हेनरी किसिंजर ने अचानक बीजिंग की यात्रा की। बीजिंग में उनका जैसा स्वागत हुआ, वैसा हाल के वर्षों में किसी अमेरिकी राजनेता या पदाधिकारी का नहीं हुआ था। इस बात से खुद अमेरिका का जो बाइडेन प्रशासन असहज नजर आया। अमेरिका की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रवक्ता जॉन एफ. किर्बी के इस बयान पर गौर कीजिएः ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक निजी नागरिक चीन के रक्षा मंत्री से मिल सकता है और उनसे बातचीत कर सकता है, जबकि अमेरिकी सरकार को ऐसा नहीं करने दिया गया है। यह कुछ ऐसा मामला है, हम जिसका समाधान निकालना चाहते हैं।’
वैसे किर्बी ने कहा कि जो बाइडेन प्रशासन को किसिंजर की यात्रा के बारे में जानकारी थी। साथ ही उन्होंने कहा कि प्रशासन किसिंजर से उनकी यात्रा के बारे में जानना चाहेगा।
उधर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के मीडिया में किसिंजर की यात्रा को एक अलग रंग देने की कोशिश की गई है। मसलन, न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी एक लंबी रिपोर्ट की हेडिंग दी- ‘बाइडेन से हताश होने के बाद चीन किसिंजर जैसे अपने ‘पुराने दोस्तों’ को लुभाने में जुटा’। मगर उसी खबर में बताया गया कि कैसे अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के चीनी रक्षा मंत्री ली शांगफू से सीधी बात के अनुरोध को चीन ने बार-बार ठुकरा दिया है। इस रिपोर्ट में यह जिक्र भी है कि हाल में अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन, वित्त मंत्री जेनेट येलेन और बाइडेन प्रशासन के जलवायु परिवर्तन दूत जॉन केरी ने बीजिंग की यात्रा की। लेकिन उनमें से सिर्फ ब्लिंकेन को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने मुलाकात का अवसर मिला।
इस बीच 100 वर्षीय किसिंजर ‘अपनी निजी यात्रा’ पर बीजिंग आए। वहां उनकी चीन के रक्षा मंत्री ली और चीन के विदेश मंत्रालय के प्रभारी वांग यी के साथ लंबी वार्ता हुई। और उसके बाद दिआयूतई स्टेट गेस्ट हाउस के ठीक उसी विला नंबर-5 में राष्ट्रपति शी ने उनका स्वागत किया, जहां पांच दशक पहले अपनी गोपनीय चीन यात्रा के दौरान किसिंजर की तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाउ एनलाइ के साथ वार्ता हुई थी। उस बातचीत ने अमेरिका-चीन संबंध की दिशा बदल दी थी।
किसिंजर ने अपनी उस यात्रा से तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की चीन यात्रा की जमीन तैयार की थी। वहां से रिश्तों के सुधार की जो परिघटना शुरू हुई, वह साढ़े चार दशक तक लगभग निर्बाध चलती रही। अब जबकि न सिर्फ वह परिघटना ठहर गई है, बल्कि दोनों देशों के रिश्तों में टकराव लगातार बढ़ता जा रहा है। यह इस हद तक पहुंच गया है, जिसमें युद्ध की आशंकाएं गहराती जा रही हैं। इस माहौल में हाल में अपने जीवन के सौ वर्ष पूरे करने वाले किसिंजर ने एक नई पहल की है।
हेनरी किसिंजर राष्ट्रपति निक्सन और जेराल्ड फोर्ड के कार्यकाल में पहले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और फिर विदेश मंत्री रहे। निक्सन का कार्यकाल वह दौर था, जब वियतनाम युद्ध अपने चरम पर था। वहां हुए अत्याचारों के लिए किसिंजर को भी दोषी माना जाता है। इसलिए अक्सर उन पर युद्ध अपराध में शामिल रहने के आरोप भी लगाए गए हैं। लेकिन चीन से संबंध बनाने और अमेरिकी मुद्रा डॉलर का दुनिया में वर्चस्व स्थापित करने की कूटनीति में उन्होंने जो योगदान किया, उससे वे अपने जीवन में ही एक किवंदन्ती बने रहे हैं। उनके इन प्रयासों का सोवियत संघ के विखंडन में योगदान रहा। इसलिए अमेरिकी साम्राज्यवाद की नजर में उन्हें एक अज़ीम शख्सियत समझा जाता रहा है।
