राहुल गांधी सही थे, जीएसटी सचमुच में गब्बर सिंह टैक्स है!

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अगस्त महीने के मध्य में हिंदुस्तान टाइम्स में एक खबर छपीः ‘आईआईटी दिल्ली शोध अनुदान पर 120 करोड़ रूपये का कारण बताओ नोटिस मिला-रिपोर्ट’। यह नोटिस 2017-22 के बीच शोध अनुदानों पर लगने वाला जीएसटी के संदर्भ में बताया जाता है। खबरों के अनुसार इसमें ब्याज और पेनाल्टी की रकम भी जोड़ दिया गया है।

इस खबर के पखवारे भर पहले 31 जुलाई को 2017-22 के बीच जीएसटी का बकाया रकम वसूली के संदर्भ में इंफोसिस को 32,403 करोड़ रुपये अदा करने की नोटिस जारी किया गया। बाद में इसमें से 3,898 करोड़ रुपये कम करने की खबर आई। इसके बाद 25 अगस्त की खबरों के अनुसार अन्य बाकी के बारे में भी सरकार पुनर्विचार कर रही है।

जुलाई-अगस्त के महीने में इस तरह के नोटिस की खबरें लगातार छप रही थीं। उद्योगों से जुड़ी लॉबी ने तो अपने हितों के संदर्भ में चेतावनी जारी कर कहा कि इससे भारत में निवेश और काम करने के माहौल पर असर पड़ेगा। लेकिन, शिक्षा जैसे क्षेत्र में लगने वाली जीएसटी को लेकर कुछ खास होता हुआ नहीं दिखा।

वर्तमान समय में प्री-स्कूल और प्राथमिक शिक्षा को तो जीएसटी से मुक्त रखा गया है। लेकिन उच्च शिक्षा और प्रोफेशनल कोचिंग पर 18 प्रतिशत की दर से कर लिया जाता है। देश से बाहर जाने वाले छात्रों को भी जीएसटी अदा कर पढ़ाई करनी होती है। शिक्षा के लिए जरूरी कागज आधारित उत्पादों पर 12 और पेन जैसे उत्पादों पर 18 प्रतिशत का जीएसटी है। जीएसटी के पांच स्लैब में 18 प्रतिशत ऊपर से दूसरे नम्बर पर है।

एक किराये का मकान लेने पर उस किराये पर 18 प्रतिशत का जीएसटी है। पीने का पानी जो डिब्बाबंद है, उस पर भी 18 प्रतिशत की जीएसटी है। इसमें टैंकर का पानी भी है जिसे यदि आप अपने लिए या परमार्थ मंगाते हैं तो इतना ही जीएसटी अदा करनी होगी। पानी साफ करने वाले फिल्टर या वाटर प्योरिफायर पर भी यही दर लागू है। यही स्थिति अनाजों और भोजन के संदर्भ में है। जैसे ही वे डिब्बाबंद होंगे, उनकी दर उपरोक्त श्रेणी में आ जाती है।

यहां यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि मजदूरों को कांट्रेक्ट पर रखने और इन संदर्भों में पैसे का कुल लेन-देन भी 18 प्रतिशत कर के दायरे में आता है। कुछ मेडिकल उत्पादों को छोड़कर जिन पर शून्य से लेकर 5 प्रतिशत की दर से कर वसूली की जाती है, अन्य सभी उत्पादों पर 12 प्रतिशत की जीएसटी है। इसी से मिलती जुलती दर दूध के उत्पादों पर है। इस पर 5 प्रतिशत से 12 प्रतिशत की दर लागू है। जीवन बीमा और मेडिकल सुरक्षा के लिए 18 प्रतिशत का जीएसटी है। वहीं घर बनाने के लिए जो हम सीमेंट खरीदते हैं उस पर 28 प्रतिशत का कर दर लागू है।

जीएसटी की यह रोजमर्रा और अनिवार्य जरूरतों पर मार सरकार के कथित कमाई में अभिव्यक्त हो रहा है। अप्रैल, 2024 में 2.10 लाख करोड़ रूपये की कमाई का आंकड़ा सरकार द्वारा बताया गया। यह अप्रैल, 2023 के 1.87 करोड़ से निश्चित ही काफी बड़ा उछाल लिए हुए है। 2023-24 वित्तीय वर्ष में जीएसटी कलेक्शन को देखें तो यह 20.14 लाख करोड़ रूपये का था। इसमें से केंद्र का अकेले का हिस्सा 43,846 करोड़ रूपये है जो राज्यों के कुल से थोड़ा ही कम है।

जीएसटी के कुल योगदान में भले ही महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात सबसे ऊपर हों लेकिन 2023 से 24 के बीच प्रतिशत के हिसाब से बढ़ोत्तरी में सबसे ऊपर मिजोरम 52 प्रतिशत है। असम 29, त्रिपुरा 20, बिहार 23 और उत्तर प्रदेश 19 प्रतिशत की बढ़त दर से जीएसटी में योगदान दिया है। ये राज्य पूंजी निवेश और उत्पादन के हिसाब से बेहद पिछड़े हुए राज्य हैं। इस बढ़त दर को निश्चित ही अन्य आर्थिक गतिविधियों के मद्देनजर ही समझा जा सकता है।

