मुंबई में इंडिया की दो दिवसीय बैठक 31 अगस्त और 1 सितंबर को होनी थी। बैठक में शिरकत करने के लिए गठबंधन के नेता मुंबई पहुंचने लगे थे। गठबंधन की एकता, भविष्य की कार्य-योजना व सांगठनिक निर्णयों पर कयास लगाए जा रहे थे कि इसी बीच मोदी सरकार ने एक बड़ा धमाका कर दिया। अचानक खबर आती है कि सरकार ने सितंबर में 18 से 23 तारीख के बीच 5 दिन का संसद का विशेष सत्र बुलाया है। सत्र का एजेंडा और उद्देश्य जारी नहीं किया गया है।
बीच में विशेष सत्र बुलाने की जरूरत सरकार को क्यों आ पड़ी है? इसको लेकर राजनीतिक विश्लेषक तरह-तरह के कयास लगा रहे हैं। गोदी मीडिया हमेशा की तरह इसे मोदी का मास्टर स्ट्रोक बता रहा है। कुछ लोग इसे इंडिया के मजबूत होते जाने और मुंबई बैठक के प्रभाव को कमजोर करने के लिए मोदी का प्रतिउत्तर मान रहे हैं। पहले ही दिन से यह खबरें आने लगीं कि लोकसभा का चुनाव समय से पहले हो सकता है। अब तो विशेष सत्र को लेकर राजनीतिक विश्लेषक अनेक तरह के डरावने निष्कर्ष भी निकलने लगे हैं। खैर जो भी हो।
इस बीच दो और घटनाएं हुईं। संघनीति बीजेपी की बहु प्रतीक्षित “वन नेशन वन इलेक्शन” नीति लागू करने की योजना बहुत पहले से ही रही है। इसके लिए कई संस्थाओं से बहुत पहले रिपोर्ट भी मांगी गई थीं। लेकिन उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। अब सरकार को अचानक एक देश-एक चुनाव का विचार क्यों आया? सरकार ने इस मुद्दे को आगे बढ़ाने का फैसला कर लिया है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में आठ सदस्यीय कमेटी का गठन कर दिया गया है।
कुछ लोग आश्चर्यचकित हैं कि राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर रह चुके रामनाथ कोविंद ने कमेटी की अध्यक्षता करने की जिम्मेदारी क्यों स्वीकार की? हो सकता है उन्होंने सेवानिवृत्त राष्ट्रपतियों की सर्वमान्य परंपरा से अलग हटने का निर्णय लेकर मोदी सरकार के एहसान का बदला चुकाया हो।
दूसरा बड़ा धमाका अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों के एक संगठन OOCRP द्वारा अडानी के औद्योगिक साम्राज्य द्वारा किए गए कानूनों के उल्लंघन को लेकर हुआ है। जो गार्जियन और फाइनेंशियल टाइम्स जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में छपा है। लोग इसे हिंडनबर्ग पार्ट- 2 की संज्ञा दे रहे हैं। जिसमें उंगली सीधे प्रधानमंत्री की तरफ संकेत करती हुई दिखाई दे रही है।
स्पष्ट है कि भारत में राजनीतिक घटनाक्रम तेजगति से घटित हो रहे हैं। निश्चय ही इसके कई दूरगामी प्रभाव होंगे। भारत एक बार फिर जून 1975 के नक्शे कदम पर आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। इस पर संक्षिप्त चर्चा करने से पहले एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है।
बात है 1917 की है। भाजपा ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया था। मीडिया ने इसे भाजपा और संघ की दलित प्रेमी नीति के उदाहरण के रूप में पेश किया। भाजपा संघ के इस निर्णय को विश्लेषकों द्वारा संघ की समरसता समन्वय और सोशल इंजीनियरिंग की नीति से जोड़कर भी देखा गया।
