कि अन्य विकसित देशों के उदाहरण को देखते हुये भारत में जनस्वास्थ्य पर साल 2027 तक 6 फीसदी हर साल खर्च के स्तर पर पहुंचा दिया जाये। स्वास्थ्य पर जीडीपी के कितने फीसदी का खर्च किया जाता है उसमें केन्द्र-सरकार तथा राज्य सरकारों द्वारा किया जाने वाला खर्च, दोनों मिलाकर गणना की जाती है। स्वास्थ्य संविधान की समवर्ती सूची में आती है। इसलिये यह राज्यों तथा केन्द्र दोनों की जिम्मेदारी है।

बकौल OECD (Organisation for Economic Co-operation and Development या आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) भारत में स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी का 3.6 फीसदी खर्च (निजी+सरकारी) होता है। जिसमें से राज्य एवं केन्द्र सरकार मिलकर 1.29 फीसदी खर्च करती हैं तथा जनता को अपने जेब से 2.31 फीसदी खर्च करना पड़ता है। यह साल 2020 का ही आंकड़ा है। वैसे भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुसार 2025 तक जीडीपी का 2.5 फीसदी स्वास्थ्य सेवा पर सरकारी खर्च का लक्ष्य रखा गया है।

साल 2023-24 के केन्द्रीय बजट में कहा गया है कि स्वास्थ्य पर बजट को जीडीपी के 1.4 फीसदी से बढ़ाकर 2.1 फीसदी किया जा रहा है। हम इसे क्रमशः 3 गुना बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।

यहां पर हम केन्द्र सरकार के एक विभाग द्वारा जारी किये गये रिपोर्ट के आधार पर बताना चाहेंगे कि अस्पताल में भर्ती होने पर देश के बाशिंदे खर्च का जुगाड़ कहां से करते हैं। यह गांवों तथा शहरों दोनों का औसत है। अपनी कमाई तथा बचत से 81.6 फीसदी, 10.95 फीसदी उधार लेते हैं, समान बेचकर 0.4 फीसदी, परिजनों तथा मित्रों से 3.6 फीसदी उधार लेते हैं एवं अन्य स्रोतों से 3.3 फीसदी पैसों का इंतजाम करते हैं। जाहिर है कि बीमार पड़कर अस्पताल में भर्ती होने पर आर्थिक मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।

स्वास्थ्य देखभाल के स्रोत

उल्लेखनीय है कि हमारे देश में बीमार पड़ने पर 51 फीसदी लोग निजी क्षेत्र तथा 45 फीसदी सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र में जाकर चिकित्सा करवाते हैं। इस कारण से रातों-रात स्थिति में परिवर्तन होगा इसे सोचना अराजकता ही मानी जायेगी। इस घोषणापत्र के मसौदे में सरकारी क्षेत्र का विकास करने जहां मुफ्त में चिकित्सा मिले तथा निजी क्षेत्र पर कड़े नियमन लगाकर वहां खर्च कम करना जरूरी है।

दवा नीति

केन्द्र सरकार को दवा नीति में बदलाव लाना पड़ेगा। 1975 के हाथी कमेटी रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियों को नेतृत्वकारी भूमिका देनी होगी। इसके लिये आज सार्वजनिक क्षेत्र के रुग्ण दवा कंपनियों आईडीपीएल, हिन्दुस्थान एंटीबायोटिक, कर्नाटका एंटीबायोटिक जैसी दवा कंपनियों को पुनर्जीवित करके, उनमें निवेश करके उन्हें फिर से चालू करने की जरूरत है। गौरतलब है कि रुग्ण होने के बावजूद भी आईडीपीएल ने गुजरात में जब प्लेग फैला था उस समय एंटीबायोटिक की सप्लाई की गई थी। मुंबई में जब लेप्टोस्पोरेसिस फैला था तब सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनी ने ही दवा सप्लाई की थी।

सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियों से दवा, मेडिकल डिवाइस, मेडिकल इंम्प्लांट तथा वैक्सीन का उत्पादन शुरू करवाना पड़ेगा।

निजी क्षेत्र की देशी तथा विदेशी दवा कंपनियों का पूरा ध्यान मुनाफा कमाने की ओर रहता है। वे सस्ती के बजाये महंगी दवाइयां बनाने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। इसके अलावा जिस दवा को मूल्य नियंत्रण के दायरे में लिया जाता है उसका उत्पादन कम करके दूसरी दवा बनाने लगते हैं। इस कारण से सभी दवाओं को मूल्य नियंत्रण के दायरे में लिया जाये। और सरकारी दवा कंपनियों की उपस्थिति दवा बाजार में सरकारी हस्तक्षेप को बढ़ा देगी।

उदाहरण के तौर पर बीएसएनएल को लें। पहले मोबाइल फोन पर इनकमिंग तथा रोमिंग का चार्ज लगता था। यह बीएसएनएल ही है जिसने सबसे पहले इनकमिंग काल को फ्री किया उसके बाद रोमिंग को भी फ्री कर दिया। मजबूरन अन्य मोबाइल कंपनियों को भी इसका अनुसरण करना पड़ा। इससे जाहिर है कि सरकार के पास बाजार में हस्तक्षेप करने के लिये साधन होना चाहिये और वह है सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां।

आज भी देश के 51 फीसदी लोग निजी क्षेत्र से ही चिकित्सा करवाते हैं इसलिये दवाओं पर कड़ा मूल्य नियंत्रण लागू किया जाना चाहिये ताकि चिकित्सा खर्च को कम किया जा सके। उसी तरह से चिकित्सकों की फीस, जांच की फीस भी पूरे देश में एक समान दर पर लागू किया जाना चाहिये। जब एक देश, एक टैक्स लागू किया जा सकता है तो एक जांच की फीस पूरे देश में एक लागू क्यों नहीं की जा सकती है?

मामला जेनेरिक दवा बनाम ब्रांडेड दवाओं का नहीं है। जीवनरक्षक तथा आवश्यक दवायें उच्च कोटि की तथा सस्ती होनी चाहिये। दवाओं तथा मेडिकल डिवाइस पर कोई टैक्स नहीं लगाना चाहिये। यानी कि जीरो जीएसटी।

स्वास्थ्य अधोसंरचना

दिसंबर 2022 में राज्यसभा में सूचित किया गया कि भारत में चिकित्सक-मरीज का अनुपात विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के मानक 1000 लोगों के लिये 1 चिकित्सक, से बेहतर 834 लोगों के लिये 1 चिकित्सक है। दरअसल, इस आंकड़ें को पेश करते समय 13,08,009 एलोपैथिक चिकित्सक एवं 5.65 लाख अयुष चिकित्सकों को मिला दिया गया था। यदि माना जाये कि एलोपैथिक चिकित्सकों में से 80 फीसदी यानी 10,46,407 कार्यरत हैं तो 124 करोड़ की आबादी के लिये यह 1194 लोगों के लिये 1 चिकित्सक का अनुपात होता है।

वैसे भारत इस वर्ष संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनपीएफ) के अनुसार दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनने जा रहा है। इस लिहाज से चिकित्सक-मरीज का अनुपात और बिगड़ जाता है।

नीट के अनुसार एमबीबीएस की 91,927 सीट, दंत चिकित्सकों की 27,698 सीट तथा आयुष की 50,720 सीट वर्तमान में है। जनस्वास्थ्य पर जीडीपी के खर्च को दो से तीन गुना करने पर इन सीटों की संख्या भी दो से तीन गुना बढ़ाई जा सकती है। हम यहां पर चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करके तथा नये मेडिकल कालेज खोलने की बात कर रहे हैं।

