Friday, April 26, 2024

पश्चिमी देशों की जकड़बंदी में धीरे-धीरे फंस रहा भारत?

भारत लगातार पश्चिमी देशों के पाले में जा रहा है। लेकिन रक्षा, उर्जा और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों सहित किफायती आधारभूत जरुरतों के लिए उसकी निर्भरता अभी भी रूस और चीन पर बनी हुई है। दिल कहीं है और दिमाग अभी भी कह रहा है कि फायदा तो रूस-चीन के साथ है। ऐसे में पश्चिमी देशों की ओर से चार्मिंग डिप्लोमेसी की नई-नई बानगी लगातार देखने को मिल रही है।

हाल ही में जी-20 में विभिन्न देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान रायसीना डायलॉग 2023 भी चल रहा था, जिसमें कई विदेशी मेहमान शिरकत कर रहे थे। इसी क्रम में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने भी विभिन्न अवसरों पर पत्रकारों के साथ अपनी बातचीत में भारत को लेकर कई सकारात्मक टिप्पणियां की थीं, जिसको लेकर भारतीय मीडिया में अभी तक खुशनुमा माहौल बना हुआ है। भाजपा के द्वारा भी टोनी ब्लेयर की भारत को ग्लोबल साउथ का नेतृत्वकारी देश बनने की उपाधि से गदगद भक्त मण्डली इसे व्हाट्सअप ग्रुपों में वायरल कर रही है।

यहां पर ध्यान देने की बात है कि हाल ही में बीबीसी की मोदी पर बनाई गई दो डॉक्यूमेंटरी को भारत में प्रतिबंधित करना पड़ा। इसके कुछ ही दिनों के भीतर अडानी समूह पर अमेरिका की शार्ट सेलिंग फर्म हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने भारतीय बाजार को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया है और अडानी समूह को दुनिया की तीसरी सबसे धनवान कंपनी से 30वें स्थान पर धकेल दिया है। आज अडानी समूह लगातार अपने स्टॉक को गिरवी रखकर अपनी देनदारियों को चुकाने में व्यस्त है और भविष्य की सभी परियोजनाओं पर फिलहाल पूरी तरह से ब्रेक लग चुका है।

ऐसे में टोनी ब्लेयर की सकारात्मक टिप्पणी मोदी के समर्थकों के लिए जैसे ताज़ी हवा का झोंका साबित हो रही है। फर्स्टपोस्ट की मैनेजिंग एडिटर पलकी शर्मा को दिए अपने इंटरव्यू में टोनी ब्लेयर ने कहा, “एक नए युग का सूत्रपात हो रहा है, जिसमें भारत खुद को ग्लोबल साउथ का नेतृत्व करने की भूमिका में पा रहा है।”

इतना ही नहीं उन्होंने अपनी बातचीत में भारत की भू-राजनैतिक उत्थान और लगातार बदलती अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में इसके महत्वपूर्ण भूमिका को भी रेखांकित किया। उन्होंने शक्ति संतुलन के पश्चिम से पूर्व की ओर खिसकने की बात को नकारते हुए बताया कि असल में दुनिया में पावर को साझाकरण हो रहा है। यह सही है कि दुनिया अमेरिका और चीन के बीच में ध्रुवीकृत हो रही है, लेकिन भारत के अंदर वह संभावना है जो इसे ग्लोबल साउथ का नेतृत्व करने के लिए सबसे सटीक रूप से रेखांकित करती है।

वहीं देखें तो इस बार जी 20 की अध्यक्षता कर रहे भारत को एक नई स्थिति से दो-चार होना पड़ रहा है। जी-20 देशों में जहां एक तरफ अमेरिकी नेतृत्व के तहत पश्चिमी देशों और नाटो सदस्यों का जी-7 का जमावड़ा है, वहीं दूसरी तरफ चीन की वैश्विक भू-राजनैतिक में बढ़ती दावेदारी और जी-20 में चीन सहित रूस के विपक्षी खेमे में मौजूदगी ने भारत, ब्राजील, इंडोनेशिया जैसे देशों के लिए एक विलक्षण मौके को जन्म दे दिया है।

