Sunday, April 28, 2024

बिहार के चुनावों में मीडियाः तमाशबीन या खिलाड़ी?

बिहार में एनडीए किसी तरह दोबारा सत्ता में आ गया है। इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को मीडिया ऐसी शाबासी दे रहा है, जैसे उन्होंने चुनाव में जीत का कोई रिकार्ड बना लिया हो। बेहिसाब पैसा, टीवी चैनलों को प्रोपैंगडा माध्यम बना लेने, सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग और जाति तथा मजहब दोनों के इस्तेमाल के बावजूद दूसरे नंबर पर ही अटक गई भाजपा की जीत की खबर दे रहे ऐंकरों की आंखें चमक रही हैं। याद दिला दें कि भाजपा ने 2010 में 102 सीटें लड़ कर 91 सीटें जीती थीं।

टीवी चैनलों पर चल रहे कुछ मुहावरों पर गौर करिए- ‘मोदी है तो मुमकिन है’, ‘मोदी का नाम, नीतीश को इनाम’, ‘मोदी असरदार’। किसी तरह जुटाई गई जीत को ऐतिहासक बता रहे ऐंकरों की आंखों से मीडिया का पतन झांक रहा है। भाजपा की इज्जत ढकने की कोशिश कर रही एक ऐंकर के मुंह से अचानक निकल जाता है कि तेजस्वी की पार्टी नंबर एक बन कर उभरी है, लेकिन उसने अपना वाक्य पूरा करने के पहले ही जोड़ा-लेकिन वह पिछड़ते चले गए। सांप्रदायिकता से भरे अपने जहरीले बयानों के लिए मशहूर नेता से बातचीत कर रही ऐंकर की आंखों में कुछ क्षणों के लिए पर्दे के पीछे काम करने वाली शक्तियों का डर तैर जाता है। वह फिर से सजदे के भाव में आ जाती है।

चैनलों पर ऐसी नौटंकी नतीजे आने के बाद नहीं शुरू हुई है। यह चुनावों की शुरुआत से चालू है। चुनाव कवरेज का एक दृश्य देखिए। किसी कस्बे में माइक लेकर घूमता रिपोर्टर एक नौजवान से पूछता है कि वह किसे वोट देगा। जब नौजवान तेजस्वी का नाम लेता है तो उसका नाम पूछ बैठता है। नौजवान अपना सरनेम छिपा लेता है तो यह ढीठ पत्रकार उसे पूरा नाम बताने के लिए कहता है और इसे जानने के बाद टिप्पणी करता है कि बिहार में जाति ही निर्णायक है। अकड़ के साथ रिपोर्टिंग कर रहा यह रिपोर्टर अपना सरनेम पहले ही बता चुका है। समझने में कोई देर नहीं होती कि वह क्यों तेजस्वी के खिलाफ है।

यह सच है कि बिहार जातियों में बंटा है, लेकिन जातियों में मीडिया की यह रुचि चुनाव के समय ही क्यों जगती है? जाहिर है कि वह बेरोजगारी, पलायन, अस्पतालों में डॉक्टर और स्कूलों में शिक्षकों के नहीं होने की सच्चाई को ढंकना चाहता है। मीडिया की जाति में रुचि इसे तोड़ने के लिए नहीं बल्कि इसे मजबूत करने के लिए है। वह इसकी गहराई में जाने के बजाए इसे सिर्फ वोटरों की संख्या के रूप में रखता है और समाज की क्रूर सच्चाइयों पर पर्दा डालने का काम करता है। यह मोदी, नीतीश और कारपोरेट, सभी के हित में है। राज्य में भूमि सुधार का कार्यक्रम ठंडे बस्ते में है और शोषित जातियों का नेतृत्व भ्रष्ट नेताओं के हाथ में। ऐसे में उनके असली मुद्दे गायब करना जरूरी है।

बिहार का अपना कोई मीडिया संस्थान नहीं है, इसलिए यहां काम करने वाले मीडिया संस्थानों का राज्य के सामाजिक-आर्थिक समीकरणों से कोई रिश्ता नहीं है। यह मीडिया को और भी गैर-जिम्मेदाराना ढंग से काम करने की छूट देता है। जब राज्य के कारोबार में आपकी पूंजी लगी हो और दलाली का एक बड़ा नेटवर्क हो तो वहां के राजनीतिक समीकरणों पर नजर रखनी पड़ती है। ऐसा नहीं है कि वे गरीब और वंचितों के पक्ष में आवाज उठाएंगे, लेकिन वहां के बदलते राजनीतिक हालात से अपने को अछूता नहीं रख सकते हैं।

