Saturday, April 20, 2024

बजट में हरित मंत्र का जाप, असल मुद्दों की उपेक्षा

इस वर्ष का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ग्रीन शब्द का उल्लेख दो दर्जन बार किया। अनेक क्षेत्रों और गतिविधियों के साथ विशेषण के तौर पर इस शब्द का उल्लेख किया गया जिसमें ऊर्जा, कृषि, आवागमन, भवन, इंधन, रोजगार, हाईड्रोजन आदि शामिल हैं। इसके अलावा जलवायु, जीरो-कार्बन, जैविक, आर्द्रभूमि, जैव-विविधता और पर्यावरण आदि शब्दों का उल्लेख भी हुआ। लेकिन बजट का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि पर्यावरण से जुड़े मुद्दों की घोर उपेक्षा की गई है। कहीं-कहीं तो इसके विपरीत आवंटन हुए हैं।

हरित शब्द के अनेक उल्लेख से स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि क्या सचमुच देश की अर्थ व्यवस्था पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील होने वाली है या फिर यह केवल ग्रीनवाशिंग (हरित होने का छद्म) है। सरकार ने जलवायु व पर्यावरण का हितैषी होने की वैश्विक छवि बनाने के लिए ऐसा किया है, लगता यही है। बजट का विश्लेषण करने पर यह साफ हो जाता है।

सरकार ने प्राकृतिक वनों के विनाश होने पर क्षतिपूर्ति के रूप में कुछ खास किस्म के वृक्षों को लगाने का तरीका अपना रखा है। प्राकृतिक वनों का विनाश खनन, बांध, उद्योग, हाईवे आदि बनाने में होता है। इस तथाकथित क्षतिपूरक वनीकरण का शायद सबसे भद्दा उदाहरण ग्रेट निकोबार के सघन, विविधतापूर्ण प्राकृतिक वनों के बदले हरियाणा के 130 वर्ग किलोमीटर में वृक्षारोपण करना है।

निकोबार में बंदरगाह, हवाईअड्डा समेत शहर बसाया जाना है। पारिस्थितिकी के लिहाज से अज्ञानी व्यक्ति ही सोच सकता है कि निकोबार में नष्ट होने वाली हजारों प्रजाति की वनस्पतियों की क्षतिपूर्ति हरियाणा के सूखे प्रदेश में लगने वाले वृक्षों से हो सकती है। यह तरीका बर्बादी को हरे रंग से ढ़कने जैसा है।

फिर भी बजट में कुछ सकारात्मक संकेत हैं जिसमें एक करोड़ किसानों को जैविक खाद उपलब्ध कराना, मोटे अनाज का ‘वैश्विक केन्द्र’ स्थापित करना, जल जीवन मिशन को विस्तार देकर अधिक वंचित समुदायों तक पानी पहुंचाना, अमृत धरोहर परियोजना में आर्द्रभूमि का संरक्षण, मिष्टी योजना में सुंदरी ( मैग्रोव) वृक्षों का संरक्षण और रोपण, महानगरों में अधिक टिकाऊ विकास और नगरीय पुनर्रुद्धार, कचरा प्रबंधन का मशीनीकरण व मैनहोल्स का मशीनों से सफाई को प्रोत्साहन देना शामिल हैं।

इसके अलावा पर्यावरण के लिहाज से अधिक जागरूक जीवनशैली (लाइफ योजना) को प्रोत्साहित करना, किसानों को अक्षय ऊर्जा से सहायता करना, पर्यावरण संरक्षण कानून में ग्रीन क्रेडिट योजना को समाहित करना, हरित ऊर्जा व हाईड्रोजन को प्रोत्साहित करना, इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन देना, हरित क्षेत्रों में रोजगार के अवसर सृजित करना इत्यादि भी बजट के कुछ सकारात्मक संकेत हैं।

पर वन, पर्यावरण व जलवायु मंत्रालय के बजट में मामूली बढ़ोतरी की गई है। एजेंडा भारी-भरकम है जिसमें अधिकतर का भविष्य कार्यान्वयन के स्तर पर निर्भर करता है। हालांकि थोड़ी भी सतर्कता दिखाई गई तो इनसे किसानों, नगरवासियों व आर्द्रभूमि के आसपास के निवासियों को लाभ हो सकता है।

