जो बाइडेन और शी जिनपिंग की शिखर वार्ता को लेकर आखिरकार चीन ने बातचीत की तारीख से पांच दिन पहले आकर अनिश्चय खत्म किया। वैसे अक्टूबर के आखिर में चीन के विदेश मंत्री वांग यी की अमेरिका यात्रा के समय ही दोनों देशों के नेताओं में शिखर वार्ता पर सहमति बनने के संकेत मिल गए थे। मगर चीन ने इसकी पुष्टि करने में लगभग दो हफ्तों का और टाल-मटोल किया। ये बात इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हाल में चीन अमेरिकी नेताओं से सीधी बातचीत को लेकर अपनी अनिच्छा खुलकर जताता रहा है। इन घटनाओं पर गौर करेः
• इस वर्ष के आरंभ में अमेरिकी आसमान में चीनी गुब्बारे देखे जाने को लेकर उठे विवाद के कारण अमेरिका ने अपने विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन की तय चीन यात्रा रद्द कर दी थी। उसके बाद से चीन का रुख खासा सख्त हो गया।
• मार्च से खबरें आने लगीं कि अब ब्लिंकेन बीजिंग जाना चाहते हैं, लेकिन चीन इसके लिए तैयार नहीं हो रहा था। इसके लिए अमेरिका को परदे के पीछे काफी कूटनीतिक प्रयास करने पड़े, तब जाकर जून में ब्लिंकेन की बीजिंग यात्रा संभव हो सकी।
• लेकिन अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन की चीन यात्रा अब तक संभव नहीं हो सकी है। अब हटाए जा चुके चीन के रक्षा मंत्री ली शांगफू पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा रखे थे। इसके बावजूद ऑस्टिन चीन जाकर उनसे बातचीत करना चाहते थे। मगर चीन अपनी शर्त पर अड़ा रहा कि पहले अमेरिका प्रतिबंध हटाए। चीन के इस रुख को लेकर सिंगापुर में होने वाले सालाना सांगरी-ला डायलॉग में इस वर्ष ऑस्टिन ने सार्वजनिक रूप से असंतोष जताया था।
• अमेरिका रक्षा एवं सैन्य स्तर पर चीन के साथ संवाद को फिर से शुरू करने की कोशिश में जुटा रहा है। पिछले वर्ष अगस्त में जब अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव की स्पीकर नैंसी पेलोसी ने ताइवान की यात्रा की थी, तब उसके विरोध में चीन ने अमेरिका से सैन्य संवाद तोड़ने का एलान किया था।
• जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका की नीति रही है कि चीन के साथ वह प्रतिस्पर्धा करेगा, लेकिन गलती से युद्ध छिड़ने की आशंका को टालेगा। इस लिहाज से सैन्य संवाद अनिवार्य है। मगर इस बिंदु पर अब तक चीन ने कोई रियायत नहीं दी है।
• अब चर्चा है कि 15 नवंबर को अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में होने वाली शिखर वार्ता के दौरान सैन्य संवाद फिर कायम करने पर सहमति बन सकती है। अगर ऐसा हुआ, तो दोनों देशों के बीच इसे एक बड़ी कूटनीतिक सफलता के रूप में देखा जाएगा।
जो बाइडेन को उम्मीद थी कि शी जिनपिंग सितंबर में जी-20 की बैठक में भाग लेने नई दिल्ली आएंगे और वहां दोनों राष्ट्रपतियों की द्विपक्षीय वार्ता होगी। लेकिन ऐन वक्त पर शी ने नई दिल्ली ना आने का फैसला कर लिया। तब बाइडेन ने इस पर सार्वजनिक रूप से निराशा जताई थी। उसके बाद से अमेरिकी कूटनीति का प्रयास यह था कि शी को एशिया-पैसिफिक इकॉनमिक को-ऑपरेशन (एपेक) के शिखर सम्मेलन में आने को राजी किया जाए। यह शिखर सम्मेलन 14 नवंबर से सैन फ्रांसिस्को में होने जा रहा है। इस मौके पर शी की यात्रा का कार्यक्रम बना है। शी 14 से 17 सितंबर तक अमेरिका की यात्रा पर रहेंगे।
