Sunday, April 28, 2024

मोदी का अमेरिका दौरा: सरकार ने किया स्वागत तो सड़क रही गर्म

नौ सालों के अपने शासन काल में पहली बार पीएम मोदी को पत्रकारों का सामना करना पड़ा। वह भी विदेशी धरती पर। यह उनका फैसला नहीं बल्कि सामने आयी मजबूरी थी। जिसमें उनको अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन के साथ प्रेस से मुखातिब होना पड़ा। हालांकि लगता है उन्होंने यह सहमति प्रेस कांफ्रेंस स्थल पर टेलीप्रांप्टर लगाने की शर्त के साथ दी थी। विडंबना देखिए जिस बात का डर था पीएम मोदी के सामने वही सवाल आ गया। आप अपने देश में अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं? वहां मानवाधिकार हनन की घटनाएं घट रही हैं। पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया जा रहा है। इसको हल करने के लिए आप क्या करेंगे? पत्रकार ने सवाल पूछ दिया।

सवाल का सटीक जवाब देने की जगह मोदी जी के पास प्रवचन था। जिसे उन्होंने टेलीप्रांप्टर के सहारे पढ़ दिया। और कहा तो यहां तक जा रहा है कि मोदी के बोलने से पहले ही अनुवादक ने हिंदी में दिए गए उनके इस जवाब का अंग्रेजी अनुवाद करना शुरू कर दिया था। यानि कि इस सवाल के न केवल जवाब की बल्कि उसके अनुवाद तक की पहले ही तैयारी कर ली गयी थी। 

लेकिन ये सवाल और उससे जुड़ी घटनाएं मोदी का हर जगह पीछा करती रहीं। मोदी के सम्मान में राष्ट्रपति जो बाइडेन जब चार सौ मेहमानों को डिनर करा रहे थे तो उसी समय ह्वाइट हाउस के गेट पर बारिश में भीगते हुए अमेरिका समेत प्रवासी भारतीयों और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से जुड़े लोग और संगठन हाथों में बैनर लेकर भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभावपूर्ण व्यवहार को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे। प्रदर्शनकारियों की यह आवाज न केवल मेहमानों तक पहुंची होगी बल्कि पीएम मोदी और राष्ट्रपति जो बाइडेन भी इससे अछूते नहीं रहे होंगे।

और आखिर में अमेरिका के लिए यह मसला कितना गंभीर है लेकिन इसके साथ ही वहां की सत्ता की क्या मजबूरियां हैं इसका खुलासा ग्रीस के दौरे पर गए पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कर दिया। वह जिस तरह से इस दौरान खुद को अमेरिका से दूर रखे। और एक अमेरिकी टीवी चैनल सीएनएन को उन्होंने साक्षात्कार के लिए चुना उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सब कुछ सोची समझी रणनीति का हिस्सा था। पत्रकार अमनपोर ने सीधे उनसे सवाल पूछा कि आखिर इस तरह के किसी तानाशाह या फिर लोकतंत्र विरोधी शख्सियत के दौरे पर आप क्या करते? 

इस पर उन्होंने कहा कि निश्चित तौर पर बाइडेन को निजी या फिर सार्वजनिक तौर पर भारत में अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों के बारे में बातचीत करनी चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट किया कि लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता होने के बावजूद कई बार किसी देश को कुछ ऐसे रिश्तों में जाना पड़ता है जो उसके उसूलों के खिलाफ होते हैं। इस नजरिये से उन्होंने इस बात को साफ कर दिया कि अमेरिका लोकतांत्रिक मूल्यों को तरजीह देने की जगह अपने स्वार्थों को सबसे ऊपर रखता है।

ओबामा की सलाह बाइडेन ने कितना मानी होगी यह तो वही जानें। लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि मोदी विदेश में भी अपने वैचारिक एजेंडे से पीछे नहीं हटे। प्रेस कांफ्रेंस के दौरान भले ही विदेश मंत्रालय द्वारा तैयार की गयी स्क्रिप्ट को उन्होंने पढ़ दिया हो और उसमें प्रतिबद्धता जैसी कोई चीज भी नहीं थी। लिहाजा उन्होंने अपने देशी और विदेशी भक्तों को संतुष्ट करने के लिए कांग्रेस के अधिवेशन को संबोधित करते हुए वह बात कह दी जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की होगी। उन्होंने 75 सालों के अमृत काल का जिक्र करते हुए यहां तक कह डाला कि भारत 1000 सालों की गुलामी को तोड़कर यहां तक पहुंचा है।

