“भारत छोड़ो आंदोलन” की विरासत की कब्र पर बन रहा है मोदी का ‘नया भारत’

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 9 अगस्त 2019 को अगस्त क्रांति के नाम से मशहूर और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर माने जाने वाले भारत छोड़ो आंदोलन की 77वीं सालगिरह है। भारतीय जनता की स्वतंत्रता की तीव्र इच्छा से प्रेरित इस महत्वपूर्ण आंदोलन की 75वीं सालगिरह दो साल पहले 9 अगस्त 2017 को मनाई गई थी। उस मौके पर प्राय: सभी राजनीतिक पार्टियों ने अगस्त क्रांति के शहीदों की याद में कई तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया था। अभी तक इसकी सही जानकारी नहीं है कि अगस्त क्रांति में कितने लोग शहीद हुए थे। डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा वायसराय लिनलिथगो को लिखे पत्र के मुताबिक ब्रिटिश हुकूमत ने पचास हजार देशभक्तों को मारा था और उसके कई गुना ज्यादा लोग घायल हुए थे।

75वीं सालगिरह के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत छोड़ो आंदोलन की चेतना (स्पिरिट) को फिर से जिंदा करने का आह्वान करते हुए गांधी के नारे ‘करो या मरो’ को बदल कर ‘करेंगे और करके रहेंगे’ नारा दिया। यह नारा उन्होंने 2022 तक ‘नया भारत’ बनाने का लक्ष्य हासिल करने के लिए दिया था। यह कहते हुए कि 2022 में भारत की आज़ादी के 75 साल पूरे होंगे और भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं सालगिरह की याद का उपयोग आज़ादी की 75वीं सालगिरह तक नया भारत बनाने के लिए किया जाना चाहिए।

प्रधानमंत्री के नए भारत और उसके लिए किये गए आह्वान की भारत छोड़ो आंदोलन की चेतना के साथ संगति नहीं बैठती। क्योंकि बार-बार महिमामंडित किये जाने वाले नए भारत की सोच का भारत छोड़ो आंदोलन की मूलभूत चेतना के साथ कोई रिश्ता नहीं है। प्रधानमंत्री का नया भारत एक उधार के कच्चे-पक्के डिजिटल सेटअप में एक ठहरी हुई मानसिकता को फिट करना है, जिसे अक्सर ‘मनुवाद’ कह दिया जाता है। यह नया भारत देश के संविधान, संप्रभुता और संसाधनों की कीमत पर बनाया जा रहा है।

जबकि देश का संविधान, संप्रभुता और संसाधन औपनिवेशिक सत्ता से आज़ादी पाकर हासिल गए किये थे, भारत छोड़ो आंदोलन जिसका प्रवेश द्वार कहा जा सकता है। प्रधानमंत्री के लिए यह सोचना स्वाभाविक है कि भारत छोड़ो आंदोलन सहित आज़ादी के संघर्ष की चेतना का तभी कोई अर्थ है, जब उसका इस्तेमाल नया भारत बनाने में किया जाए। ऐसा आज़ादी की चेतना को गुलामी की चेतना में घटित करके ही संभव है। उनके आह्वान में यह स्पष्ट अर्थ पढ़ा जा सकता है कि आज़ादी के संघर्ष की ‘गलत’ चेतना को सही (करेक्ट) करने का समय आ गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दूरदर्शी था, जिसने एक गलत चेतना से प्रेरित आज़ादी के संघर्ष का उसी दौरान विरोध किया था!

भारत के कम्युनिस्टों को ईमानदार कहा जाएगा कि उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था तो उसकी चेतना और उसमें भाग लेने वाली भारत की जनता और नेताओं से भी उनका सरोकार नहीं था। हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने बाद में भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए माफ़ी मांग ली थी। लेकिन आज भी ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता और बुद्धिजीवी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अपनी विरोधी भूमिका के पक्ष में अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का तर्क देते पाए जाते हैं। वे 1947 में भारत की आज़ादी को आज़ादी की इच्छा से प्रेरित भारतीय जनता के संघर्ष और कुर्बानियों का परिणाम नहीं, अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानते हैं।

इस लेख में भारत छोड़ो आंदोलन में भागीदारी करने वाली भारत की जनता की आज़ादी की चेतना पर लोहिया के हवाले से विचार किया गया है। लोहिया आज़ादी की चेतना की जगह आज़ादी की इच्छा पद का प्रयोग करते हैं।