इस तरह दुनिया में बढ़ते तनाव के बीच दोनों बड़ी शक्तियों के नेताओं के बीच सीधी बातचीत की पृष्ठभूमि तैयार हो गई है। इसके पहले नवंबर 2022 में दोनों नेताओं की जी-20 शिखर बैठक के दौरान इंडोनेशिया के बाली में मुलाकात हुई थी। उसके पहले दोनों के बीच ऑनलाइन वार्ताएं हुई थीं। चीन का कहना है कि इन तमाम वार्ताओं में बाइडेन जिन बातों पर सहमत हुए, अमेरिका उनका लगातार उल्लंघन करता रहा है। इसलिए बाइडेन या अन्य अमेरिकी अधिकारियों के साथ बातचीत का कोई अर्थ नहीं है। इसके बावजूद अब अगर शी अमेरिका जाने पर राजी हुए हैं, तो जाहिर है, ब्लिंकेन से लेकर अन्य अमेरिकी मंत्रियों की हाल में हुई बीजिंग यात्रा के दौरान अमेरिका चीन को एक हद तक आश्वस्त करने में सफल रहा है।
समझा जाता है कि शी जिनपिंग को एपेक शिखर सम्मेलन में जाने के लिए राजी करने में कैलिफॉर्निया के गवर्नर गेविन न्यूसॉम की प्रमुख भूमिका रही। न्यूसॉम ने पिछले महीने बीजिंग की यात्रा की थी, जहां प्रोटोकॉल की जरूरत ना होने के बावजूद शी जिनपिंग उनसे मिले। न्यूसॉम को अमेरिका की सत्ताधारी डेमोक्रेटिक पार्टी में उभरता हुआ चेहरा माना जा रहा है। समझा जाता है कि अगर स्वास्थ्य या किसी अन्य वजह से अगले साल नवंबर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में बाइडेन पार्टी के उम्मीदवार नहीं बन पाए, तो पार्टी अपना दांव न्यूसॉम पर लगाएगी। इसीलिए उनकी बातों को बीजिंग में गंभीरता से लिया गया।
• न्यूसॉम नेबीजिंग में कहा- ‘वन चाइना पॉलिसी को मेरा पूरा समर्थन है। हम ताइवान को एक स्वतंत्र देश के रूप में नहीं देखना चाहते हैँ।’
• उन्होंने कहा- हम अपनी दोस्ती का नवीनीकरण करना चाहते हैं और उन बुनियादी एवं मूलभूत मुद्दों पर संवाद करना चाहते हैं, जिससे हमारी सामूहिक भावी आस्था निर्धारित होगी।
ताइवान के बारे में न्यूसॉम का बयान जो बाइडेन के वक्तव्य से अलग है। हालांकि बाइडेन भी वन चाइना पॉलिसी को मानने की बात करते रहे हैं, लेकिन उन्होंने कहा है कि ताइवान की रक्षा के लिए अमेरिका प्रतिबद्ध है। उन्होंने कहा है कि ताइवान स्वतंत्र होगा या नहीं, यह वहां के लोगों को तय करना है। बाइडेन के इन वक्तव्यों पर चीन ने हर बार आक्रोश भरी प्रतिक्रिया जताई है।
अब समझा जाता है कि न्यूसॉम के जरिए अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने अपने इस रुख में परिवर्तन का संकेत चीन के राष्ट्रपति को भेजा। चीन ताइवान को अपनी संप्रभुता से जुड़ा मुद्दा मानता है और इस पर युद्ध की हद तक जाने की तैयारी वह दिखा चुका है। लेकिन अब संभवतः इस मसले पर चीन की भड़की भावनाओं को एक हद तक शांत करने में अमेरिका को सफलता मिली है।
तो अब ध्यान इस पर आकर टिक गया है कि बाइडेन और शी के बीच क्या वार्ता होगी और उसका क्या नतीजा निकलेगा? ऐसे संकेत हैं कि वार्ता के दौरान शी का सख्त रुख बना रह सकता है। इसका कारण चीन का यह आकलन है कि इस समय बाजी उसकी तरफ झुकी हुई है, जबकि अमेरिका अभी गहरे दबाव में है। इस आकलन के कई आधार हैः