उसी दौरान एक दिन मैं आजमगढ़ कचहरी में राजेंद्र की चाय की दुकान पर बैठा था। जहां आमतौर पर सभी राजनीतिक विचारों और दलों के नेता और कार्यकर्ता आते रहते हैं। मैंने देखा संघ और भाजपा से जुड़े तीन वकील साहबान एक साथ आ रहे हैं। मुझे देखकर मेरे करीबी एक वकील मित्र ने मुस्कुराते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि अब तो आप भाजपा की इस नीति का समर्थन जरूर करेंगे। देखिए बीजेपी ने शाक्तिशाली होने के बाद भी एक दलित को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है। इसलिए भाजपा और संघ के बारे में आपको अपनी धारणा बदल लेनी चाहिए।
आमतौर में हम लोग जब भी मिलते हैं तो कटाक्ष और एक दूसरे पर राजनीतिक हमले करते रहते हैं। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। उसमें दो मेरे बहुत करीबी थे और वे आकर मेरे सामने खड़े हो गए। उन लोगों ने मुझसे कहा कि इस पर आप अपनी राय बताइए।
मैंने कहा कि जिस दिन भाजपा ने कोविद जी को राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित किया उस दिन से मैं डर गया हूं। उधर से तेज प्रतिक्रिया आई। अरे आप यहां भी नकारात्मक दृष्टि से सोच रहे हैं। इसमें डरने की क्या बात है? मैंने उन्हीं लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘आप लोग आरक्षण को योग्यता का हनन और सामाजिक विकृतियों के रूप में पेश करते रहे हैं। जिससे समाज का भारी नुकसान हो रहा है। आप लोग मानते हैं कि आरक्षण के कारण अयोग्य व्यक्तित्व ऊंचे पदों पर पहुंच जाते हैं। जिससे दक्षता प्रभावित होती है। आप का संघ परिवार हमेशा से ही आरक्षण या व्यापक अर्थों में कहा जाए तो लोकतंत्र और संविधान का विरोधी रहा है।
मेरी सोच है कि हिंदुत्व की राजनीति के उभार के इस दौर में भाजपा को कोई ऐसा दलित प्रतीक चाहिए था। जिसके हाथों से वह दलितों के आरक्षण और संवैधानिक अधिकारों को धीरे-धीरे कुतरकर उसे शक्ति हीन बना सके। संभवत इस बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही भाजपा का यह दलित प्रेम छलक रहा है। रामनाथ कोविंद लोहे के उस टांगे का बेंट बनने जा रहे हैं जिसके द्वारा दलितों के अधिकारों में कटौती की जाएगी।
साथ ही इसकी आड़ लेकर संघ परिवार सामाजिक अशांति-तनाव का और ज्यादा विस्तार करते हुए जातियों के बीच दूरी को बढ़ाकर वर्णवादी सत्ता को मजबूत कर सकेगा। अंत में मैंने कहा राष्ट्रपति के रूप में रामनाथ कोविंद का कार्यकाल मूलतः दलित-पिछड़ा-आदिवासी विरोधी होगा। मेरे यह कहते ही वे लोग यह कहते हुए आगे बढ़ गए कि आप कभी भी भाजपा की किसी भी नीति का समर्थन नहीं करेंगे। यहां भी उल्टा ही सोच रहे हैं।
रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति चुन लिए गए। उसके थोड़े दिन बाद आरक्षण को लेकर कोर्ट के एक निर्णय ने दलितों में उबाल पैदा कर दिया। भारत के विभिन्न इलाकों में दलितों ने अप्रैल में राष्ट्रव्यापी विरोध आयोजित किया। जिसमें भारी हिंसा हुई। पुलिस के साथ जगह- जगह दलित नौजवानों के टकराव हुए। जिसमें आजमगढ़ भी था। यहां सगडी तहसील में दलितों के जुलूस के साथ प्रशासन का टकराव हुआ। दर्जनों दलित नौजवान घरों से उठाकर जेल में डाल दिए गए और आंदोलनकारियों के साथ प्रशासन ने क्रूरता की।