उनके मुताबिक अंग्रेजों के 200 सालों के शासन के अलावा उसमें मुगलों और दूसरे मुस्लिम शासकों का 800 सालों का शासन भी शामिल है। और यही आरएसएस समेत तमाम दक्षिणपंथी हिंदू संगठनों की वैचारिक स्थिति है। और इस पर उन्होंने हाउस से तालियां भी बजवा लीं। या तो लोग समझ नहीं पाए या फिर मेहमान के सम्मान का तकाजा था। बहरहाल मोदी की इस वैचारिक स्थिति से शायद ही वहां कोई सहमत रहा हो। और अपने इसी वक्तव्य के साथ पीएम मोदी ने प्रेस कांफ्रेंस में दिए गए ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका प्रयास’ के नारे को जुमला भी साबित कर दिया।

इस बात में कोई शक नहीं कि इस पूरे दौरे में बाइडेन से ज्यादा मोदी ने राजनीतिक लाभ हासिल किया। लेकिन उसी के साथ यह भी सबसे बड़ा सच है कि जिस स्तर पर मोदी के दौरे का विरोध हुआ है उसकी किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में मोदी को लेकर भले ही दबी जबान से चीजें चल रही हों। लेकिन इस दौरे में जिस तरह से उनका संगठित विरोध हुआ उससे उनकी शख्सियत एक बार फिर सवालों के घेरे में आ गयी है। ऐसा इसके पहले तब हुआ था जब गुजरात के दंगों के बाद अमेरिका ने उनका वीजा रद्द कर दिया था। और उनकी यात्रा पर पाबंदी लगा दी गयी थी। 

70 से ज्यादा कांग्रेस के सदस्यों ने लिखकर मोदी का विरोध किया। इतना ही नहीं दो कांग्रेस की सदस्यों ने संयुक्त सदनों के उनके भाषण का बायकॉट किया। मोदी को किसी ने क्रिमिनल कहा तो किसी ने पूरब का हिटलर। अमेरिका की सड़कों पर महिला पहलवानों की विरोध करती तस्वीरें विज्ञापन के तौर पर गाड़ियों में घूमती रहीं। मणिपुर के मसले पर मोदी की चुप्पी के खिलाफ उठी आवाजें वाशिंगटन की हवाओं में गूंजती रहीं। प्रेस ने अपने तईं इस विरोध के झंडे को हमेशा बुलंद रखा। वाशिंगटन पोस्ट में बाकायदा एक इश्तहार प्रकाशित हुआ।

जिसमें जेल में बंद गौतम नवलखा और पत्रकार रूपेश कुमार सिंह समेत ऐसे तमाम लोगों की तस्वीरें लगी थीं जो अभी भी मोदीशाही  की सजा काट रहे हैं। ‘भारत में प्रेस की स्वतंत्रता खतरे में’ शीर्षक से दिए गए इस पोस्टर में नीचे लिखा गया था कि “भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन उसके बावजूद यह मीडिया के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों में से एक है। प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरा बढ़ता जा रहा है। पत्रकार शारीरिक हिंसा, उत्पीड़न, फर्जी मुकदमे और सोशल मीडिया पर घृणा अभियान का सामना कर रहे हैं।”

रही बात मोदी के पक्ष में समर्थन की तो जिस रूप में उसे इंडियन डायस्पोरा के तौर पर पेश किया जाता है और सबको एक साथ मिला दिया जाता है वह सच नहीं है। सच्चाई उसके बिल्कुल उलट है। इस बात में कोई शक नहीं कि वहां गुजरातियों और खास कर पटेलों का एक हिस्सा है जो खुल कर मोदी का समर्थन करता है। इसके साथ ही संघ अपने नेटवर्क के जरिये वहां इस काम को करता है। और वाशिंगटन में शहरों के अलग-अलग हिस्सों से आये भक्तों के बीच वितरित किए गए खाने के पैकेट इस तस्वीर को और साफ कर देते हैं। ये घटना बताती है कि उनमें कोई स्वत:स्फूर्त समर्थन नहीं बल्कि सब कुछ प्रायोजित था। क्योंकि इस इंडियन डायस्पोरा में भारतीय अल्पसंख्यक भी आते हैं। 

उसमें दलित भी हैं।और सिख भी उसके हिस्से हैं। भारत के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाले दूसरे सामुदायिक समूहों के लोग भी अमेरिका में रहते हैं। और उन्हें आम तौर पर मोदी के समर्थन में नहीं देखा जाता है। लेकिन मीडिया किसी एक हिस्से के समर्थन को ही सबके समर्थन के तौर पर पेश कर देता है। और इस तरह से एक बिल्कुल आधी-अधूरी तस्वीर को मुकम्मल तस्वीर बना कर पेश कर दिया जाता है। तस्वीर का दूसरा पहलू न तो कोई दिखाने वाला है और न ही उसके लिए कई अतिरिक्त प्रयास किया जाता है।