यूक्रेन-रूस संघर्ष को जहां एक साल से ऊपर हो चुके हैं, और पश्चिमी देशों के रूस के खिलाफ लगाये गये तमाम आर्थिक प्रतिबंधों के बावजूद रूस की स्थिति पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। इसके उलट चीन-रूस अक्सिक्स पर एक नया समीकरण बनता जा रहा है। डॉलर की बादशाहत को चुनौती देते हुए रूस ने युआन और दिरहम मुद्रा के जरिये विदेशी व्यापार को बढ़ाने की मुहिम को अमली जामा पहनना शुरू कर दिया है। वहीं परम्परागत रूप से सऊदी अरब और ईरान के बीच की कट्टर दुश्मनी को किनारे पर लगाते हुए चीन की मध्यस्थता में बैठक हुई है। यह आने वाले समय में अरब देशों के बीच में सुलह और चीन-रूस पर बढ़ती निर्भरता का स्पष्ट संकेत है।

वैसे भी अमेरिका को अब 70 के दशक की तुलना में अरब देशों से तेल पर निर्भरता की जरुरत खत्म हो गई है, उसके पास अब घरेलू खपत के लिए पर्याप्त तेल का जखीरा है। इतना ही नहीं यूक्रेन-रूस संघर्ष के दौरान उसने बड़ी मात्रा में यूरोपीय देशों को अमेरिका से गैस की अबाध आपूर्ति भी मुहैया कराई थी। इस प्रकार रूस पर यूरोपीय संघ की उर्जा निर्भरता अब लगभग खत्म हो चुकी है।

इस बदले समीकरण में भारत ने बड़ी सावधानी बरतते हुए पश्चिमी देशों और रूस के साथ अपने आर्थिक हितों को साधकर बनाये रखने में सफलता प्राप्त की है। रूस से तेल के आयात के मामले में चीन के बाद भारत सबसे बड़ा साझीदार रहा है। पिछले वर्ष जब दुनिया में तेल की कीमतें 120 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थी, भारत के निजी कॉर्पोरेट ने रूस से जमकर तेल की खरीदारी की थी। कई दफा तो यह भी देखने को मिला कि यह आयात भारतीय तटों पर आये बिना ही यूरोपीय देशों को अच्छे दामों पर बेच दिया गया। जिसके चलते बाद के महीनों में भारत सरकार को तेल के आयात पर कराधान भी लगाना पड़ा था।

लेकिन नाटो समूह सिर्फ रूस को ठिकाने लगाने के लिए यूक्रेन-रूस संघर्ष को हवा नहीं दे रहा है। असल में यह तो एक तरह से फाइनल शोडाउन से पहले की अपनी तैयारियों का लेखा-जोखा मात्र है। असल ग्रेट गेम तो एशिया क्षेत्र में खेला जाना है, जहां चीन एक महाशक्ति बनकर उभरा है, और इसने पिछले एक दशक से अपनी आर्थिक, सामरिक और भू-राजनैतिक शक्ति को असीमित आकार दे दिया है। हाल के विश्लेषणों से तो अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि चीन जिसे तकनीक के मामले में अमेरिका और जर्मनी से दोयम दर्जे का मन जाता था, ने कथित तौर पर आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस और 5 जी के क्षेत्र में इन देशों से रणनीतिक रूप से बढ़त बना ली है। यदि जल्द ही चीन को न रोका गया, तो अनुमान है कि 2030 तक वह स्पष्ट रूप से अमेरिका को पछाड़ देगा।

आज चीन 130 देशों के साथ सबसे बड़ा व्यापारिक देश बन चुका है। बेल्ट एंड रोड इनिसिएटिव के तहत चीन आज एशिया, यूरोप और अफ्रीका के साथ सीधे तौर पर जुड़ चुका है। चीन का रेलवे नेटवर्क और बंदरगाह आज जर्मनी तक सीधे तौर पर स्थापित है। यूरोप के कई देशों में उसके अपने बन्दरगाह हैं। यूरोपीय देशों के शासक भले ही चीन को आगे न बढ़ने देना चाहते हों, लेकिन वहां के पूंजीपतियों और व्यापारियों के लिए चीन अधिकाधिक मुनाफा कमाने की कुंजी है। चीन का विशाल मध्य वर्ग हाल ही में कोविड-19 में ढील दिए जाने पर लाखों की संख्या में यूरोप की यात्रा पर था, तो यूरोप में उनका पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत किया जा रहा था। कई कंपनियों के शेयर अचानक से बढ़त बनाते दिखे।