इसको लेकर राजनीतिक सरगर्मी जोरों पर थी। हम लोग लगातार विरोध कर रहे थे। इस सिलसिले में एक प्रतिनिधिमंडल के दौरान मेरी तत्कालीन जिलाधिकारी से तल्ख बहस भी हो गई थी। बाद में दलित समाज में बढ़ रहे असंतोष को भांपते हुए सरकार बैकफुट पर चली गई।
इस घटना के कुछ ही दिन बाद कलेक्ट्रेट में डीएम ऑफिस के सामने से मैं गुजर रहा था। वे वकील साहब आते हुए मुझे दिखाई दिए। मैंने उन्हें रोका और कहा आप उस दिन हमारी बात से सहमत नहीं थे। लेकिन देखिए आपके ‘टांगें का बेंट’ काम करना शुरू कर दिया है। यह सुनते ही वे तेजी से हाथ हिलाते हुए अंदर चले गए। मेरे लाख रोकने के बाद भी वे नहीं रुके।
कटु सत्य यही है कि भाजपा ने हर समय सोशल इंजीनियरिंग को दलित और ओबीसी के बीच एक हथियार के रूप में प्रयोग किया है। जैसे जंगल को काटने के लिए लोहे के टांगे में लकड़ी का बेंट ही लगता है। ठीक वही स्थिति दलित-पिछड़ों-आदिवासियों को सत्ता में प्रतिनिधित्व के नाम पर इन जातियों के नव धनाढ्यों को लेकर बीजेपी करती है।
क्योंकि इस वर्ग (मध्यवर्ग) की लोकतांत्रिक व सामाजिक प्रतिबद्धता बतौर एक वर्ग बहुत कमजोर है। इसलिए बीजेपी को इन्हें अपने जाल में फसाने में कोई दिक्कत कभी नहीं आई। 9 वर्षों के मोदी कार्यकाल की अगर हम समीक्षा करें तो देखेंगे की संविधान के साथ ही लोकतांत्रिक संस्थाऐं सभी पैमाने पर कमजोर की गई हैं। फिर भी दलित-ओबीसी और अब अल्पसंख्यकों के मध्यवर्गीय तबके के कुछ लोग बीजेपी के संकट के समय में उसके साथ खड़े होने में गुरेज नहीं करते।
31 अगस्त से 2 सितंबर के बीच राजनीतिक घटनाक्रम तूफानी गति से घटित हुए हैं। जिसकी तैयारी अमृत कल के नाम पर पिछले एक वर्ष से चल रही थी। इस वर्ष अमृत काल के 15 अगस्त को (यानी स्वतंत्रता दिवस पर) जब प्रधानमंत्री लाल किले से देश को संबोधित कर रहे थे। तो ठीक उसी दिन प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देवराय एक अखबार में विशेष लेख लिख कर संविधान को बदलने की मांग कर रहे थे।
विवेक देवराय का कहना था कि अब समय आ गया है कि हमें औपनिवेशिक विरासत वाले संविधान को बदल देना चाहिए। राष्ट्र को भारतीयता के उच्च सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों के आधार पर नए संविधान की जरूरत है। अभी तक संघ प्रवक्ताओं के अनुसार तथा कथित हाशिऐ की ताकतें ही संविधान को बदलने की बात कर रही थीं। लेकिन अब प्रधानमंत्री के करीबी नये संविधान के सवाल को लेकर आगे आ गए हैं।
वन नेशन-वन इलेक्शन (एक देश-एक चुनाव) का मुद्दा मोदी जी ने 2015 में ही उठाया था। जिसकी तैयारी के लिए मोदी जी ने लंबा समय लिया। इस समय भारत का लोकतंत्र 1975 के जून महीने के घटनाक्रमों की पुनरावृत्ति की तरफ तेजी से बढ़ता हुआ प्रतीत हो रहा है। राजनीतिक हलचल बढ गई है और सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण तेज गति से हो रहा है।
