Sunday, April 28, 2024

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: क्या स्त्री मुक्ति का संघर्ष फासीवाद के ख़िलाफ़ हो रहे संघर्षों से जुड़ा है?

70 का दशक आंदोलनों का दशक था। सारी दुनिया में विभिन्न प्रकार के सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन चल रहे थे। यूरोप-अमेरिका इनके केन्द्र बने थे। अमेरिका में उसके द्वारा वियतनाम में हो रही अमेरिकी बर्बरता के ख़िलाफ़ व्यापक आंदोलन चल रहे थे, इसके साथ ही साथ मानवाधिकार तथा नारीवादी आंदोलन भी। इसी दौर में फ्रांस में एक बड़ा छात्र आंदोलन भी हुआ था, जिसने वहां पर शक्तिशाली ‘द गाल की सत्ता’ को हिलाकर रख दिया था। इसी समय वहां पर ‘नारीवादी विचारक और लेखिका सिमोन द बुआ’ की पुस्तक ‘द सेकेंड सेक्स’; जो बाद में ‘स्त्री उपेक्षिता’ के नाम हिन्दी में प्रकाशित हुई।

इस पुस्तक का पहला वाक्य “औरत पैदा नहीं होती, बना दी जाती है।” यह वाक्य उस दौर में यूरोप-अमेरिका में चल रहे नारीवादी आंदोलनों का एक नारा सा बन गया। सिमोन की इस पुस्तक का नारीवादी आंदोलनों पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा इसने दुनिया भर में नारीवाद को एक नयी दृष्टि से विचार करने की एक दिशा दी। यूरोप-अमेरिका ने स्त्रियों को आर्थिक और राजनैतिक अधिकार बहुत पहले ही दे दिए थे, लेकिन वोट देने का अधिकार इन्हें काफ़ी बाद में या यों कहें कि भारत के भी बाद मिला, जबकि वहां पर समान काम के लिए समान वेतन और मातृत्व अवकाश जैसे अनेक अधिकार स्त्रियों को कानून ने पहले दे तो दिए थे, लेकिन व्यवहार में इसे लागू करवाने के लिए बड़े संघर्ष करने पड़े। भारत जैसे देशों में तो इसके लिए अभी भी संघर्ष चल रहे हैं।

नव उदारवादी नीतियों के लागू होने से सबसे बुरा असर स्त्रियों की आर्थिक आज़ादी पर पड़ा। ठेके पर काम होने के कारण स्त्रियों को दिए गए विशेष अधिकार; चाहे वह रात की पाली में काम न करने, समान वेतन या मातृत्व अवकाश जैसे अधिकार औरतों से छिन रहे हैं, क्योंकि ठेका प्रणाली में उनके ऊपर ये नियम लागू नहीं होते। एक और ख़तरनाक प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है- ’स्त्रियों को काम पर न रखना’, इसका कारण यह है कि कानून द्वारा स्त्रियों को दिए विशेष अधिकार उन्हें न देना पड़े।

उदाहरण के तौर पर “दिल्ली में हो रहे निर्माण कार्यों में महिलाओं की संख्या लगातार कम हो रही है। दिल्ली मेट्रो के निर्माण कार्य में एक भी महिला नहीं है।” इन बदलती हुई स्थितियों में नारी मुक्ति का सवाल क्या केवल स्त्रियों की आर्थिक स्वाधीनता पर ही निर्भर है? ‘फेड्रिक एंगिल्स’ की पुस्तक ‘राज्य, परिवार और निजी संपत्ति की उत्पत्ति’ में वे लिखते हैं कि “प्राचीन कबीलाई समाज मातृसत्तात्मक थे। बच्चे माता के ही नाम से जाने जाते थे। औरतों की हैसियत पुरुषों से ज़्यादा थी, वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शिकार भी करती थीं, लेकिन कबीलाई समाज के टूटने तथा व्यक्तिगत संपत्ति के उदय के साथ ही औरतों से यह दर्ज़ा छिन गया। समाज में हमारे-तुम्हारे की भावना पैदा हुई तथा स्त्रियां स्वयं व्यक्तिगत संपत्ति में बदल दी गईं।”

हम देखते हैं कि बाद के समाजों में; चाहे वह सामंती समाज हो या पूंजीवादी समाज औरतों की स्थितियां लगातार बिगड़ती गईं, इसलिए प्रारंभिक मार्क्सवादियों का यह मानना था, कि पूंजीवाद की समाप्ति के साथ समाजवाद के आने पर सभी उत्पीड़ित वर्गों के साथ-साथ महिलाओं की भी मुक्ति होगी,परन्तु बाद के दौर में; विशेष रूप से 70 के दशक में यूरोप-अमेरिका में उठे नारीवादी आंदोलनों यह सिद्ध कर दिया कि यह सोच अधूरी है।

पूंजीवादी समाज में अन्य शोषित वर्गों के साथ-साथ महिलाएं भी उत्पीड़ित हैं, परन्तु महिलाओं की अपनी विशेष स्थितियों के कारण इनकी समस्याएं पुरुष वर्ग से भिन्न हैं, इसलिए इनके लिए अलग संगठन बनाने की ज़रूरत महसूस हुई। मज़दूर वर्ग की विचारधारा यह मानती है कि आदिकाल में नारियों की गुलामी जब शुरू हुई, तो उसके मूल में दो चीज़ें प्रमुख थीं- एक श्रम विभाजन और दूसरा निजी संपत्ति। दूसरी स्वयं पहले की ऐतिहासिक उत्पाद थी, श्रम विभाजन ही बुनियादी था। एक बार निजी संपत्ति पैदा होने के बाद यह बुनियादी हो गई।