हालांकि सकारात्मक दिखने वाले प्रस्तावों और आवंटनों के भीतर झांकने पर तस्वीर धुंधली नजर आने लगती है। उदाहरण के लिए ऊर्जा के क्षेत्र के प्रस्ताव जिन्हें जलवायु के मामले में भारत के प्रयासों का आधारस्तंभ कहा गया है, उसमें पारिस्थितिकी व सामाजिक न्याय के गंभीर मसले समाहित हैं। ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव के लिए आवंटित 35 हजार करोड़ रुपए में से अधिकांश तेल व पेट्रोलियम क्षेत्र के लिए आवंटित हैं। इसका पूरा विवरण उपलब्ध नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी ने ग्लासगोव में घोषणा किया था कि भारत 2030 तक समूची अपनी ऊर्जा खपत का पचास प्रतिशत अक्षय ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करेगा। यह सुनने में अच्छा लगता है, पर सरकार का फोकस मेगा-प्रोजेक्टों पर है। किसानों के माध्यम से विकेन्द्रीकृत उत्पादन के लिए आवंटन सकारात्मक है, पर बहुत कम है।

बजट में 20,700 करोड़ रुपए का आवंटन 13 गिगावाट सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए है। इस परियोजना में चांगथांग पठार पर दस हजार हेक्टेयर से अधिक जमीन लगेगी। यह इलाका ऊन-आधारित आजीविका वाले स्थानीय घुमंतू चरवाहों का है। उनके अलावा अनेक विरल व विलुप्त वन्यप्राणि इस क्षेत्र में रहते हैं। इस तरह के मेगा सोलर पार्क या पवन ऊर्जा पार्क देश के अन्य हिस्सों में भी बनाए जाने वाले हैं जिनके नुकसानदेह प्रभावों की आशंका जताई जा रही है।

इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन देने के मामले में तीन समस्याएं हैं। सर्वाधिक जोर निजी वाहनों पर दिया गया है जिसे केवल अमीर लोग रख सकते हैं। बसों और दूसरे सार्वजनिक वाहनों में गैर-जीवाश्म इंधनों के इस्तेमाल पर थोड़ा ही ध्यान दिया गया है। वैसे इलेक्ट्रिक वाहनों को चार्ज करने में इस्तेमाल होने वाली बिजली अधिकांशत: जीवाश्म इंधनों पर निर्भर होती है। यह स्थिति अभी वर्षों तक चलने वाली है।

इलेक्ट्रिक वाहनों को बड़ी मात्रा में लिथियम, कोबाल्ट और अन्य खनिज पदार्थों की जरूरत होती है, जिसके लिए बड़े पैमाने पर खनन होगा। साथ ही बैटरियों के जहरीले कचरे का निपटान धरती, मनुष्य और जीव-जन्तुओं के लिए नुकसानदेह होगा। इस पारिस्थिकीय नुकसान के लिए कोई जिम्मेवार नहीं माना जा सकेगा। ऐसा अभी ही अफ्रीका के कुछ हिस्सों और लैटीन अमेरीका के कुछ हिस्सों में होने लगा है। उन्हें यूरोप व उत्तर अमेरिका में इलेक्ट्रिक वाहनों की बढ़ती मांग का खमियाजा भुगतना पड़ रहा है।

आवागमन में जीवाश्म इंधनों का इस्तेमाल घटाने का वास्तविक विकल्प सार्वजनिक वाहनों का अधिकाधिक इस्तेमाल, साइकिल व पैदल चलना है। लेकिन यह विकल्प सरकार के एजेंडे में कहीं नजर नहीं आता।

भारत को मोटे अनाज का वैश्विक केन्द्र बनाने की घोषणा में थोड़ा समझदारी का फेर है। पिछले वर्ष 2022 के मध्य मोटे अनाज पर राष्ट्रीय सम्मेलन किया गया जिसमें किसानों के बजाय औद्योगिक घरानों की बड़ी मौजूदगी थी। इसमें निर्यात पर उल्लेखनीय जोर दिया गया, मोटे अनाज की पैदावार को बढ़ाने और इसके लिए छोटे व गरीब किसानों प्रोत्साहित करने पर जोर नहीं था।