इस समय सरकार के खिलाफ ध्रुवीकरण का केंद्रीय मुद्दा लोकशाही बनाम तानाशाही बनता जा रहा है। अभी तक जो मध्यमार्गी पार्टियां तानाशाही-फासीवाद जैसे शब्दों के प्रयोग से बच रही थीं। वे भी खुलकर यह कहने लगी हैं कि अब लड़ाई भारत में लोकतंत्र को बचाने और तानाशाही को हटाने की है। इंडिया की मुंबई बैठक में खुलकर यह मुद्दा उन पार्टियों ने उठाया जो अभी तक मोदी सरकार के प्रति नरम रुख रखती रहीं हैं।
मुंबई बैठक का केंद्रीय संदेश यही था कि देश अब फासीवाद के प्रतीक हिंदुत्व-कॉर्पोरेट गठजोड़ को हटाने में अपना योगदान दे।
राजनीतिक परिस्थिति के विकास की इस मंजिल पर मोदी और उनकी टीम ने एक बार फिर एक देश एक चुनाव का मुद्दा उछाल दिया है। यही नहीं पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में आठ सदस्यों की कमेटी का गठन भी आनन-फानन में कर दिया गया। (कमेटी की घोषणा के दिन ही लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने स्पष्ट कह दिया है कि इस कमेटी में रहने का कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि फैसला पहले ही किया जा चुका है।) यानी भारतीय राजनीति में तलवारें आमने-सामने खिंच चुकी हैं।
पूर्व राष्ट्रपति को कमेटी का अध्यक्ष बनाए जाने के संदर्भ में हमें उनके कार्यकाल के कुछ महत्वपूर्ण प्रसंगों को याद रखना चाहिए। पहले ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर तबकों) के नाम पर संविधान में संशोधन कर 10% सवर्ण जातियों को आरक्षण दिया गया। जो संविधान की मूल भावना के खिलाफ था। लेकिन रामनाथ कोविंद ने संवैधानिक विशेषज्ञों की राय लिए बिना ही इस पर हस्ताक्षर कर दिये।
कृषि कानून और चार श्रम कोड, धारा 370 हटाने, एनआरसी सीएए जैसे लोकतंत्र विरोधी फैसले रामनाथ कोविंद के ही समय में लागू किये गये। इसके अलावा बहुत बारीकी से सरकार आरक्षण को निष्प्रभावी करने के लिए काम करती रही। लेकिन रामनाथ कोविंद ने कभी भी उस पर सार्वजनिक चिंता भी नहीं प्रकट की। लॉकडाउन जैसा मानव विरोधी फैसला, अल्पसंख्यकों के पर हो रहे हमले, मॉब लिंचिंग, कानून के ऊपर बुलडोजर की विजय, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं पर झूठे मुकदमे, रामनाथ कोविंद के ही समय में लादे गए।
उन्हीं के कार्यकाल में महाराष्ट्र के दलितों के लिए ऐतिहासिक महत्व के दिन 1 जनवरी को भीमा कोरे गांव में दलितों पर संघ के संगठनों द्वारा हमला किया गया। हिंसा हुई। हमलावर खुले घूम रहे हैं और सरकार उनके पक्ष में खड़ी है। इस घटना से जिनका दूर तक कोई संबंध नहीं था। ऐसे डेढ़ दर्जन सामाजिक-राजनीतिक-बौद्धिक कार्यकर्ताओं को झूठे मुकदमे में फंसा कर लंबे समय तक जेलों में सड़ाया गया। लेकिन राष्ट्रपति के बतौर कोविद ने प्रतिक्रिया तक जाहिर नहीं की। इन सवालों पर कोविंद की लोकतांत्रिक आत्मा कभी जागृत नहीं हुई।
इस तरह की सैकड़ों नजीरें हैं। जो बताती हैं कि उनके कार्यकाल के दौरान भारत में लोकतंत्र पर तरह-तरह से हमले होते रहे। इसलिए जब ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ पर बनी कमेटी की अध्यक्षता उन्हें सौंपी गई है। तो हमें पहले ही समझ लेना चाहिए कि क्या होने जा रहा है। साफ बात है कि लोकतंत्र और संविधान के ऊपर संघ परिवार द्वारा होने वाले सबसे बड़े हमले का नेतृत्व रामनाथ कोविंद के हाथों में दे दिया गया है।
