Saturday, April 27, 2024

कांग्रेस के साथ नत्थी होने की जगह जनांदोलन की ताकतों को बनाए रखनी होगी अपनी स्वायत्तता

राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा चुनावी राजनीतिक की दृष्टि से कितनी सफल होगी यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है, पर इस अर्थ में जरूर सफल है कि वह मौजूदा political discourse के केन्द्र में आ गयी है। आज भाजपा-संघ सहित तमाम राजनीतिक दल, ( यहां तक कि संत-महंत ), मीडिया, नागरिक समाज सब उस पर react करने के लिए मजबूर हैं, चाहे जिस भी दृष्टि से करें।

बताया जा रहा है कि मोदी जी ने मंत्रियों से अपने मंत्रालय ही नहीं, उससे इतर सरकार की “उपलब्धियों और कल्याणकारी योजनाओं” पर लगातार प्रेस वार्ता के निर्देश दिए हैं, वे स्वयं G 20 और  “विश्व जोड़ो ” से भारत जोड़ो का मुकाबला करने वाले हैं ! 

मोदी-केंद्रित/ नफरती हिंदुत्व विमर्श को displace करते हुए यात्रा का मीडिया में अच्छा खासा स्पेस कवर करना और राजनीतिक चर्चा के केंद्र में बने रहना अपने आप में सकारात्मक विकास है। इस दृष्टि से भाईचारा और मोहब्बत का पैगाम लेकर जारी यह यात्रा ध्रुवीकरण की राजनीति पर स्वतः ही एक brake का काम कर रही है। यह कुछ-कुछ साल भर चले किसान आंदोलन के प्रभाव जैसा है। 

पिछले 8 सालों से समाज में ऐसा माहौल बना दिया गया है कि सेकुलरिज्म की, इस देश में अल्पसंख्यकों, मुसलमानों की बराबरी और हित की बात करना, यह कहना कि यह देश उनका भी उतना ही है, जितना हिंदुओं का, यहां तक कि आज़ादी की लड़ाई में उनके योगदान की चर्चा करना- यह सब जैसे अपराध होता जा रहा है। आम समाज में भी लोग बचने लगे थे और राजनीतिक नेता तो डरने ही लगे थे। धर्मनिरपेक्षता को निषिद्ध और अछूत बना दिया गया, कुछ-कुछ वैसे ही जैसे एक समय समाजवाद को विमर्श से बाहर किया गया। नफरती प्रोपेगंडा मटेरियल से लैस नफरती गैंग आक्रामक ढंग से आपका मुंह नोचने के लिए  हर जगह तैयार खड़ी है-चाहे वह फिजिकल स्पेस हो-घर, परिवार, कार्यालय, नाते-रिश्तेदार, कालोनी या फिर साइबर स्पेस-सोशल मीडिया हो !

भारत जोड़ो यात्रा में भले ही इसे सीधे politically confront नहीं किया जा रहा है, लेकिन भाईचारे और मोहब्बत के आधार पर भारत जोड़ने की बात संघ-भाजपा के नफरती विमर्श पर चोट तो कर ही रही है। 

इस यात्रा ने संसदीय विपक्ष के सबसे बड़े दल को फासीवादी सत्ता के विरुद्ध पुनर्जीवित और सक्रिय किया है, यह निश्चय ही लोकतन्त्र के हित में है। दूसरे और राजनीतिक घटनाक्रमों तथा जनान्दोलन की संभावनाओं के साथ मिलकर इसने यह उम्मीद जगाई है कि 2024 में फासीवादी निज़ाम के विदाई की संभावनाएँ जिंदा हैं। भय पस्तहिम्मती और निराशा से पैदा होने वाली अवसादजनित  निष्क्रियता से इसने सारी भाजपा विरोधी ताकतों को बाहर निकलने में मदद की है, यह इसकी महत्वपूर्ण सफलता है।

यात्रा ने न सिर्फ कांग्रेस को ऊर्जस्वित किया है, बल्कि सम्पूर्ण विपक्ष को हिम्मत और हौसला दिया है। जाहिर है, राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के चलते विपक्ष के तमाम दल अपने ठोस राजनीतिक फायदे/नुकसान के आकलन के आधार पर इस यात्रा के प्रति अपने response को तय कर रहे हैं और पब्लिक posturing कर रहे हैं, पर हर हाल में उन्हें ऐसी बयानबाजी से बाज आना चाहिए जो भाजपा को किसी तरह भी लाभ पहुंचाए। 

तमाम लोकतान्त्रिक ताकतें जिनकी इस समय सबसे बड़ी चिंता 2024 में भाजपा की विदाई है, वे यात्रा की सफलता की कामना कर रही हैं और उनमें से अनेक लोग यात्रा में शामिल भी हो रहे हैं। फासीवादी सत्ता के खिलाफ हर सकारात्मक प्रयास के प्रति समर्थन उचित है और जरूरी है,

पर सारे लोग यात्रा में शामिल हों ही यह आवश्यक नहीं है, और कुछ मामलों में शायद नुकसानदेह भी है- उदाहरण के लिए किसान आंदोलन के नेता अथवा अन्य जनान्दोलन या वाम-लोकतान्त्रिक ताकतें इसमें साथ चलें और कांग्रेस के साथ अपने को identify करें, यह अवांछित है और शायद नुकसानदेह भी है।