अगर हम देश के अलग-अलग राज्यों पर नजर डालें तो हमें पता चलता है कि किस तरह मीडिया संस्थान तरह-तरह के कारोबार में लगे हैं। उन्होंने स्कूल से लेकर मॉल और ठेका लेने से कारखाना खोलने तक का काम कर रखा है। अखबार या चैनल उनके लिए राजनीतिक संपर्क बनाने तथा इसका उपयोग व्यापारिक हितों को साधने का जरिया भर है। यह काम इतना संगठित हो चुका है कि मध्य प्रदेश,  छत्तीसगढ़ या उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में लोगों ने मान लिया है कि मीडिया सत्ता-प्रतिष्ठान का हिस्सा है। इसलिए वे इस पर चकित नहीं होते कि उनका अखबार चुनावों में पेड न्यूज चलाता है और सत्ता से किस तरह के फायदे लेता है।

इन राज्यों में मीडिया संस्थानों का रिश्ता किसी एक राजनीतिक पार्टी से नहीं होता है। वे सभी दरबारों से अपना संबंध रखते हैं। ऐसे में, पक्ष या विपक्ष चुनाव आयोग तथा प्रशासन की भूमिका पर सवाल उठाता है, लेकिन अखबारों की भूमिका पर नहीं। 

बिहार में मीडिया संस्थान अपना चेहरा छिपा नहीं पाते, क्योंकि इस गरीब राज्य में सत्ता प्रतिष्ठान के पास उन्हें छिपाने के लिए जगह नहीं है। सरकारी विज्ञापनों के अलावा चढ़ावा का कोई जरिया नहीं है। झारखंड जब बिहार का हिस्सा था तो मामला अलग था। वहां कारखाने तथा खदान हैं। कुछ साल पहले यह खबर सामने आई थी कि किस तरह एक राष्ट्रीय मीडिया संस्थान ने खदानों में हिस्सा हासिल किया था। बिहार के पास ऐसा कुछ नहीं है। इसलिए बिहार हकीकत में खबरों के कारोबार में लगे राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों का मीडिया-उपनिवेश है। यहां की खबरें कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल होती हैं और इन्हें बेचने के लिए यह एक बड़ा बाजार भी है।

इसे समझना हो तो मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार की महामारी के समय के वीडियो देख लीजिए। देश के नामी ऐंकर मरते बच्चों की मांओं तथा दवाई तथा मेडिकल सुविधाओं की कमी से जूझ रहे डाक्टरों के मुंह में माइक ठूंसते तथा आईसीयू से लाइव प्रसारण करते नजर आते हैं। मीडिया के अमानवीयकरण तथा खबरों के कच्चा माल बन जाने का इससे बेहतर उदाहरण कोई दूसरा नहीं हो सकता है। यही कच्चा माल मीडिया को प्रवासी मजदूरों के पलायन में दिखता है, लेकिन वह उसका पीछा सड़कों तक ही करता है। कैमरा गांवों और अस्पतालों में नहीं घूमता है और दिल्ली की सड़कों से ही उन बंगलों की ओर नहीं जाता है, जहां लॉकडाउन से मिली छुट्टी में देश का स्वास्थ्य मंत्री लूडो खेल रहा है। इससे मोदी सरकार का असली चेहरा सामने आ जाता।

सरकार और कारपोरेट के साथ हिस्सेदारी कर रहे मीडिया संस्थानों के लिए यह कैसे संभव था? ऐसा ही कच्चा माल उसे बिहार से निकले अभिनेता सुशांत सिह राजपूत की दुखद मौत में नजर आता है। इसमें बिहार के चुनावों में भाजपा को सहानुभूति मिलने की संभावना थी और छोटे पर्दे पर क्राइम थ्रिलर का आनंद देने की क्षमता भी। यह और बात है कि इस मीडिया-आखेट में रिया चक्रवर्ती नाम की एक औरत की जिंदगी तबाह हो गई।

राज्य के राजनीतिक समीकरणों से कोई मजलब नहीं रखने की वजह से मीडिया ने उन दलों तथा नेताओं को सीन से कमोबश गायब रखा जो बिहार के जमीन से उठे हैं। उसे लकदक जिंदगी के सपने लेकर घूम रही आभिजात्य पुष्पम प्रिया में तो रुचि थी, लेकिन जेएनयूएसयू के पूर्व महासचिव संदीप सौरभ से कोई मतलब नहीं था। दो सीटों से चुनाव लड़ रहीं प्रिया की जमानत दोनों जगह से जब्त हो गई और राज्य भर में उसके उम्मीदवारों को बहुत ही कम वोट मिले। संदीप ने साठ तथा सत्तर के दशक में यादवों के निर्विवाद नेता रामलखन सिंह यादव के पोते और जदयू के उम्मीदवार जयवर्धन यादव को 31 हजार मतों से हराया है। ऐंकर किशनगंज गए, पालीगंज नहीं। उन्हें तो सांप्रप्रदायिक ध्रुवीकरण कराना था।

