पॉकेट वीटो का मामला कैसे है संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरा

वर्तमान राज्य हर प्रकार के हथकंडे अपनाते हुए किसी भी प्रकार से लोगों की आवाज को, अलग अलग क्षेत्रों की आवाज़ों को कुचल देना चाह रहा है, शांत कर देना चाह रहा है। पॉकेट वीटो का मामला फिर से सुर्खियों में तब आ गया जब बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट 2 रिट पिटिशन पर सुनवाई करते हुए तमिलनाडु के राज्यपाल डॉक्टर आर एन रवि द्वारा 12 बिलों को रोके जाने के संदर्भ में विस्तार से चर्चा शुरू की।

वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी, अभिषेक मनु सिंघवी और पी विल्सन ने रिट पिटिशन पर अपनी बात रखते हुए यह कहा कि इस प्रकार से पॉकेट वीटो का प्रयोग कर राज्य विधान सभा द्वारा पास किए गए बिलों पर रोक लगाना, संविधान के अनुच्छेद 200 का उल्लंघन है।

सुप्रीम कोर्ट किसी भी मसले पर सुनवाई से पहले लीगल इशू फ्रेम करती है जिसका मतलब होता है मामले में कानूनी मामला क्या है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय कानून की व्याख्या करने वाला कोर्ट है न कि तथ्यों की।

वर्तमान मामले में न्यायालय ने या केंद्रीय प्रश्न बनाया कि “क्या राज्य का गवर्नर बिल पास होने के बाद उसे रिजर्व रखने के बाद अगर विधान सभा द्वारा दोबारा पास करने के बाद दोबारा रिजर्व कर सकता है जबकि उसने राष्ट्रपति से अनुमति हेतु संरक्षित नहीं किया हो”

पॉकेट विटो क्या है?

पॉकेट वीटो राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास ऐसी शक्ति होती है जिसके आधार पर बिल पर बिना कोई कार्यवाही किए हुए अनिश्चित काल के लिए छोड़ दिया जाता है। इस तरह की विटो में न तो गवर्नर द्वारा हस्ताक्षर किया जाता है और न ही उसे रिजेक्ट किया जाता है। अर्थात ऐसे बिल को निष्क्रिय कर दिया जाता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 200 में गवर्नर के विटो पावर के बारे में चर्चा की गई है। अनुच्छेद की भाषा पर गौर करना बेहद आवश्यक है “जब किसी राज्य की विधायिका द्वारा एक विधेयक पारित किया जाता है, तो उसे राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, जो यह घोषित करेंगे कि वह विधेयक को अपनी सहमति प्रदान करते हैं या उससे सहमति प्रदान करने से इनकार करते हैं या उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित करते हैं।”

अर्थात- बिल आने के बाद राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं। परन्तु दूसरे विकल्प पर गौर करना बेहद जरूरी है, जहां पर संविधान के प्रावधान स्पष्ट करते हैं कि अगर गवर्नर एक बार बिल को पुनः विचार करने के लिए भेज देता है और उसके बाद अगर सदन दोबारा से उस बिल को बिना किसी संशोधन या संशोधन के साथ भेज देता है तब राज्यपाल (गवर्नर) को उसपर सहमति देनी होती है।

2023 में पॉकेट वीटो के मामले पंजाब राज्य बनाम प्रिंसिपल सेक्रेटरी टू द गवर्नर ऑफ पंजाब (2023) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “यदि राज्यपाल अनुच्छेद 200 के मौलिक भाग के अंतर्गत अपनी सहमति रोकने का निर्णय लेते हैं, तो तर्कसंगत कार्रवाई यह होगी कि विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधानमंडल के पास भेजने के पहले उपबंध में उल्लिखित मार्ग का अनुसरण किया जाए।

