मोदी-शाह के इशारे पर महाराष्ट्र के राजभवन में जारी है संविधान का चीरहरण

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द्वापर में हस्तिनापुर के राजदरबार में जैसे दुर्योधन और दुःशासन ने द्रौपदी का चीरहरण करके अपने माथे पर अमिट कलंक लगाया था, बिल्कुल वैसे ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के इशारे पर मुम्बई के राजभवन में 10 अप्रैल से संविधान का चीरहरण जारी है। द्वापर-युग की उस लीला की तुलना यदि मौजूदा मोदी-युग से करें तो हम पाएँगे कि इसमें मोदी-शाह दोनों मिलकर दुर्योधन की भूमिका में हैं तो राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को दुःशासन का किरदार मिला है।

कोश्यारी के पास सियासी सुचिता का शीलभंग करने वाली प्रतियोगिता का कालजयी ओलम्पिक रिकॉर्ड भी है। अभी छह महीने भी नहीं बीते जब उन्होंने रातों-रात राष्ट्रपति शासन को ख़त्म करवाकर मोदी-शाह के चहेते देवेन्द्र फडनवीस की ताजपोशी करवाई थी। तब तो कोश्यारी ने त्रेतायुग के हनुमान की तेज़ी वाले रिकॉर्ड को भी ध्वस्त कर दिया। सदियों से हिन्दुत्ववादियों की मान्यता थी कि जितनी तेज़ी से पवन पुत्र हनुमान समुद्र फाँदकर लंका पहुँचे थे और जितनी तेज़ी से उन्होंने लंका से हिमालय और वापस लंका वाया ‘अयोध्या पड़ाव’ की दूरी तय की थी, उतनी तेज़ी दुनिया में किसी और के पास हो ही नहीं सकती। 

चन्द घंटों में राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफ़ारिश को मुम्बई के राजभवन से गृहमंत्रालय में दिल्ली भेजना, प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार के तहत कैबिनेट को दरकिनार करने की रणनीति बनवाना, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का चार बजे भोर में दस्तख़त करना, इस चिट्ठी का वापस राजभवन पहुँचना, वहाँ से देवेन्द्र फडनवीस को शपथ-ग्रहण के लिए न्यौता भेजना और सारी तैयारियाँ करवाकर सात बजे तक शपथ समारोह को सम्पन्न करके एक पतित सरकार का गठन करवाना। रात एक बजे से सुबह सात बजे के दौरान इतना काम तो हनुमान के बूते का भी नहीं होता। लेकिन इससे भी मज़े की बात तो ये रही कि हनुमान की साख पर बट्टा लगाने की कोश्यारी की सारी करतूतों से किसी राम-हनुमान भक्त हिन्दू की धार्मिक भावना को ठेस नहीं पहुँची।

इसी से उत्साहित होकर और कोश्यारी के पिछले प्रताप को देखते हुए उन्हें अब उद्धव की कुर्सी छीनने का काम सौंपा गया है। कोश्यारी से कहा गया है कि वो उस उपहास का बदला लें जो द्रौपदी ने दुर्योधन का उस वक़्त किया था, जब वो इन्द्रप्रस्थ में निर्मित युधिष्ठिर के महल तो देखने गये थे। महल में एक जगह संगमरमर की ऐसी टाइल्स लगी था कि मानो वो पानी हो। इन टाइल्स के बीच में पानी के छोटे-छोटे कुंड भी बने थे। ऐसे ही एक कुंड के पानी को दुर्योधन संगमरमर समझ बैठे और पानी में जा गिरे। तब द्रौपदी ने कहा कि उसे ‘अन्धे का पुत्र अन्धा’ कहकर उसका उपहास किया था। द्रौपदी की तरह उद्धव ठाकरे ने भी मोदी-शाह से नाता तोड़ने के दौरान बहुत कुछ भला-बुरा कहा था। इसीलिए अब कोश्यारी को मोदी-शाह-बीजेपी-फडनवीस के तमाम पिछले अपमानों का बदला लेने का ज़िम्मा सौंपा गया है।