विभिन्न स्रोतों से आजादी की जो इच्छा और उसे हासिल करने की जो ताकत भारत में बनी थी, उसका अंतिम प्रदर्शन भारत छोड़ो आंदोलन में हुआ। भारत छोड़ो आंदोलन ने यह बताया कि आजादी की इच्छा में भले ही नेताओं का भी साझा रहा हो, उसे हासिल करने की ताकत निर्णायक रूप से जनता की थी। यह आंदोलन देश-व्यापी था, जिसमें बड़े पैमाने पर भारत की जनता ने हिस्सेदारी की और अभूतपूर्व साहस और सहनशीलता का परिचय दिया। लोहिया ने रूसी क्रांतिकारी चिंतक लियो ट्राटस्की के हवाले से लिखा है कि रूस की क्रांति में वहां की महज़ एक प्रतिशत जनता ने हिस्सा लिया, जबकि भारत की क्रांति में देश के 20 प्रतिशत लोगों ने हिस्सेदारी की। (‘कलेक्टेड वर्क्स  ऑफ़ डॉ. राममनोहर लोहिया’ खंड 9, संपा. मस्तराम कपूर, पृ. 129)

8 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित हुआ; अरुणा आसफ अली ने गोवालिया टैंक मैदान पर तिरंगा फहराया; और 9 अगस्त की रात को कांग्रेस के बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। नेताओं की गिरफ्तारी के चलते आंदोलन की सुनिश्चित कार्ययोजना नहीं बन पाई थी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) का अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व सक्रिय था, लेकिन उसे भूमिगत रह कर काम करना पड़ रहा था। ऐसे में जेपी ने क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन और हौसला अफजाई करने तथा आंदोलन का चरित्र और तरीका स्पष्ट करने वाले दो लंबे पत्र अज्ञात स्थानों से लिखे। कहा जा सकता है कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जनता खुद अपनी नेता थी।

लोहिया ने भारत छोड़ो आंदोलन की पच्चीसवीं सालगिरह पर लिखा, “नौ अगस्त का दिन जनता की महान घटना है और हमेशा बनी रहेगी। पंद्रह अगस्त राज्य की महान घटना थी। … नौ अगस्त जनता की इस इच्छा की अभिव्यक्ति थी – हमें आजादी चाहिए और हम आजादी लेंगे। हमारे लंबे इतिहास में पहली बार करोड़ों लोगों ने आजादी की अपनी इच्छा जाहिर की। … बहरहाल, यह 9 अगस्त 1942 की पच्चीसवीं वर्षगांठ है। इसे अच्छे तरीके से मनाया जाना चाहिए। इसकी पचासवीं वर्षगांठ इस प्रकार मनाई जाएगी कि 15 अगस्त भूल जाए, बल्कि 26  जनवरी भी पृष्ठभूमि में चला जाए या उसकी समानता में आए।’’ (‘राममनोहर लोहिया रचनावली’ खंड 9 संपा. मस्तराम कपूर, पृ. 413)

अगस्त क्रांति की पचासवीं सालगिरह देखने के लिए लोहिया जिंदा नहीं थे। उनकी यह धारणा कि लोग मरने के बाद उनकी बात सुनेंगे, मुगालता साबित हो चुकी है। अगस्त क्रांति की पचासवीं वर्षगांठ 1992 में आई। उस साल तक नई आर्थिक नीतियों के तहत देश के दरवाजे देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के लिए खोल दिए गए थे; और एक पांच सौ साल पुरानी मस्जिद को भगवान राम के नाम पर ध्वस्त कर दिया गया। तब से लेकर नवउदारवाद और संप्रदायवाद की गिरोहबंदी के बूते भारत का शासक-वर्ग उस जनता का जानी दुश्मन बना हुआ है, जिसने भारत छोड़ो आंदोलन में साम्राज्यवादी शासकों के दमन का सामना करते हुए आजादी का रास्ता प्रशस्त किया था।

प्रधानमंत्री जो नया भारत बनाने का आह्वान करते हैं उसका आगाज़ 1991-92 में हुआ था। पिछले करीब तीन दशकों में देश से उसकी संप्रभुता और संसाधन, तथा जनता से उसके संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए हैं। भारत छोड़ो आंदोलन सहित आज़ादी के संघर्ष की चेतना का इस्तेमाल धड़ल्ले से नया भारत बनाने में किया जा रहा है। ‘लोहिया के लोग’ भी उसमें शामिल हैं। भारत छोड़ो आंदोलन की सौवीं सालगिरह आने तक नए भारत की तस्वीर काफी-कुछ मुकम्मल हो जाएगी। ऐसा न हो, तो लोहिया के शब्द लेकर संकल्प करना होगा कि नए भारत से ‘हमें आजादी चाहिए और हम आजादी लेंगे’। भारत छोड़ो आंदोलन की चेतना के बारे में लोहिया के बोध के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत को फिर से प्राप्त करने की यह क्रांति 9 अगस्त 1942 की तरह भारत की जनता ही करेगी।    

(प्रेम सिंह सोशलिस्ट पार्टी के नेता हैं और मौजूदा समय में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं।)  

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