श्रम विभाजन ने तब तक कबीलाई समाज में पुरुषों के बराबर भूमिका निभाने वाली नारियों को घरेलू काम से बांध दिया, ये सामाजिक श्रम से कट गईं। दूसरे जो निजी संपत्ति पैदा हुई, वह सामाजिक श्रम का उत्पाद थी और पुरुष ही उसके मालिक बने, नारियां इससे वंचित थीं। इस निजी संपत्ति को अपने पुत्रों को उत्तराधिकार में सौंपने के लिए पुरुषों ने नारियों को ख़ास तरह की पारिवारिक व्यवस्था में बांधा,जो घरेलू श्रम से गुंथी हुई थीं। नारियों की यही ग़ुलामी बदलते रूपों में पूंजीवादी व्यवस्था तक चली आई,जिसके बुनियाद में वही दो चीज़ें हैं- घरेलू श्रम और निजी संपत्ति का अभाव।

पूंजीवादी समाजों में वर्गों के हिसाब से भी स्त्रियों का विभाजन है-जैसे श्रमिक वर्ग, मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की स्त्रियाँ। भिन्न आर्थिक स्थितियां होने के कारण इनकी समस्याएं भी भिन्न हैं, लेकिन कई मामलों में स्त्री होने के कारण इनकी समस्याएं समान हैं। मध्यवर्गीय स्त्रियों के बीच की स्थिति होने के चलते इनकी नारी समस्या में भी बीच-बीच की स्थिति है। ये थोड़ी संपत्ति की मालिक भी हैं और तनख्वाह पर नौकरी करने वाली भी हैं,इनमें अभी भी कुछ घरेलू दासता में हैं। ढेरों अपने कार्यस्थलों पर यौनहिंसा उत्पीड़न और भेदभाव की शिकार हैं।

निजी संपत्ति और सामाजिक श्रम में भागीदारी की समस्या मध्यम वर्ग की नारी के लिए मज़दूर वर्ग की नारी से अलग आयाम हैं। एक इंजीनियर, डॉक्टर, प्रबंधक, अन्य पेशेवर अथवा छोटे मालिक के रूप में नारी की नारी के तौर पर वह समस्या नहीं हो सकती, जो एक मज़दूर वर्ग या क्लर्क नारी की है, क्योंकि ये घरेलू श्रम से ‘मेड’ के जरिए कुछ हद तक मुक्ति पा जाती हैं। नारीवाद यह मानता है कि सारी नारियां पितृसत्तात्मक व्यवस्था की शिकार हैं, इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में नारियां पुरुषों के अधीन हैं और पुरुष इसका सैकड़ों तरीके से फ़ायदा उठाते हैं, घर के बाहर और भीतर दोनों जगह। चाहे लैंगिक संबंधों का मामला हो, बच्चा पैदा करने और पालने-पोसने का मामला हो, घरेलू श्रम का मामला हो या फ़िर समाज में विभिन्न स्तर के श्रम या पद का; सब जगह पुरुष हावी हैं, सारा कुछ उनके फ़ायदे में है। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में सारे पुरुषों की सहमति है। शासक वर्ग के पुरुष इस व्यवस्था को बनाते हैं और शासित वर्गों के पुरुष भी अपने फ़ायदे में इसमें उनके साथ हो लेते हैं। ऐसे में नारी मुक्ति की दिशा स्पष्ट है-पुरुषों के ख़िलाफ़ हर जगह संघर्ष। इसका अतिरूप है लेस्बियन (स्त्री समलैंगिक) नारियों के लिए अलग समाज की मांग।

यह देखना मुश्किल नहीं है कि नारीवाद सारे पितृसत्तात्मक समाजों को एक जैसा ही मानता है,चाहे वह गुलाम समाज हो, सामंती या फ़िर पूंजीवादी समाज। इनमें वह नारियों की अधीनता को एक जैसा ही देखता है। उसके लिए अलग-अलग समाजों या वर्गों इत्यादि के फ़र्क का कोई महत्व नहीं है। निश्चित रूप से पारंपरिक नारीवाद तथा मार्क्सवादी स्त्री विमर्श में गहरे अंतर्विरोध दिखाई पड़ते हैं, परन्तु आज दोनों के बीच एकता के बिन्दु की तलाश करनी पड़ेगी। दुनिया भर में दक्षिणपंथ के उभार तथा समाजवादी समाजों के पतन के बाद वे सारी धार्मिक और सामाजिक पिछड़ी मूल्य-मान्यताएं एक बार फ़िर तेज़ी से सिर उठा रही हैं।

दरअसल धार्मिक पुनरुत्थान के साथ पुरानी रूढ़ियों के बंधन और आडंबर फैलते हैं। हम देख सकते हैं कि समाज में अत्याधुनिक विचार और स्त्री-पुरुष असमानता के विचारों का पोषण साथ-साथ चल रहा है। इन दिनों स्त्री की स्वतंत्रता को ख़राब माना जाने लगा है। ये सिर्फ़ अनुशासित गृहलक्ष्मी बनी रहें। रूस-चीन जैसे भूतपूर्व समाजवादी देशों तथा अमेरिका में भी; जो आज परिवार की ओर वापस लौटने का नारा दिया जा रहा है, वह भी इसी मुहिम का अंग है।

वास्तव में संयुक्त परिवार के टूटने तथा एकल परिवारों के बनने के साथ ही स्त्रियों को जो समाज में काम करने की आज़ादी मिली, आज फ़िर उसको समाप्त करने की बात की जा रही है। दक्षिणपंथी फासीवाद का आज मुख्य निशाना औरतें ही हैं तथा औरतें ही इसको बढ़ावा देने की मुख्य औजार भी बनी हैं, इसीलिए आज स्त्री मुक्ति की लड़ाई फासीवाद मुक्ति की लड़ाई से अविभाज्य रूप से जुड़ी हुई है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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