अब बात सिर्फ टैरिफ की नहीं रही

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अमेरिका के टैरिफ वॉर (आयात शुल्क युद्ध) से जैसे-तैसे बच निकलने की भारत की कोशिश कामयाब होती नहीं दिखती। चूंकि आरंभ में ही अपने सारे कार्ड खोल कर भारत सरकार ने अपने कमजोर रुख को जाहिर कर दिया, तो डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन शिकंजा और कसने के रुख पर चल निकला है। फिलहाल, ऐसा उन देशों के मामले में देखने को नहीं मिला है, जिन्होंने टैरिफ वॉर पर सख्त जवाबी कदम उठाए अथवा फिलहाल खामोश रहते हुए यह देखने की नीति अपनाई कि हालात आगे क्या मोड़ लेते हैं। 

इसके विपरीत भारत सरकार ने आरंभ में ही अमेरिकी वस्तुओं पर लगने वाले आयात शुल्क में कटौती शुरू कर दी। उधर विदेश मंत्री एस जयशंकर ट्रंप प्रशासन की मिजाजपुर्शी में जुट गए। (https://janchowk.com/beech-bahas/why-should-we-bow-so-much-before-tyranny/). 

भारत सरकार को शायद यह उम्मीद रही होगी कि कुछ प्रारंभिक कदमों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वॉशिंगटन जाएंगे तो वे अपने ‘करिश्माई व्यक्तित्व’ से ट्रंप को मना लेंगे। मगर उनकी यात्रा के बाद महीने भर में जो हुआ है, उससे नहीं लगता कि ऐसे किसी मकसद को साधने में कामयाबी मिली है।

संकेत हैं कि वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल की इसी हफ्ते पूरी हुई अमेरिका यात्रा भी कामयाब नहीं रही। खबरों के मुताबिक गोयल आयात शुल्क में कटौती का जो ऑफर लेकर गए थे, उसे अमेरिका ने अपर्याप्त माना। अब वाणिज्य मंत्री नए प्रस्ताव लेकर जल्द ही दोबारा वहां जाएंगे। ऐसा लगता है कि अमेरिका भारत में टैरिफ की दर शून्य करवाने पर अड़ा हुआ है। 

वैसे बात अब सिर्फ टैरिफ की नहीं रह गई है। इसकी पुष्टि वाणिज्य राज्यमंत्री जितिन प्रसाद के लोकसभा में दिए बयान से भी हुई है। प्रसाद ने कहा- ‘भारत और अमेरिका टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को घटा कर और आपूर्ति शृंखला का एकीकरण कर एक-दूसरे के बाजार में अधिक पहुंच पर ध्यान दे रहे हैं।’ प्रसाद ने कहा कि दोनों देश द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर बात कर रहे हैं, जिसके इस वर्ष के अंत तक पूरा होने की उम्मीद है। (https://www.hindustantimes.com/india-news/on-us-reciprocal-tariffs-on-india-centres-updates-in-parliament-jitin-prasada-donald-trump-101741685690687.html)

स्पष्टतः अमेरिका ने भारतीय बाजार में पहुंच और अमेरिकी कंपनियों के लिए ‘समान धरातल’ हासिल करने के तमाम मुद्दों को भारत के सामने रख दिया है। उसकी व्यापार एजेंसी पहले ही भारत में- खास कर यहां के औषधि उद्योग में- बौद्धिक संपदा अधिकारों के हनन का आरोप लगा चुकी है। (https://www.msn.com/en-in/news/India/ip-violations-by-india-now-on-trump-s-trade-policy-agenda/ar-AA1Ax7cJ?ocid=BingNewsSerp)

इसके अलावा संकेत हैं कि सरकारी खरीद नीति, देशी कंपनियों को संरक्षण, और डब्लूटीओ नियमों के तहत विकासशील देश के नाते भारत को मिले खाद्य सुरक्षा के विशेष अधिकार के सवाल को भी डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन उठा रहा है। संकेत यह भी है कि इन मामलों में अपनी तमाम शर्तों को मनवाने का रुख उसने अपना रखा है।