कहा जा रहा है कि इस दौरे में भारत और अमेरिका के बीच कई टेक्नालाजी और रक्षा क्षेत्र से जुड़े ऐसे समझौते हो गए हैं जिससे दोनों देशों का रिश्ता एक नये मुकाम पर पहुंच जाएगा। इस बात में कोई शक नहीं कि पीएम मोदी और उनकी सरकार ने रक्षा के क्षेत्र अब रूस की जगह अमेरिका को तरजीह देना शुरू कर दिया है। और क्वैड से लेकर नेवी के क्षेत्र में हुए नये समझौते ने उसे अमेरिका के स्ट्रैट्जिक पार्टनर के तौर पर खड़ा कर दिया है। और मामला नाटो के विस्तारित पार्टनर के तौर पर खड़े होने के लिए उसकी जरूरी पृष्ठभूमि बनाने तक पहुंच गया है। 

नेवी के क्षेत्र में नये समझौते के बाद अमेरिका के किसी भी पोत या फिर युद्धक विमान की भारतीय तटों तक पहुंच सुनिश्चित हो जाएगी। क्योंकि इसमें उनके खराब होने पर उनको ठीक करने और पुर्जों को बदलने से लेकर उनके रख-रखाव तक का अधिकार हासिल हो गया है। ऐसे में अगर उनके ये विमान किसी युद्ध में शामिल होते हैं तो एक तरह से यह भारतीय जमीन को अमेरिकी युद्धों के लिए इस्तेमाल करने की अपने तरीके की इजाजत है। जिसको कर पाने की देश की अभी तक किसी सरकार की हिम्मत नहीं पड़ी थी।

जीई और एचएएल के बीच जेटों के इंजन को लेकर हुए समझौते को एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि जीई और एचएएल के बीच रिश्ता चार दशक पुराना है। और जो एक खास इंजन के बनाने की संयुक्त तौर पर बात की जा रही है वह भी कोई नया इंजन नहीं है बल्कि पुरानी टेक्नालाजी पर आधारित है। और उसमें भी भारत को तकनीकी का कापीराइट देने का कोई समझौता नहीं हुआ है।

हां इस दौरे ने भारत के उन लिबरल बुद्धिजीवियों की ज़रूर आंख खोल दी है जो पहले फासीवाद या फिर इस तरह की किसी तानाशाही के खिलाफ मौका पड़ने पर अमेरिका का साथ पाने की उम्मीद करते थे। हालांकि यह भ्रम बहुत पहले ही टूट गया था। जब उसने कभी पाकिस्तान के डिक्टेटर जिया का समर्थन किया था। किसी समय पर उसने सैनिक तानाशाह पिनोसे का साथ दिया। और चिली के लोकप्रिय राष्ट्रपति अलेंदे की हत्या करवायी। फिलीपींस के डिक्टेटर के साथ वह खुलकर खड़ा है। इजरायल की हर सरकार और उसके मुखिया का वह खुला समर्थन करता है भले ही गाजा और इजरायल की सीमा से जुड़ी जमीनें फिलीस्तीनी बच्चों और महिलाओं के खून से लाल रहें।

उसके लिए मानवाधिकार और लोकतंत्र महज अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के हथियार रहे हैं। और ऐसे दौर में जबकि वह अपने जीवन के सबसे संकट के दौर से गुजर रहा है तब उसकी असलियत खुलकर सामने आ रही है। आखिर में बगैर चेतावनी के यह रिपोर्ट पूरी नहीं होगी। एक चीज मोदी और उनके समर्थकों को हमेशा याद रखनी चाहिए कि अमेरिका किसी देश का मित्र नहीं है। और उससे भी आगे बढ़कर जिससे भी उसने मित्रता की उसे बर्बादी का मुंह देखना पड़ा। यह पाकिस्तान से लेकर, इराक और अफगानिस्तान से लेकर तमाम लैटिन अमेरिकी देशों तक सत्य है। इस समय हम अमेरिका की जरूरत हैं। वह बाजार से लेकर चीन के खिलाफ मोर्चे तक पर। रूस के खिलाफ पश्चिमी देशों के साथ मिलकर उसने यूक्रेन को बलि का बकरा बना दिया। चीन के खिलाफ नई बलि के लिए कहीं वह भारत को तो नहीं तैयार कर रहा है?

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)

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