• यूक्रेन युद्ध में अमेरिकी नेतृत्व वालानाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) पराजय के करीब है। खुद यूक्रेन के बड़े सैन्य अधिकारी यह सार्वजनिक बयान दे चुके हैं कि युद्ध गतिरोध की अवस्था में पहुंच चुका है। इसका अर्थ यह स्वीकार करना है कि इस वर्ष मध्य में यूक्रेन ने जो जवाबी हमला बोला, वह गलत दांव साबित हुआ। खबर है कि इस अभियान में यूक्रेन के हजारों सैनिक मारे गए और अब उसके पास सैनिकों की कमी हो गई है। उधर अमेरिका एवं पश्चिमी देशों में इस युद्ध की अलोकप्रियता इतनी अधिक बढ़ गई है कि अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी अब यूक्रेन को कई मदद देने का विरोध कर रही है।
• दूसरी वजह चीन के खिलाफ अमेरिका के चिप वॉर का लगभग नाकाम हो जाना है। सख्त अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद चीन की कंपनी हुवावे 7 नैनोमीटर या उससे भी छोटे चिप तैयार करने में सफल हो गई है। उसने आई-फोन के ताजा संस्करण की टक्कर का (उसका दावा है कि उससे बेहतर) 5-जी फोन लॉन्च कर दिया है। उधर चीनी कंपनियों सेउसे बड़े पैमाने पर बारीक चिप के ऑर्डर मिल रहे हैं।
• तीसरी वजह फिलस्तीन-इजराइल युद्ध है, जिसको लेकर इजराइल के खिलाफ अरब देशों, मुस्लिम जगत और आम तौर पर पूरे ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) में गुस्सा रोज बढ़ता जा रहा है। गज़ा में हो रहे जनसंहार के लिए विश्व जनमत का एक बड़ा हिस्सा इजराइल के साथ-साथ अमेरिका को भी दोषी मान रहा है। उधर चीन ने इस विश्व जनमत के साथ खड़ा कर ग्लोबल साउथ का नेता होने के अपने दावे को और मजबूत किया है।
• रूस के साथ चीन के समीकरण मजबूत होते गए हैं और अब इसमें सैन्य पहलू भी जुड़ रहा है। इससे इस वक्त की तीन विश्व महाशक्तियों में से दो एक धुरी पर इकट्ठी नजर आ रही हैं। अमेरिकी रणनीतिकार इसे अपने लिए एक बड़ी चुनौती मान रहे हैं।
• उधर अमेरिका की आर्थिक मुश्किलें भी बढ़ती जा रही हैं। इसी शुक्रवार को रेटिंग एजेंसी मूडीज ने अमेरिका के बारे में अपने नजरिए को स्थायी से घटाकर नकारात्मक कर दिया। वैसे भी देश में क्रेडिट कार्ड से लेकर आवासीय, स्टूडेंट्स और मेडिकल ऋण को चुकाने में नाकामी के मामले बढ़ते जा रहे हैं। अमेरिकी बॉन्ड्स पर ब्याज दर बढ़ रही है, जो इस बात का संकेत है कि अमेरिकी बॉन्ड्स को बाजार में अब पहले जितना सुरक्षित नहीं समझा जा रहा है।
• कूटनीतिज्ञों के मुताबिक जो बाइडेन इस समय चीन से टकराव टालने के मूड में हैं। जिस समय अमेरिका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से यूक्रेन एवं इजराइल के प्रतिकूल होते युद्धों में उलझा हुआ है, वह एशिया प्रशांत या ताइवान जलडमरूमध्य में एक नया मोर्चा नहीं खोलना चाहता।
ऐसे में बाइडेन-शी वार्ता के नतीजे किसकी तरफ अधिक झुके होंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। इन नतीजों पर दुनिया की नजरें होंगी, लेकिन भारत के लिए ये खास अहम होंगे।
भारतीय कूटनीति के विशेषज्ञ पहले ही इसको लेकर आशंकित हैं कि अपनी चीन विरोधी इंडो पैसिफिक रणनीति में भारत को शामिल करने के बाद अब खुद अमेरिका चीन से अपने संबंधों को संभालने में जुट गया है। जबकि उसकी इस रणनीति का हिस्सा बनने के कारण भारत और चीन के संबंध और तनावपूर्ण हुए हैं। शी जिनपिंग के जी-20 में ना आने का एक कारण यह भी माना गया था। जो जाहिर है, 15 नवंबर को सैन फ्रांसिस्को से क्या संकेत मिलते हैं, उनके निहितार्थों पर विश्व की अन्य राजधानियों के साथ-साथ नई दिल्ली की भी खास निगाहें रहेंगी।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)
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