जनवरी 1977 के बाद से किसिंजर किसी सरकारी पद पर नहीं रहे हैं। लेकिन कहा जाता है कि जब तक अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान पर neo-cons (neo-conservatives) का पूरा दबदबा नहीं बन गया, हर अमेरिकी प्रशासन में किसिंजर की बातों का प्रभाव रहता था। लेकिन अब उनकी बात नहीं सुनी जाती है, यह चीन के मामले में लगातार आक्रामक होती गई अमेरिकी नीति से स्पष्ट है। किसिंजर चीन के साथ अमेरिका के संबंध को दोनों देशों के फायदे में मानते हैं। साथ ही उनकी समझ है कि अगर इन दोनों देशों में युद्ध हुआ, तो न सिर्फ इन दोनों देशों को भारी नुकसान होगा, बल्कि यह पूरी दुनिया के लिए बेहद खतरनाक घटना होगी।
यह स्पष्ट नहीं है कि किसिंजर खुद अपनी पहल पर चीन गए, या इसके लिए बाइडेन प्रशासन ने उन्हें प्रोत्साहित किया, या जैसाकि न्यूयॉर्क टाइम्स ने कहा है, कि खुद चीन ने उन्हें बुलाया। बहरहाल, चीन में उनका शानदार स्वागत किया गया। शी जिनपिंग ने कहा कि चीन अपने इस ‘पुराने दोस्त के योगदान’ को कभी नहीं भूल पाएगा। उनसे मिलने वाले चीन के हर नेता ने किसिंजर के प्रति अपना आभार जताया। लेकिन वांग यी ने उनसे यह भी दो-टूक कहा कि अमेरिका चीन के उदय को रोकना चाहता है, जबकि यह करना संभव नहीं है।
वांग यी ने संदेश दिया कि किसिंजर जब पहली बार चीन आए थे, उसके बाद से दुनिया का शक्ति-संतुलन बदल चुका है। अगर अमेरिका इस हकीकत से समझौता कर सके, तो फिर दोनों देशों में संबंध सुधार की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। शी जिनपिंग ने किसिंजर के सामने दोनों देशों के संबंध के बारे में अपना पुराना फॉर्मूला दोहराया। यह फॉर्मूला हैः एक दूसरे का सम्मान, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, और win-win cooperation (दोनों पक्षों के लाभ का सहयोग)। यह बात शी जो बाइडेन के सामने भी रखते रहे हैं। जाहिर है, चीन अपने रुख पर अडिग बना हुआ है।
वांग यी ने किसिंजर के सामने चीन के उदय को रोकने की कोशिशों की नाकामी को तय बताया, तो उसकी ठोस परिस्थितियां हैं। इसका संकेत इसी हफ्ते ‘यूरोपियन यूनियन’ (ईयू) की तरफ से ‘कम्युनिटी ऑफ लैटिन अमेरिकन एंड कैरीबियन’ (सीएलएसी) के साथ आयोजित संवाद में जाहिर हुई। सीएलएसी लैटिन अमेरिका और कैरीबियाई सागर में स्थित द्वीपों का संघ है, जिसमें कुल 33 देश शामिल हैं। ईयू को आठ साल बाद याद आया कि वह सीएलएसी के साथ संवाद आयोजित करता था। तो यह संवाद हुआ।
इस संवाद में ईयू को यह अहसास हो गया कि गुजरे वर्षों में समीकरण बदल चुके हैं। ईयू को दो मुद्दों पर मुंह की खानी पड़ी। ईयू ने अमेरिका के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मदुरो की सरकार को मान्यता नहीं दे रखी है। इसलिए वह चाहता था कि मदुरो सरकार के प्रतिनिधि को संवाद में ना बुलाया जाए। लेकिन सीएलएसी इस पर राजी नहीं हुआ। फिर ईयू चाहता था कि इस बैठक में साझा बयान जारी कर यूक्रेन पर हमले के लिए रूस की निंदा की जाए। लेकिन सीएलएसी के देश इसके लिए भी राजी नहीं हुए। उन्होंने युद्ध के लिए एकतरफा तौर पर रूस को दोषी ठहराने से इनकार कर दिया। इसके साथ ही कई देशों ने औपनिवेशिक काल के लिए मुआवजा देने की मांग ईयू के सामने दोहरा दी।
दरअसल, यूक्रेन के युद्ध शुरू होने के बाद गुजरे 17 महीनों में दुनिया दो खेमों में बंट चुकी है। अमेरिका, ईयू, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया जैसे देश एक जगह इकट्ठे हुए हैं। बाकी दुनिया या तो रूस-चीन की धुरी पर इकट्ठी हुई है या उसने किसी का पक्ष लेने से इनकार कर दिया है। इससे पश्चिमी देश भले खुले तौर पर आक्रमकता दिखाते हों, लेकिन वे बचाव की मुद्रा में जाने के लिए मजबूर हैं।