After All, कांग्रेस एक राजनीतिक दल है और वह एक शासकवर्गीय पार्टी के बतौर मूलतः अपने राजनीतिक कार्यक्रम और एजेंडा के आधार पर काम करेगी जो जाहिर है वही नहीं है, न हो सकता है जो वाम-लोकतान्त्रिक परिप्रेक्ष्य से जनता का एजेंडा होगा। मसलन, यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में छत्तीसगढ़ में जल जंगल जमीन पर कारपोरेट कब्जे, आदिवासियों पर दमन और उसके खिलाफ उनके प्रतिरोध का मुद्दा उठेगा, ठीक वैसे ही यह भी अपेक्षा नहीं है कि काले कानूनों की वापसी ( जिनमें से अधिकांश उसने खुद बनाये हैं ), रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने का सवाल, MSP की कानूनी गारंटी का वायदा, नवउदारवादी नीतियों और निजीकरण के roll back का सवाल, सामाजिक न्याय को सुसंगत ढंग से लागू करने या तमाम संस्थाओं के लोकतांत्रिकरण अथवा पड़ोसी देशों के साथ मैत्री और नो वार पैक्ट जैसे सवाल इसमें उठेंगे। इन सवालों के लिए तो किसान-युवा-श्रमिक जनान्दोलन की ताकतों तथा लोकतान्त्रिक-वाम शक्तियों को लड़ना पड़ेगा। 

यह वर्तमान में भविष्य के हितों की चिंता की दृष्टि से ही नहीं बल्कि स्वयं वर्तमान समय के लिए भी शायद बेहतर रणनीति होगी कि किसान आंदोलन समेत जनान्दोलन की ताकतें एवम वाम-लोकतान्त्रिक शक्तियां कांग्रेस से identify होने की बजाय स्वतंत्र प्लेटफार्म से अपने जन-एजेंडा को लोकप्रिय बनाएं और उसे 2024 के लिए common minimum programme का हिस्सा बनाने के लिए कांग्रेस समेत संपूर्ण विपक्ष को बाध्य करें।

इसीलिए यात्रा में राकेश टिकैत के न शामिल होने पर गोदी मीडिया में ” टिकैत ने भी राहुल गांधी को दिया धोखा ” जैसी सनसनीखेज heading या तो नासमझी है या एजेंडा-प्रेरित।

मोदी-शाह की भाजपा से मुकाबले के लिए विभाजनकारी माहौल के खिलाफ एकता, भाईचारे का लोकतान्त्रिक माहौल बनाना जरूरी है, पर वह पर्याप्त नहीं है। जरूरत है कि सौहार्द और सद्भाव की इस नई बनती जमीन पर संघ-भाजपा के विनाशकारी राज के बरक्स जनता के विभिन्न तबकों के ज्वलंत सवालों के ठोस समाधान के आश्वासन के साथ राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का नया स्वप्न जनता के सामने पेश किया जाए।

इसीलिए किसान आंदोलन के नेता इस दौर में अपनी सर्वोत्तम भूमिका किसान- आंदोलन के पुनरुत्थान द्वारा ही निभा सकते हैं, MSP जैसे सवालों पर किसानों को भाजपा के खिलाफ राजनीतिक रूप से खड़ा कर तथा कांग्रेस व विपक्ष को उसे मानने और चुनाव का एजेंडा तथा साझा कार्यक्रम का अंग बनवाकर ही किसान आंदोलन किसानों के हितों की भी सेवा कर सकता है और किसान समुदाय को चुनाव में भाजपा के खिलाफ विपक्ष के साथ खड़ा कर सकता है, न कि कांग्रेस के साथ राजनीतिक रूप से पूरी तरह नत्थी ( identify ) होकर।

ठीक इसी तरह युवाओं को रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने, सभी खाली पदों को समयबद्ध कार्यक्रम के अनुसार भरने के ठोस आश्वासन, ठेका प्रथा के खात्मे, अग्निवीर को रद्द करने, रोजगार मिलने तक जीवन निर्वाह भत्ता, सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के रोजगारोन्मुख विन्यास के लिए अपने स्वायत्त आंदोलन के माध्यम से विपक्ष पर दबाव बनाना होगा। इन सवालों पर ठोस आश्वासन ही व्यापक युवा समुदाय को भाजपा के खिलाफ राजनीतिक तौर पर लामबंद कर सकता है।

यही बात निजीकरण, छंटनी, लेबर कोड के विरुद्ध, OPS के लिए मजदूर कर्मचारी आंदोलन समेत अन्य तबकाई, मुद्दा आधारित आंदोलनों तथा वाम-लोकतान्त्रिक शक्तियों की राजनीतिक पहल पर लागू होती है। 

किसान आंदोलन ने जिस तरह मोदी सरकार के कारपोरेटपरस्त चरित्र का ठोस exposure किया और जनता की संघर्षशील वर्गीय एकता के माध्यम से संघ-भाजपा की विभाजनकारी राजनीति का मुंहतोड़ जवाब दिया, वह एक अनुकरणीय मॉडल है। सच तो यह है कि जनांदोलनों तथा भारत जोड़ो समेत तमाम राजनीतिक अभियानों को उसके आगे जाना होगा और जनकल्याण तथा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के ठोस वैकल्पिक कार्यक्रम के साथ जनता को राजनीतिक विकल्प के लिये खड़ा करना होगा।

(लेखक लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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