वहीं भारत में जी-20 की बैठक के समाप्त होने के साथ ही ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री की भारत की चार दिवसीय यात्रा को भी ध्यान में रखना होगा। अमेरिकी पहल पर गठित क्वाड समूह के देशों में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत शामिल हैं। पिछले सप्ताह ही शुक्रवार को भारत की ओर से आधिकारिक बयान में जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की भारत यात्रा की घोषणा की गई है। यह यात्रा मार्च 20-21 को होनी तय हुई है। अमेरिकी मंत्री की भारत यात्रा की चर्चा पहले ही भारतीय समाचार पत्रों में सुर्ख़ियों में रही है।

गौरतलब है कि भारत ने अमेरिका के साथ चार यूएस मिलिट्री फाउंडेशन समझौते पर दस्तखत कर दिए हैं। इसमें से एक पर वाजपेयी सरकार ने दस्तखत किये थे और शेष तीन पर मोदी सरकार ट्रम्प सरकार के दौरान अपनी मुहर लगा दी थी। इसके साथ ही भारत अब इंडो-अमेरिकन डिफेंस नेटवर्क का हिस्सा बन चुका है, जिसे हिन्द-प्रशांत कमांड के द्वारा नियंत्रित किया जाना है। इसमें ज्वॉइंट पेट्रोलिंग के साथ-साथ संयुक्त संघर्ष भी शामिल है। यही वह कमजोर कड़ी है, जिसे चीन किसी भी कीमत पर अमेरिकी नियंत्रण में नहीं आने देना चाहता। चीन का तकरीबन 3 ट्रिलियन डॉलर का वार्षिक कारोबार इसी रूट से होकर गुजरता है। अमेरिका ने भारत को सुरक्षा नेटवर्क में शामिल कर एक तरह से चीन के सामने खड़ा कर दिया है। वहीं ऑस्ट्रेलिया और जापान भी एक बड़ा घेरा बनाते हैं।

इस बारे में रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यदि चीन के व्यापार को चोक कर दिया गया तो यह उसके लिए सबसे बड़ा खतरा है, जैसा कि यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की कवायद रूस के लिए अस्तित्व का खतरा बन गया था।

जाहिर है सात समन्दर पार बैठकर अमेरिका के लिए कोई मुफ्त में अपना सिर कटने के लिए आगे बढाये तो उसके लिए इससे बेहतर क्या हो सकता है। ब्रिटेन को यदि कोई अमेरिकी भू-राजनीति से अलग समझता है तो यह उसकी भारी भूल है। टोनी ब्लेयर वही शख्स हैं, जिन्होंने 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले में बढ़ चढ़कर भूमिका निभाई थी और सद्दाम हुसैन के बारे में रासायनिक हथियार के निर्माण की झूठी अफवाह को हवा दी थी। इसी के चलते उन्हें 2007 में अपनी गिरती अप्रूवल रेटिंग के कारण इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था। फेक खबर चलाकर किसी देश को नेस्तनाबूद करने की यह मिसाल शायद ही दूसरी देखने को मिले। आज वही टोनी ब्लेयर यदि भारत को ग्लोबल साउथ के भावी नेतृत्व के रूप में नवाज रहे हैं, तो इसे बेहद सावधानी से परखने की आवश्यकता है।

अमेरिका और ब्रिटेन को विश्व में अपने एकछत्र राज को बनाये रखने के लिए यूक्रेन जैसे ही एक प्यादे की तलाश पिछले कई वर्षों से दक्षिण एशिया में थी। क्या टोनी ब्लेयर की मीठी-मीठी बातों से भारत को संतुष्ट हो जाना चाहिए, या अपनी स्वतंत्र गुटनिरपेक्ष नीति पर बने रहकर विश्व में 50 से लेकर 80 के दशक तक जो सम्मान हासिल था, की नीति को फिर से मुखर करने की आज जरुरत है।

(रविंद्र पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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