दिलचस्प बात ये भी जुए की चौपड़ महाराष्ट्र विधानसभा की विधानसभा में नहीं बल्कि राजभवन में बिछायी गयी है। यहीं पर उद्धव रूपी द्रौपदी का चीरहरण की तैयारी है। महाभारत के प्रसंग से सबक लेते हुए दुर्योधन और दुःशासन रूपी मोदी-शाह और कोश्यारी इतना तो जानते हैं कि उद्धव के पास विधानसभा का बहुमत है, लेकिन उन्हें लगता है कि अब वो कृष्ण कहाँ जो द्रौपदी की साड़ी को ऐसा बना दे कि कोई कहे कि ‘साड़ी बीच नारी है कि नारी की ये साड़ी है’। यहाँ साड़ी है, ‘उद्धव का विधायक नहीं होना’ और नारी है, ‘मुख्यमंत्री की कुर्सी’।

उद्धव 28 नवम्बर 2019 को जब मुख्यमंत्री बने तभी तय था कि संविधान के अनुसार उन्हें 27 मई से पहले विधायक बनाना होगा। कोरोना की आफ़त न आयी होती तो इसमें कोई अड़चन नहीं आती, क्योंकि चुनाव आयोग 24 अप्रैल को विधान परिषद की नौ सीटों के लिए चुनाव करवाने की अधिसूचना जारी कर चुका था। कोरोना की वजह से ये चुनाव टालना पड़ा। बस फिर क्या था, कौरवों के ख़ेमे को लगा कि ये तो बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया। अब उद्धव को विधायक ही नहीं बनने देंगे तो उसे मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ेगा। तब तक यदि शिवसेना में तोड़-फोड़ हो जाए तो मध्य प्रदेश जैसा मज़ा आ जाए।

इस साज़िश को भाँपते हुए रणनीति बनी कि उद्धव को विधानसभा का नामित सदस्य बनवा दिया जाए। इसके प्रस्ताव को उपमुख्यमंत्री अजीत पवार की अगुवाई वाली कैबिनेट ने मंज़ूरी दे दी। अब तेज़ी से कड़े फ़ैसले लेने वाली जमात से जुड़े राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी अपनी ही कैबिनेट के प्रस्ताव पर कुंडली मारकर बैठ गये हैं। हनुमान वाला उनका सारा पराक्रम 10 अप्रैल से अब तक नदारद है। लॉकडाउन ने उनके निर्णय लेने की क्षमता पर भी ताला लगा दिया है। बेचारे तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि प्रस्ताव को मंज़ूर करूँ या ख़ारिज़? इसीलिए, त्रिशंकु की तरह बीच में ही लटका रखा है।

बीजेपी के एक कार्यकर्ता ने भीष्म पितामह रूपी बॉम्बे हाईकोर्ट से गुहार लगायी कि वो कैबिनेट की सिफ़ारिश को ख़ारिज़ कर दे क्योंकि मुख्यमंत्री ने बाक़ायदा उपमुख्यमंत्री को कैबिनेट की अगुवाई करने का आदेश जारी नहीं किया था। हाईकोर्ट से ये भी माँग हुई कि वो राज्यपाल को कैबिनेट की सिफ़ारिश नहीं मंज़ूर करने का आदेश दे क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 171 के तहत विज्ञान, साहित्य, कला, समाज सेवा और सहकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान का उद्धव के पास कोई ‘Experience Certificate’ नहीं है।

वैसे ऐसा Experience Certificate तो जस्टिस रंजन गोगोई के पास भी राज्यसभा पहुँचने के लिए नहीं था। लेकिन उनके मामले में तो ख़ुद को संविधान से ऊपर समझने वाले मोदी-शाह ने गोगोई के अदालती फ़ैसलों को ही समाज सेवा मान लिया था। अलबत्ता, कोश्यारी के मार्गदर्शन के लिए अभी 1961 वाला सुप्रीम कोर्ट का वो फ़ैसला नज़ीर बन सकता है जो तब चन्द्रभान गुप्ता को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने के लिए उन्हें राज्यपाल की ओर से विधान परिषद में नामित किये जाने से सम्बन्धित है। तब सुप्रीम कोर्ट ने उनकी नियुक्ति को ये कहकर बहाल रखा था कि गुप्ता ने सालों सक्रिय राजनीति करके जो अनुभव बटोरा है जो समाज सेवा ही है। लेकिन वो फ़ैसला तो पतित काँग्रेस और नेहरू के ज़माने का था, भला उसे अब सही कैसे माना जा सकता है!