अमेरिका को निश्चित ही ये खबर होगी कि खुद भारत का कारोबार जगत ट्रंप के डंडे से किसी तरह अपनी खाल बचा लेने के लिए अपनी सरकार पर दबाव बढ़ा रहा है। एक तरफ उसका दबाव और दूसरी तरफ अपने कारोबार जगत का दबाव- उसका आकलन होगा कि ऐसे में भारत सरकार के विकल्प बहुत सिमट गए हैं। हकीकत यही है कि निर्यात- खास कर अमेरिका में निर्यात- से जुड़े कारोबारी लगातार भारत सरकार से उनके क्षेत्र में अमेरिकी वस्तुओं पर टैरिफ घटाने की मांग कर रहे हैं। इसकी कुछ मिसालें हैः

  • पांच मार्च को ये खबर आई कि भारत के औषधि निर्यातकों ने सरकार से कहा है कि वह अमेरिका से औषधि आयात पर शुल्क शून्य कर दे, ताकि वहां दो अप्रैल से लागू होने जा रहे ‘जैसे को तैसा शुल्क’ (reciprocal tariff) के प्रभाव से भारतीय औषधि निर्यातक बच जाएं। इसके बाद ऐसी मांग करने वाले सेक्टर्स की झड़ी लग गई।
  • चावल, समुद्री उत्पाद, जेवरात, वस्त्र एवं परिधान, आदि जैसे उद्योगों से ऐसी मांग आ चुकी है।
  • जबकि ऑटो सेक्टर ने अपने हित के मुताबिक मांग की है कि सरकार अमेरिका से आयात पर शुल्क में कटौती चरणबद्ध ढंग से करे, ताकि ये उद्योग नई प्रतिस्पर्धा के लिए खुद को तैयार कर सके।
  • इस बीच अमेरिकी ऑटोमॉबिल कंपनियों के लिए पाट-पुर्जे बनाने वाली कुछ कंपनियों ने तो अमेरिका जाकर ही फैक्टरी लगा लेने का इरादा जता दिया है। उन्हें लगा है कि नए टैरिफ राज के बाद वहां जाकर फैक्टरी लगाना उनके ज्यादा मुफीद पड़ेगा। भारत में इसका जो असर होगा, वह भारत के लोग समझेंगे!
  • और, टेलीकॉम कंपनी भारती एयरटेल तो और भी आगे चली गई है। अभी पांच महीने नहीं हुए हैं, जब भारती एयरटेल ने रिलायंस जियो के साथ साझा रुख लेते हुए भारत सरकार से कहा था कि सैटेलाइट इंटरनेट सेवा के लिए स्पेक्ट्रम का आवंटन नीलामी के जरिए हो। यह मांग इलॉन मस्क की कंपनी स्पेस एक्स के विपरीत थी, जो यह सरकारी फैसले से आवंटन चाहती है। 
  • इस बीच अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने और उसमें मस्क को प्रमुख भूमिका मिलने से हवा का रुख बदल गया है। तो भारती एयरटेल को संभवतः महसूस हुआ कि स्पेस एक्स के भारत में प्रवेश को रोकना अब मुमकिन नहीं रहा। ऐसे में रुख बदल लेना उसने फायदेमंद समझा। उसे लगा कि अब भारत में स्पेस एक्स की स्टारलिंक सेवा प्रदान करने की एजेंसी बन जाने में ज्यादा फायदा है। तो अभी जबकि स्पेस एक्स को भारत में लाइसेंस हासिल नहीं हुआ है, एयरटेल भारती ने उसके साथ करार कर लिया है। 
  • नतीजतन स्पेस एक्स के खिलाफ मोर्चे में रियालंस जियो अकेली पड़ गई है। वैसे संभव है कि भारत में सैटेलाइट इंटरनेट सेवा देने का लाइसेंस एक से ज्यादा कंपनियों को मिले। फिर भी 60 से ज्यादा देशों में यह सेवा दे रही स्पेस एक्स के साथ बाजार में कड़ी प्रतिस्पर्धा का माहौल बनेगा। 
  • रिलायंस ग्रुप के लिए यह अच्छी खबर नहीं है। वैसे ट्रंप प्रशासन की प्राथमिकताओं पर ध्यान दें, रिलायंस के लिए चुनौती सिर्फ यही नहीं है। ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका से पेट्रोलियम की अधिक खरीदारी और अमेरिकी कंपनियों को भारत में ‘समान धरातल’ दिलवाने के लिए भी भारत पर दबाव बना रखा है। पेट्रोलियम निर्यात रिलायंस का एक खास कारोबार है। उधर रिलायंस इंडस्ट्रीज के विभिन्न कारोबार में अमेजन एवं वॉलमार्ट के स्वामित्व वाली फ्लिपकार्ट जैसी कंपनियों से सीधी होड़ है। अब तक सरकारी नीतियों का संरक्षण उसे मिला हुआ है। ये सूरत बदली, तो उससे भी उसके सामने नई चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं। 