इस दौर ने विकासशील देशों को और अधिक अहसास करा दिया है कि पश्चिम के पास उन्हें देने के लिए कुछ नहीं है। जो बाइडेन ने सत्ता में आने के बाद बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड परियोजना की घोषणा की थी। इसे चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का “बेहतर” विकल्प बताया गया था। साल भर बाद इसका नाम बदल दिया गया। इसका नया नाम ‘पार्टनरशिप फॉर ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इन्वेस्टमेंट’ (पीजीआईआई) है। इसी बीच एशिया प्रशांत क्षेत्र के लिए बाइडेन ने ‘इंडो-पैसिफिक इकॉनमिक फ्रेमवर्क’ का एलान किया। लेकिन इन तमाम परियोजनाओं में जमीन पर क्या हो रहा है, यह शायद ही किसी को मालूम हो।
दरअसल, अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की समस्या उनकी अपनी अर्थव्यवस्था है। जर्मनी जैसे देश को छोड़कर शायद ही किसी अन्य ऐसे देश के पास प्रतिस्पर्धात्मक उत्पादन की आर्थिक क्षमता बची है। अपने अर्थव्यवस्था का वित्तीयकरण (financialization) करने के बाद वे बाकी दुनिया में कोई निर्माण कर सकें, यह फिलहाल उनके लिए मुश्किल बना हुआ है। जबकि चीन और यहां तक कि रूस भी एशिया से लेकर अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक की वास्तविक अर्थव्यवस्था में ठोस योगदान कर रहे हैं।
वांग यी ने किसिंजर के सामने इसी बदली स्थिति का उल्लेख किया। किसिंजर अपने लंबे तजुर्बे से यह बात समझते हैं, जिसे वे अनेक बार कह भी चुके हैं। बताया जाता है कि उनकी यात्रा का मकसद यह था कि वे चीनी नेताओं के मन की बात जान सकें। औपचारिक वार्ताओं में नेता औपचारिक बातें कहते हैं। जबकि किसिंजर ने निजी हैसियत से अनौपचारिक यात्रा की है। अब वे जो निष्कर्ष लेकर लौटे हैं, जाहिर है, अमेरिकी प्रशासन को बताएंगे। लेकिन अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने अपने देश के अंदर जो माहौल बना रखा है, उसके बीच वह अपने बनाए दुश्चक्र से निकल पाएगा, इसकी संभावना फिलहाल कम दिखती है।
बहरहाल, इस बात के साफ संकेत हैं कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में चीन से संबंध के मुद्दे पर दरार पड़ चुकी है। हाई टेक और उपभोक्ता क्षेत्र में कार्यरत कंपनियों और रक्षा उद्योग से जुड़े कारोबारी दो खेमों में बंट गए हैं। इसी बात का संकेत है कि हाल में एलन मस्क, बिल गेट्स, टिम कुक सहित कई बड़े अमेरिकी कारोबारियों ने चीन की यात्रा की है, जहां चीन सरकार के बड़े अधिकारी उनसे मिले हैं। इन कंपनी अधिकारियों ने चीन में नए निवेश की घोषणाएं भी की हैं।
साफ है, हाई टेक और उपभोक्ता कारोबार वाली कंपनियों ने बाइडेन प्रशासन की चीन से पूर्ण संबंध विच्छेद (decoupling) की नीति को मानने से इनकार कर दिया है। जबकि रक्षा उद्योग की कंपनियां और उनसे प्रेरित मीडिया लगातार युद्ध का माहौल गरमाने की कोशिश में लगी हुई हैं। इन दो तरह के दबावों के बीच अमेरिका आखिरकार पूर्ण संबंध विच्छेद (decoupling) के बजाय de-risking (कुछ गिने-चुने क्षेत्रों में संबंध विच्छेद) की नीति अपनाने को मजबूर हुआ है। लेकिन चीन ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया है।
हेनरी किसिंजर को यही संदेश चीनी नेताओं ने दिया है। उन्होंने कहा है कि वे अमेरिका से बेहतर रिश्ते चाहते हैं, लेकिन ऐसा परस्पर सम्मान और परस्पर लाभ के रुख के साथ ही हो सकता है। इस रूप में किसिंजर के पास बाइडेन प्रशासन को बताने के लिए संभवतः कुछ नया नहीं होगा। इसके बावजूद उन्होंने संबंधों के तार जोड़ने की एक सकारात्मक कोशिश की है। यह एक तरह से इतिहास को पुनर्जीवित करने का प्रयास है। जबकि बाइडेन प्रशासन के सामने चुनौती रक्षा उद्योग के दबाव को दरकिनार करने और चीन के उदय से बनी नई परिस्थितियों के मुताबिक खुद को ढालने की है। एक लाचार प्रशासन के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)