मोटे अनाजों का नेटवर्क (मिलेट नेटवर्क आफ इंडिया) मांग करता रहा है कि मोटे अनाजों की पैदावार बढ़ाना घरेलू खाद्य सुरक्षा और छोटे व सीमांत किसानों की संप्रभुता के साथ ही गरीब लोगों के हित में जरूरी है। फिर शहरी उपभोक्ता व बाद में निर्यात किया जा सकता है। यह नहीं कहा जा सकता कि वैश्विक केन्द्र बनाने की बात में इसी तरह से प्राथमिकता निर्धारित की गई है।

कार्यान्वयन की समस्याएं दूसरी सकारात्मक घोषणाओं में भी प्रभावी होंगी। उदाहरण के लिए, अमृत धरोहर प्रकल्प में आर्द्रभूमि का संरक्षण व अधिकतम उपयोग किया जाना है। संरक्षण के प्रयास में स्थानीय समुदायों से अधिकतम सहयोग लेने की बात है। लेकिन सरकार का दूसरा हिस्सा वन विभाग स्थानीय समुदायों का सहयोग लेने की बात से ही बिदकता रहता है। वैसे अमृत-धरोहर प्रकल्प के लिए सरकारी आवंटन की रकम किसके पास जाएगी- ग्राम सभा, पंचायत या सरकारी विभाग जैसे वन या सिंचाई विभाग के पास, यह स्पष्ट नहीं है।

बजट में पर्यावरण से जुड़े आवंटन और बाकी बजट में विरोधाभाष भी दिखता है। यह एकतरफ जैविक खाद की सहायता के लिए कुछ रकम आवंटित की गई है, दूसरी ओर रासायनिक खादों पर रियायत देने में बड़ी बढ़ोतरी कर दी गई है। अक्षय ऊर्जा को प्रोत्साहन देने के लिए आवंटन कोयला खनन व ताप विद्युत के लिए आवंटन से कमतर है। पाम आयल के वृक्षारोपण के लिए आवंटन चौंकाता है क्योंकि इससे पर्यावरण की क्षति व सामाजिक प्रभाव दक्षिण पूर्व देशों में देखा गया है।

वन, पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के लिए आवंटन में मामूली बढोतरी, नेशनल हाईवे आथिरिटी के लिए आवंटन के सामने कहीं नहीं ठहरता। यह 50 गुना अधिक है। देश भर के अनेक जन-संगठनों ने हाईवे से पर्यावरण के प्रत्यक्ष नुकसान का मामला समय समय पर उठाया है। खासकर चारधाम परियोजना का तो व्यापक विरोध है क्योंकि यह पर्यावरण के लिहाज से बेहद नाजुक इलाके को प्रभावित कर रहा है। इस नुकसान की कोई भरपाई कभी नहीं हो सकती।

पर्यावरण से जुड़े दो मुद्दे ऐसे हैं जो जनजीवन को अत्यधिक प्रभावित करते हैं, पर उनका बजट में उल्लेख नहीं हुआ है। वे मुद्दे वायु प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन है। इसे सरकार की बड़ी गलती माना जाएगा क्योंकि सरकार जलवायु परिवर्तन से लड़ने के मामले में विश्व नेता बनने का दावा करती है।

वायु प्रदूषण की वजह से हर साल लाखों लोग मारे जाते हैं और जलवायु परिवर्तन की वजह से जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अत्यधिक गर्मी, अनियमित वर्षा, कम समय में अत्यधिक वर्षा, जल उपलब्धता में कमी, जिसमें हिमालय के ग्लेशियरों का तेजी से घटते जाना शामिल है, समुद्र तल बढ़ना, चरम मौसमी घटनाओं का बढ़ना आदि अब हर साल होने लगे हैं।

पर्यावरणविद सौम्य दत्ता कहते हैं कि भारत के दो-तिहाई आबादी पर जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव पड़ा है। जलवायु के साथ अनुकूलता बिठाने के लिए बजट में कोई प्रावधान नहीं किया गया है। यही नहीं, आपदा प्रबंधन व अनुकूलन पर कम ध्यान दिया गया है। कुल मिलाकर पर्यावरण के लिहाज से इस बजट को निराशाजनक ही कहना होगा।   

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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