भारती एयरटेल के रुख से साफ है कि भारतीय कारोबारी ‘मुकाबला नहीं कर सकते, तो पीछे लग चलो’ की नीति पर चल रहे हैं। मगर उन कंपनियों के लिए ऐसा करना कठिन है, जिनकी भारतीय अर्थ-जगत के विभिन्न क्षेत्रों पर एकाधिकार जैसी हैसियत है और अब उन्हीं क्षेत्रों में कोई अमेरिकी कंपनी भी प्रवेश करना चाहती हो। मगर भारत सरकार ने ट्रंप प्रशासन के आगे जैसा समर्पण का रुख अपनाया है, उसे देखते हुए फिलहाल तो यही लगता है कि उन कंपनियों का चाहना- ना चाहना कोई मायने नहीं रखता।

अमेरिका के वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक स्पष्ट कर चुके हैं कि अमेरिका उत्पाद-दर-उत्पाद टैरिफ घटाने पर बात नहीं कर रहा है। बल्कि वह सभी वस्तुओं पर एकमुश्त एक दर से कटौती पर जोर डाल रहा है। ट्रंप प्रशासन के मुताबिक भारत में टैरिफ की औसत दर 4.9 फीसदी ज्यादा है, जिसे पूरी तरह घटाने के लिए वह दबाव डाल रहा है। इनमें कृषि उत्पाद भी हैं। वैसे बात उससे भी आगे है, यह जितिन प्रसाद के बयान से साफ हो गया है। अमेरिका अपनी कंपनियों और उनके उत्पादों के लिए भारत में बेरोक पहुंच और बाजार चाहता है। साथ ही वह चाहता है कि भारतीय कंपनियां अमेरिका में बड़े पैमाने पर निवेश करें। भारत के लिए इसका जो नुकसान है, वह खुद जाहिर है।

जिस दौर में खुद अमेरिका ने भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को पलटने और अपने बाजार में बाहरी कंपनियों की पहुंच सीमित या प्रतिबंधित करने की नीति अपना रखी है, उस समय उसका यह रुख किसी रूप में मुक्त बाजार की सोच के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। बल्कि इसे जोर-जबरदस्ती के रूप में देखना ज्यादा ठीक होगा।

मगर दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत सरकार के साथ-साथ भारत के कारोबारियों ने भी इस पर समर्पण रुख अपना रखा है। सैद्धांतिक स्तर पर इसे अंतरराष्ट्रीय मोनोपॉली के आगे हथियार डालने और मोनोपॉली की अनुषांगिक इकाई बनने के लिए सहज तैयार होने की परिघटना के रूप में समझा जाएगा। एक ऐसी परिघटना, जो भारत के साथ-साथ अमेरिका के भी आम जन के हितों के बिल्कुल खिलाफ है। ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसे इस रूप में समझने, समझाने और उस समझ पर राजनीतिक संगठित करने की कोशिश करने वाली शक्तियों का आज दोनों देशों में सिरे से अभाव है।  

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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