वैसे तो कश्मीर तब से ही भारत का अभिन्न अंग है, जब से उसका भारत में विलय हुआ है, लेकिन पांच अगस्त, 2019 के बाद से वह ऐसा और इतना ‘अभिन्न अंग’ हो गया है कि वहां केंद्र सरकार की मर्जी के बगैर भारतीय संसद के सदस्य नहीं जा सकते। जो जाने की कोशिश करते हैं उन्हें श्रीनगर हवाई अड्डे से बाहर नहीं निकलने दिया जाता और वहीं से वापस दिल्ली भेज दिया जाता है। वहां संसद में विपक्ष के नेता और उस सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद भी नहीं जा सकते। उन्हें वहां जाने के अपने अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगानी पड़ती है। सुप्रीम कोर्ट उन्हें जाने की अनुमति भी देता है तो तमाम तरह की शर्तों के साथ। वहां विदेशी पत्रकारों को जाने की तो कतई अनुमति नहीं है। नई दिल्ली स्थिति विभिन्न देशों के राजनयिक भी वहां नहीं जा सकते। लेकिन यूरोपीय देशों में कार्यरत एक स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) की पहल पर यूरोपीय संसद के 27 सदस्यों को भारत सरकार खुशी-खुशी वहां जाने के लिए न्योता दे देती है। लाल कालीन बिछाकर उनका खैरमकदम करती है। सवाल है कि अगर कश्मीर हमारा अंदरुनी मसला है तो यूरोपीय सांसदों को वहां का दौरा क्यों कराया जा रहा है? क्या यह अंदरुनी मामलों में सीधे-सीधे विदेशी दखल को न्योता देना नहीं है?
कहा जा रहा है कि यूरोपीय संसद के सदस्यों का यह दौरा आधिकारिक नहीं है, लेकिन इसके बावजूद वहां जाने से पहले वे सांसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करते हैं। प्रधानमंत्री उन सांसदों को संबोधित भी करते हैं। उनके साथ तस्वीरें भी खिंचवाते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की भी उन सांसदों से मुलाकात होती है। सवाल है कि यह कैसा राष्ट्रवाद है और ‘न्यू इंडिया’ में यह कैसा ‘नया कश्मीर’ है?
केंद्र सरकार ने पांच अगस्त को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे का प्रावधान खत्म कर तथा उसका विभाजन करते हुए केंद्र शासित राज्य बनाने का फैसला किया था। यह फैसला करते हुए सरकार की ओर से कहा गया था कि कश्मीर अब पूरी तरह भारत का हिस्सा बन गया है और वहां के लोगों को वे सभी अधिकार प्राप्त होंगे जो कि देश के अन्य नागरिकों को प्राप्त हैं, लेकिन हकीकत यह है कि सरकार के इस फैसले के बाद से ही जम्मू-कश्मीर खासकर कश्मीर घाटी एक खुली जेल में तब्दील हो गई है। वहां जनजीवन पूरी तरह ठप है। पूरे वातावरण में तनाव, मायूसी और भय छाया हुआ है। ‘कश्मीर की आजादी’ की मांग करने वाले अलगाववादी संगठनों के नेता ही नहीं बल्कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के वे तमाम नेता भी जेल में हैं या अपने घरों पर नजरबंद, जो कश्मीर को भारत ही हिस्सा मानते हैं। भारत के संविधान में आस्था रखते हैं, उसकी शपथ लेकर विभिन्न चुनावों में भाग लेते हैं।
कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने पर जब पाकिस्तान ने तीखी प्रतिक्रिया जताई थी और मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया तो भारत सरकार की ओर से कहा गया कि कश्मीर हमारा अंदरुनी मामला है और इसमें किसी भी बाहरी शक्ति का दखल मंजूर नहीं किया जाएगा। यह और बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के इस रुख को नजरअंदाज करते हुए लगातार इस मसले पर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थ बनने की अपनी हसरत दोहराते रहे, जिसका भारत की ओर से कोई प्रभावी प्रतिकार नहीं किया गया।
बहरहाल, अब तो भारत सरकार के निमंत्रण पर ही यूरोपीय यूनियन के सांसदों का शिष्टमंडल कश्मीर के दो दिवसीय दौरे पर है। इस प्रतिनिधिमंडल की एक विशेषता है कि इसके लगभग सभी सदस्य अपने-अपने देशों के दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों से जुड़े हैं। इन सदस्यों में ज्यादातर पौलेंड और इटली के हैं। प्रतिनिधिमंडल में शामिल कई सदस्य कश्मीर मसले पर पहले ही भारत सरकार के रुख का समर्थन कर चुके हैं। सवाल है कि आखिर इन यूरोपीय सांसदों के कश्मीर दौरे के जरिए भारत सरकार क्या पैगाम देना चाहती है?
दरअसल, भारत सरकार यूरोपीय सांसदों की इस यात्रा के जरिए कश्मीर के जमीनी हालात को सामान्य दिखाने की कोशिश करना चाहती है। प्रतिनिधिमंडल ने कश्मीर जाने से एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक भी की है। इसके बाद आधिकारिक तौर पर कहा गया है कि प्रतिनिधिमंडल को यह दौरा जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को बेहतर तरीके से समझने में मदद करेगा। सवाल है कि क्या सरकार इस प्रतिनिधिमंडल को जेल में बंद नेताओं से मिलने की अनुमति भी देगी और क्या श्रीनगर के डाउन टाऊन तथा सौरा जैसे इलाकों की गलियों में भी घुमाएगी जहां सुरक्षा बलों की ज्यादतियों के चलते लोगों में भय और तनाव व्याप्त है और अभी भी यदा-कदा पत्थरबाजी की घटनाएं होती रहती हैं।
सरकार चाहे जो कहे, दक्षिणपंथी सांसदों का यह दौरा धुर दक्षिणपंथ के ग्लोबल नेटवर्क के विस्तार की कोशिश तो है ही, साथ ही इस दौरे से भारत सरकार ने खुद ही कश्मीर मसले का औपचारिक तौर पर अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया है। अब कश्मीर की जमीनी हकीकत जानने के इच्छुक हर विदेशी सांसद और राजनयिक को यह संकेत मिल गया है कि उसके कश्मीर जाने में भारत सरकार अडंगा नहीं लगाएगी। अब खासकर अमेरिकी सांसद और मानवाधिकार कार्यकर्ता भारत सरकार पर दबाव बनाएंगे कि वह उन्हें भी कश्मीर यात्रा की अनुमति दे। ऐसी मांग को सरकार किस आधार पर खारिज करेगी और सबसे बड़ा सवाल है कि कश्मीर मसले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाने की पाकिस्तानी कोशिशों का अब वह किस मुंह से विरोध करेगी? कहने की आवश्यकता नहीं कि यूरोपीय यूनियन के सांसदों को कश्मीर की यात्रा कराने का फैसला भारत सरकार की लचर कूटनीति का परिचायक बना है, जो आगे चलकर सेल्फ-गोल साबित हो सकता है।