सिद्धांतत: राज्य का अर्थ ही कर वसूली जो निश्चित ही बल प्रयोग का ही एक रूप है। यह बल प्रयोग नैतिक दिखे और समाज के भेदभाव में उसकी स्पष्ट पक्षधरता न दिखे इसके लिए जरूरी है कि वह इस वसूली को इस तरह करे जिससे वह निष्पक्ष दिखे। भारत के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा पन्ना हो जिसमें यह ‘निष्पक्षता’ दिखती हो। लेकिन, पिछले दस सालों में कर वसूली की जो व्यवस्था लागू की गई है वह समाज और उसकी आर्थिक अवस्थिति पर गहरा असर डाल रही है।

हाल ही में गीता गोपीनाथ, जो विश्व बैंक में उप प्रबंधक के पद पर हैं, ने राज्य की आय के लिए दूरगामी कर व्यवस्था को उपयुक्त ठहराया है। वह तात्कालिक वसूल होने वाले, खासकर सेवा क्षेत्रों से की जारी रही कमाई को लेकर आश्वस्त नहीं है। साफ है वह पूंजी निवेश और उससे जुड़े उत्पादों पर कर को निर्भर बनाने की बात कर रही हैं। साथ ही उन्होंने साफ शब्दों में प्रापर्टी टैक्स की बात किया।

अभी हाल ही में, जिसमें गीता गोपीनाथ भी शामिल हैं, कुशल कारीगर के लिए निवेश और कार्य करने की जरूरत पर बल दिया है। जबकि भारत में शिक्षा और कुशलता के लिए काम करने वाले संस्थानों पर जिस तरह का टैक्स लादा गया है, वह कहीं से भी इस योजना के अनुकूल नहीं दिखता है।

मसलन, आईआईटी दिल्ली को जारी किये गये नोटिस का आधार शोध के लिए आये अनुदानों पर मांगा गया कर ही तो था। इस समय देश की प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय इसकी कुलपति के बयानों के आधार पर कहें तो आर्थिक संकट से जूझ रहा है। उन्होंने एक अखबार को बयान देकर कहा है कि आर्थिक संकट से उबरने के लिए हमें इसकी संपत्ति को कुछ हिस्सा बेचना जरूरी हो गया है। इसके खिलाफ इस समय यहां का छात्रों का आंदोलन चल रहा है। हाल ही में, अखबारों में एक छोटी सी खबर छपी जिसमें एमसीडी ने 30 स्कूलों को मर्ज करने की घोषणा किया।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां शिक्षा पर 17 प्रतिशत खर्च करने का बजट पास हुआ है, वहां भी शिक्षा खर्च घटाने के लिए सैकड़ों प्राथमिक स्कूलों को पिछले कई सालों से कथित तौर पर मर्ज करने की प्रक्रिया जारी है। एक रिपोर्ट के अनुसार 2023 तक लगभग 70 हजार प्राथमिक स्कूल अपना अस्तित्व खो चुके थे। मूलभूत उपभोक्ता वस्तुओं पर कर की बाढ़ राज्य की आय को तो बढ़ा सकती है लेकिन यह समाज को उस गरीबी की ओर भी ठेलकर ले जाएगी जहां से समाज में उपयुक्त भागीदारी में आने के लिए बहुस्तरीय बाधाएं आ खड़ी होंगी।

हम जीएसटी के संदर्भ में ज्यादा बातें उन लोगों की सुन रहे हैं जो भारत में पूंजी के साम्राज्य के हिमायती हैं। खुद सरकार में मंत्री नितिन गडकरी ने जीएसटी की दर को ठीक करने के लिए कहा है। विश्व बैंक में काम कर रही गीता गोपीनाथ साफ शब्दों में इस कर वसूली को ठीक करने के लिए मजदूर वर्ग में निवेश बढ़ाने और संपत्तियों पर कर लगाने की बात कर रही हैं।

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन न सिर्फ कर व्यवस्था को, साथ ही वह भारत की आर्थिक संरचना के विकास के पायदानों को ही ठीक करने के लिए लगातार बोल रहे हैं। जाहिर है, इनकी चिंता भारत में पूंजी निवेश और इस व्यवस्था पर देर तक टिके रहने वाली आर्थिक संरचना के विकास को लेकर है। ये आर्थिक सिद्धांतकार इस बात को जानते हैं कि श्रम के अवदान के बिना पूंजी लंबे समय तक काम नहीं कर सकती है।

उपभोक्ता बनाने और उस पर कर वसूली कर चलने वाला राज्य कब डूब जाय, कहा नहीं जा सकता। लेकिन, ऐसे समाज में अस्थिरता एक स्थाई तत्व होता है। जो निश्चित ही किसी समाज और राज्य के लिए खतरनाक है। यह बदलाव इसे किस ओर ले जाएगा, यह फिलहाल बेहद जटिल विषय बना है। लेकिन, कर की वसूली से तकलीफ अब दिखाई देने लगी है जिसके निराकरण के लिए पहले तो बोलना जरूरी है। निश्चित ही आवाज आम जन की ओर से ज़रूर आनी चाहिए।

(अंजनी कुमार पत्रकार और टिप्पणीकार हैं।)

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