एक और महत्वपूर्ण संदर्भ
वर्तमान में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी आदिवासी हैं और महिला भी। रामनाथ कोविंद के विपरीत कभी-कभी उन्होंने गरीबों के प्रति संवेदनाएं व्यक्त की हैं। लेकिन मणिपुर में 4 महीने से कुकी आदिवासी जनजाति का भाजपा की डबल इंजन सरकार में नरसंहार चल रहा है। कुकी महिलाओं के साथ हुई जघन्यतम घटनाओं पर (जो भारत को दुनिया में शायद सबसे ज्यादा कलंकित कर देने वाला मंजर था) राष्ट्रपति की अभी तक कोई प्रतिक्रिया सार्वजनिक रूप से फिलहाल मुझे देखने को नहीं मिली है।
मणिपुर सहित उड़ीसा के नियमगिरि पहाड़ियों और बस्तर तथा झारखंड में आदिवासियों के साथ बार-बार राजकीय दमन इसलिए तीखा हो गया है क्योंकि वे अडानी जैसे कॉरपोरेट घरानों की लूट से जल-जंगल-जमीन और वासस्थल बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जब द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने का फैसला संघ परिवार ने लिया था। तो इस समय ही शंका व्यक्ति की गई थी कि आदिवासी समाज के ऊपर हमले संवैधानिक तौर पर तेज होंगे। जो आज वन अधिकार कानून में संशोधन से लेकर विभिन्न संदर्भ में हम देख सकते हैं।
कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के आक्रामक समय में पहचान और प्रतीकवाद की राजनीति अपना औचित्य खोती जा रही है। इसलिए दलित-आदिवासी-ओबीसी-अल्पसंख्यकों को पहचानवादी प्रतीकवादी मूल्यों के गठजोड़ की राजनीति में कॉर्पोरेट-हिंदुत्व के फासीवाद का मुकाबला करने की क्षमता ही नहीं बची है।
इस समय बीजेपी में अवसरवादी भ्रष्ट पिछड़े और दलित नेताओं की भरमार है। जिनके कंधे पर बंदूक रखकर हिंदुत्व लोकतंत्र विरोधी फासीवादी एजेंडे को लागू कर रहा है।
इसलिए जब मुंबई में इंडिया की बैठक में लोकतंत्र और संविधान बचाने की नीतियां सूत्रबद्ध हो रही थीं, तो भाजपा ने रामनाथ कोविंद को आगे करते हुए खतरनाक खेल को खेलने का फैसला किया है। हो सकता है भाजपा महिलाओं-आदिवासियों-दलितों के लिए कुछ रियायत या आरक्षण जैसे संशोधन संसद के विशेष सत्र में लाने की तरफ बढ़े।
यह निश्चय ही भारत के लोकतांत्रिक नागरिकों के लिए सचेत होने का समय है। इस विशेष सत्र के आयोजन को लेकर चारों तरफ से आवाजें आ रही हैं। राजनीतिक विश्लेषक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता भाजपा के खेल को समझते हुए उसके अनुकूल तैयारी में जुट गए हैं।
आज के समय में यह सकारात्मक विकास है। संसद के पांच दिवसीय विशेष सत्र में लिए जाने वाले फैसले जितना भारत के लोकतंत्र के लिए खतरनाक होंगे। फांसीवाद के हमले का प्रतिरोध करने की प्रवृत्ति उतनी बलवती होती जाने की संभावना है।
2024 में भारत में फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध की जो नई इबारत लिखी जाएगी। वह निश्चित ही लोकतंत्र और देश की एकता के लिए अमूल्य अनुभवों का खजाना होगी।
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
बे पेंदे के लोटे जैसा प्रतीत हो रहा जन चौक