दूसरे शब्दों में, अनुच्छेद 200 के मौलिक भाग के तहत सहमति रोकने का अधिकार, राज्यपाल द्वारा पहले उपबंध के अंतर्गत अपनाई जाने वाली परिणामी कार्यवाही के साथ मिलकर पढ़ा जाना चाहिए।”

इस मामले में न्यायालय ने एक और बार स्पष्ट किया कि संसदीय लोकतंत्र में असली शक्ति चुने गए प्रतिनिधि के हाथ में होती है। राज्यों में सरकारें राज्य विधानमंडल के सदस्यों से बनी होती हैं, और केंद्र में सरकारें संसद के सदस्यों से बनी होती हैं। कैबिनेट सरकार के सदस्यों पर विधानमंडल के प्रति उत्तरदायित्व और जांच पड़ताल की जिम्मेदारी होती है। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्यपाल राज्य का औपचारिक प्रमुख होता है। 

पर इससे एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या भारत के संविधान को इस प्रकार से बनाया गया है जहां राज्य के अधिकारों को किसी भी समय केंद्र द्वारा छीना जा सकता है। भारत के संविधान में फेडरल शब्द की मूल रूप से कोई चर्चा नहीं है। भारतीय संविधान को अर्ध संघात्मक तरीके से समझा गया है जिसका तात्पर्य है कि राज्य के पास राज्य सूची में कानून बनाने की क्षमता है। परन्तु देश के अंदर कानून बनाने की सर्वोच्च शक्ति संसद के पास है।

भारत में संघीय संरचना का होने के बावजूद, इसमें एक मजबूत केंद्रीय सरकार है। उदाहरण के लिए, केंद्रीय सरकार के पास वित्तीय मामलों, राष्ट्रीय सुरक्षा और आपातकालीन स्थितियों में (जैसे अनुच्छेद 356 जैसी प्रावधानों के तहत, जो कुछ परिस्थितियों में केंद्रीय सरकार को राज्य की मशीनरी संभालने की अनुमति देती है) पर्याप्त शक्तियां हैं। संघीय और एकात्मक विशेषताओं के इस मिश्रण के कारण भारत को अक्सर अर्ध-संघीय प्रणाली के रूप में वर्णित किया जाता है।

अर्थात-संविधान के द्वारा छोड़े गए लूप-होल्स का प्रयोग वर्तमान सरकारों द्वारा खुल कर किया जाता है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि राज्यपाल एक राजनीतिक पद है जो केंद्र सरकार द्वारा उनके समर्थन में काम करने के लिए चुना जाता है। यही एक बड़ा कारण है कि जैसे ही केंद्र में सरकारें बदलती है तो राज्यपाल के बदलने की संभावना बढ़ जाती है।

क्योंकि अगर राज्य में अगर दूसरे गुट की सरकारें हैं तब राज्यपाल अपने अनुसार होना बेहद जरूरी हो जाता है ताकि उसके दम पर केंद्र वहां के राज्य को नियंत्रित कर सकता है। संवैधानिक रूप से व्यवस्था को चलाने के लिए और संसदीय व्यवस्था को बनाये रखने के लिए राज्यपाल की भूमिका को जिस तरह से रेखांकित किया गया है वह वास्तविक रूप से कभी भी अनुपालन नहीं किया जा सकता है।

जिसका एक बड़ा कारण सभी प्रकार की सरकारें इस व्यवस्था में लूप-होल्स ढूंढने की तलाश में ही होते हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत के अंदर लोकतंत्र की एक अलग परिभाषा गढ़ी जा रही है, जहां विपक्ष को समाप्त करने की प्रक्रिया चल रही है, जिसका एक बड़ा भाग यह है कि केंद्र सरकार जो काम कर रही है वह केवल खुद के नाम को दिखाना चाह रही है वहीं राज्य के काम को पूरी तरीके से बाधित करती है, जिससे राज्य में सरकारें सही तरीके से काम न कर पाएं। 

(निशांत आनंद कानून के छात्र हैं।)

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