इसी तरह से इंडियन नर्सिंग काउंसिल के आंकड़ों के अनुसार देश में 23,40,501 नर्स तथा मिडवाइफ हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार देश में नर्स-आबादी का अनुपात 1,000 लोगों के लिये 1.96 नर्स का है जबकि विश्व-स्वास्थ्य-संगठन के मानक के अनुसार 1,000 की आबादी पर 3 नर्स होनी चाहिये। इसी कारण से हम स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने की बात कर रहे हैं ताकि नर्सों, लैब टेक्नीशियनों, रेडियोलॉजी के टेक्नीशियनों की संख्या को बढ़ाया जा सके।

जहां तक अस्पतालों में बिस्तर के अनुपात की बात है तो भारत में 10,000 की आबादी के लिये अस्पतालों में 5 बिस्तर हैं। यह आंकड़ा साल 2020 में मानव विकास सूचकांक द्वारा जारी किया गया है। भारत से बेहतर स्थिति तो बांग्लादेश की है जहां पर 10,000 की आबादी के लिये 8 बिस्तर उपलब्ध हैं। इसे आदर्श तो तब माना जायेगा जब 1000 की आबादी के लिये अस्पतालों में 3 बिस्तर उपलब्ध हों। जाहिर है कि इसके लिये सरकार को अपने अस्पतालों में बिस्तर की संख्या में विस्तार करना पड़ेगा।

अस्पताल

जिस तरह से केन्द्र सरकार कई राज्यों में एम्स अस्पताल खोल रही है उसी तर्ज पर राज्यों को हर जिलों में एलोपैथिक तथा आयुष के जिला अस्पताल खोलने चाहिये। जिला अस्पतालों में हृदय रोग, किडनी रोग, न्यूरोलाजी, डायबिटीज तथा श्वसन रोग के सुपर स्पेशलिस्ट चिकित्सकों को नियुक्त किया जाना चाहिये तथा पूरी चिकित्सा मुफ्त में होनी चाहिये। इसके अलावा पैथोलॉजी से लेकर, एक्स-रे, सोनोग्राफी, सीटी स्कैन तथा एमआरआई की जांच इन जिला अस्पतालों में होनी चाहिये।

उसी तरह से आयुष अस्पतालों में आयुर्वेदिक, योग, यूनानी, सिद्धा तथा होम्योपैथिक चिकित्सा की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिये।

चिकित्सा शिक्षा

एमबीबीएस, एमएस, एमडी, डीएम, एमसीएच तथा डेंटल कालेजों में केन्द्रीकृत प्रतियोगिता के आधार पर ही प्रवेश दिया जाये। प्रवेश के लिये सभी प्रकार के डोनेशन पर प्रतिबंध लगा दिया जाये। डोनेशन लेने पर प्रतिभावान छात्र पीछे रह जाते हैं तथा मलाईदार तबके के छात्रों को प्रवेश मिल जाता है। गौरतलब है कि जो 45 लाख और 1 करोड़ तक का डोनेशन देकर उच्च चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करेगा वह सबसे पहले जिस पैसे के बल पर पढ़ाई की है उसे वसूलना चाहेगा जिसका बोझ मरीजों को उठाना पड़ता है।

उपरोक्त मुद्दों के अलावा भी अन्य कई मुद्दों को इस मसौदे में शामिल किया जाना चाहिये। स्वास्थ्य को जब तक चुनावी मुद्दा न बनाया जाये तथा स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को जब तक कई गुना न बढ़ाया जाये तब तक देशवासी स्वस्थ्य नहीं रह सकते हैं। हमें मालूम है कि जनस्वास्थ्य के मुद्दे जनता के हवाले करने के लिये हमने जनस्वास्थ्य पर जनता का घोषणापत्र का जो मसौदा पेश किया है उससे जनता चाहेगी तो जरूर लोकसभा चुनाव में इस मुद्दे को शामिल किया जा सकता है। इसके लिये मरीजों को वोटबैंक बनना पड़ेगा तभी उनकी आवाज सुनाई देगी।

(जेके कर का आलेख)

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Arvind Joshi
Arvind Joshi
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11 months ago

Nice 👍👍

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