इसीलिए बिल्कुल पितामह भीष्म की तरह, बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी ये कहकर मामले से पल्ला झाड़ लिया कि वो राज्यपाल के विवेकाधिकार में नहीं घुसना चाहता। भीष्म ने भी तो अपनी वचनवद्धता सिर्फ़ हस्तिनापुर के राज-सिंहासन के प्रति वफ़ादारी तक ही सीमित रखी थी। न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, बुद्धि-विवेक और नीति-अनीति को, वो भी तो घोलकर पी चुके थे। हाईकोर्ट भी उनके ही पद-चिन्हों पर चला। बीजेपी की सारी उम्मीद बस, इसी दलील पर टिकी है कि कैसे राजनीति को समाज सेवा मानने से इनकार कर दिया जाए? वैसे, ‘हम करें तो रासलीला, वो करें तो करेक्टर ढीला’ की तर्ज़ पर देश के कानों में आज भी ऐसे असंख्य बयान गूँज ही रहे हैं कि ‘संघ-बीजेपी करे तो समाज सेवा, कोई और करे तो भ्रष्टाचार एवं अनैतिक आचरण’।

उद्धव को विधायक बनने से रोकने के लिए परम प्रतापी राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने स्वरचित नीतिशास्त्र का ये नियम भी प्रतिपादित किया है कि नामित विधायक वाली रिक्त जगह को भी जून तक भरने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्या महज इसीलिए क्योंकि उनके दो पदों पर विराजमान पूर्व विधान परिषद सदस्य बाक़ायदा बीजेपी में विलीन हो गये थे? दरअसल, बीजेपी को संविधान को ठेंगे पर रखने में अलौकिक सुख और शान्ति की अनुभूति होती है। उसे तो सिर्फ़ ‘मेरी मर्ज़ी’ वाला वही तथाकथित संविधान पसन्द है जिसका जन्म मोदी-शाह के रज-कणों से हुआ है।

अब सवाल ये है कि क्या उद्धव-पक्ष सुप्रीम कोर्ट के सामने गिड़गिड़ाकर उससे माँग करेगा कि वो राज्यपाल को कैबिनेट की सिफ़ारिश को मंज़ूर करने का आदेश दे। या फिर वो चुनाव आयोग से गुहार लगाएगा कि भले ही कोरोना लॉकडाउन जारी रहे, लेकिन मेहरबानी करके विधानसभा की नौ सीटों पर चुनाव करवाकर 27 मई से पहले इसका नतीज़ा घोषित कर दीजिए। वैसे चाहे सुप्रीम कोर्ट हो या चुनाव आयोग किसी में भी अब ये हिम्मत कहाँ रही कि वो ‘मेरी मर्ज़ी वाले संविधान’ की इजाज़त के बग़ैर साँस भी ले सके। दोनों की गरिमा को ‘कौड़ी की तीन’ हुए अरसा हो गया। अब यदि पुतलों में अचानक प्राण-प्रतिष्ठा का चमत्कार हो जाए, तो बात दूसरी है।

अभी मोदी-शाह की रणनीति मुख्यमंत्री पद को प्राण-दंड देने की भले ही ना हो, लेकिन 27 मई तक उद्धव-पक्ष को वैसे ही छटपटाते हुए देखना चाहता है, जैसे पानी से बाहर निकाली गयी मछली तड़पती है। वैसे मोदी-शाह को अच्छी तरह मालूम है कि उनकी साज़िश का सफल होना बेहद मुश्किल है। लेकिन आख़िर ये धारणा भी तो है ही कि ‘मोदी है तो मुमकिन है!’ लिहाज़ा, ये दोनों अपने स्वभाव के अनुसार आख़िरी साँस तक कोशिश तो करेंगे ही कि 27 मई के बाद उद्धव की फिर से ताजपोशी नहीं हो पाये। कम से कम तब तक तो संविधान और द्रौपदी का चीरहरण जारी रह ही सकता है। बाक़ी, आगे की आगे देखी जाएगी।

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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