मीडिया का असली चरित्र उस समय सामने आया जब अपने एक चुनावी भाषण में तेजस्वी ने कह दिया कि लालू राज में बाबू साहब के सामने गरीब लोग सीना तान के चलते थे। चैनल तुरंत सक्रिय हो गए, क्योंकि इसमें उन्हें बाबू साहब यानी राजपूत और पिछड़ों के बीच संघर्ष खड़ा करने का मौका दिखाई दिया। उन्होंने इसी भाषण के बाकी हिस्से गायब कर दिए, जिसमें राजद नेता ने सबको साथ लेकर चलने की बात कही थी।

सत्ता का हिस्सा बने मीडिया से कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि वह दो महत्वपूर्ण जिलों में एसपी तथा कलक्टर के रूप में जदयू नेता आरसीपी सिन्हा की बेटी तथा दामाद की तैनाती के चुनाव आयोग के गैर-कानूनी कदम की आलोचना करे? कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि मीडिया सवाल उठाए कि चुनाव आयोग 12 बजे के पहले एनडीए के सभी उम्मीदवारों को जीत के सर्टिफिकेट देता है ताकि वह यह घोषणा कर सकें कि चुनाव जीत गया है और विपक्ष के उम्मीदवारों का सर्टिफिकेट आयोग चार घंटे तक रोके रखता है और अंतिम सीट के बारे में साढ़े चार बजे फैसला करता है।

इस मीडिया को कहां फुर्सत है कि वह इस शिकायत के बारे में बताए कि जहां विपक्ष का उम्मीदवार थोड़े वोट के अंतर से जीतता है वहां बिना किसी शिकायत के ही दोबारा मतगणना कर दी जाती है और जहां एनडीए का उम्मीदवार जीतता है, वहां शिकायत के बाद भी दोबारा मतगणना नहीं होती है? आयोग जल्दी में है क्योंकि रात गहरी हो रही है और भाजपा को जीत की घोषणा करनी है ताकि प्रधानमंत्री चैंपियन घोषित हो सकें। फिल्मों में ऐसे विनर हमने देखे हैं जो खेल के नियमों को नहीं मानता है।

चुनाव नतीजे आने के बाद छोटे पर्दे पर आने वाले कुछ दृश्य काफी मजेदार हैं। पांच सीट जीतने वाला औवेसी हर चैनल पर मौजूद है, लेकिन 12 सीट जीतने वाले दीपंकर भट्टाचार्य एक-दो चैनलों पर थोड़े समय के लिए दिखाई देते हैं। ओवैसी जीत की इस कहानी के चरित्र अभिनेता हैं। खुशी से झूमता ऐंकर उनसे पूछता है कि आप बंगाल भी जाएंगे? ओवैसी उन्हें निराश नहीं करते हैं। वह घोषणा करते हैं, ‘‘जरूर जाएंगे। उत्तर प्रदेश भी जाएंगे! कोई कुछ भी बोले।’’ पता नहीं चलता है कि ऐंकर सवाल पूछ रहा है कि सलाह दे रहा है।

इसी तरह राहुल गांधी को युवराज बताने के मोदी के बयानों को बार-बार दिखाने वाले मीडिया को रामलिास पासवान के बेटे चिराग पासवान में संभावना ही संभावना ही दिखाई देती है। वह एक सीट जीत कर भी चैनलों में दमदार ढंग से मौजूद हैं, क्योंकि नीतीश कुमार को परास्त करने की साजिश में उसने अहम भूमिका निभाई है। भाजपा की इच्छा के अुनरूप वह छोटे भाई बनाम बड़े भाई का नैरेटिव लाता है, ताकि नीतीश कुमार का दिल पूरी तरह डूब जाए।

ओवैसी या चिराग से किसी ने नहीं पूछा है कि हेलिकॉप्टर से प्रचार का खर्च उन्होंने कहां से जुटाया? ये सवाल मीडिया के लिए बेमतलब हैं, क्योंकि उसे लोकतंत्र से कोई लेना-देना नहीं है। उसे क्या, जिसकी जितनी हैसियत उतना खर्च करे? वह क्यों बताए कि सीपीआईएमएल के नेता दीपंकर के पास कोई हेलिकॉप्टर नहीं था और उनके उम्मीदवारों के पास गिनती की कारें थीं। यही हाल बाकी लेफ्ट पार्टियों का भी था। धनबल के असर पर बीच-बीच में चुनाव आयोग भी प्रवचन दे लेता है, लेकिन कम पैसे में चुनाव लड़ने के ऐसे उदाहरणों के बारे में खामोश रहता है। जब आयोग को कोई समस्या नहीं तो मीडिया क्यों चिंता करे?

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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