Thursday, April 25, 2024

लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के बगैर संसद की नई इमारत का क्या मतलब? 

बड़ा ही अद्भुत लेकिन अफसोसनाक नजारा था। जिस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे धार्मिक कर्मकांड के साथ धर्मनिरपेक्ष भारत के नए संसद भवन का उद्घाटन कर रहे थे और इसे आजाद भारत का ऐतिहासिक क्षण बता रहे थे, ठीक उसी समय उस नवनिर्मित इमारत से महज एक किलोमीटर के फासले पर इंसाफ मांग रही महिला पहलवानों यानी देश की बेटियों को भारत सरकार के विभिन्न पुलिस बल बुरी तरह घसीट कर बसों में पटक रहे थे। ऐसा सिर्फ जंतर-मंतर पर ही नहीं हो रहा था बल्कि दिल्ली समेत पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को जेल में तब्दील कर दिया गया था। दिल्ली की सभी सीमाएं सील थीं और वहां भारी पुलिस बल तैनात था। पहलवानों के समर्थन में पंजाब और हरियाणा से दिल्ली आ रहे महिलाओं के जत्थों की धरपकड़ एक दिन पहले से ही शुरू कर दी गई थी। 

इसी सबके चलते आत्ममुग्ध प्रधानमंत्री मोदी, राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति और लगभग समूचे विपक्ष की गैर मौजूदगी में संसद की नई इमारत में भाषण देते हुए भारत को ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ यानी लोकतंत्र की जननी और संसद की नई इमारत का महत्व बता रहे थे। जिन लोगों के समक्ष वे भाषण दे रहे थे उनमें वह बृजभूषण शरण सिंह भी मौजूद था, जिस पर महिला पहलवानों के यौन शोषण का शर्मनाक आरोप है। उस बृजभूषण को गिरफ्तार करने की मांग को लेकर विश्व स्तर पर भारत का नाम रोशन करने वाली महिला पहलवान पिछले एक महीने से भी ज्यादा समय से जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी हैं। चूंकि बाहुबली आरोपी सत्ताधारी पार्टी का सांसद है और एक प्रभावशाली ऊंची बिरादरी का है, इसलिए उसकी गिरफ्तारी नहीं हो रही है। 

यह नए मिजाज का लोकतंत्र है। इसमें जिस व्यक्ति को जेल में होना चाहिए, वह खुला घूम रहा है और प्रधानमंत्री के साथ संसद की शोभा बढ़ा रहा है। सरकार को जिनके सम्मान की रक्षा करनी चाहिए उन्हें पुलिस संसद के सामने सड़कों पर घसीट रही है। यह वाकया बताता है कि भारत का लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है और भविष्य में क्या स्थिति बनने वाली है। 

पिछले कुछ सालों में भारतीय लोकतंत्र कितना कमजोर हुआ है, इसका अंदाजा तमाम सारी प्राथमिकताओं को नजरअंदाज कर ताबड़तोड़ बनवाए गए नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह को देख कर लगाया जा सकता है। संसद कोई ईंट, पत्थर, सीमेंट और चूने से बनी इमारत नहीं होती है। उसे देश के लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है। उसमें लोकतंत्र की रूह बसती है। अगर संसद की नई इमारत के उद्घाटन का मौका इतना ही ऐतिहासिक था, जैसा कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा, तो फिर राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति उस ऐतिहासिक मौके के गवाह क्यों नहीं बने? देश के दोनों शीर्ष संवैधानिक पदाधिकारियों, जो कि संसद के अभिन्न अंग हैं, को इस मौके से दूर क्यों रखा गया? 

ऐसे सवालों का कोई तर्कसंगत जवाब सरकार और भाजपा के पास नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि भारत आज एक बार फिर उसी क्षण को जी रहा है जैसा करीब पांच दशक पहले इंदिरा गांधी के समय जी रहा था। उस समय कैबिनेट और सरकार का मतलब था सिर्फ इंदिरा गांधी। वे ही सरकार थीं, वे ही संसद थीं और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ के शब्दों में वे ही भारत थीं। हालांकि नरेंद्र मोदी तो इंदिरा गांधी से काफी आगे निकल चुके हैं। वे सरकार, संसद, अपनी पार्टी और देश के पर्याय तो हैं ही, उनकी पार्टी के अध्यक्ष और कई बड़े नेता उन्हें ईश्वरीय शक्ति और भगवान का अवतार तक बताने लगे हैं। इंदिरा गांधी की उस राजनीति की परिणति आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप के रूप में हुई थी, जिसे उन्होंने संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर लागू किया था। 

आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार ने और कुछ उल्लेखनीय काम किया हो या न किया हो लेकिन संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर फिर तानाशाही थोपे जाने की राह को उसने बहुत दुष्कर बना दिया था। यह उस सरकार का प्राथमिक कर्तव्य था, जिसे उसने ईमानदारी से निभाया था। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरूरी नहीं। यह दुष्कर्म लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है। मोदी सरकार भी लोकतंत्र का मंत्रोच्चार करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर आपातकाल से भी आगे निकल चुकी है और उसने लिए राष्ट्रपति सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं को महत्वहीन बना दिया है। 

अगर प्रधानमंत्री के मन में लोकतंत्र और संविधान के प्रति जरा भी सम्मान होता तो नए संसद भवन का उद्घाटन खुद न करते हुए राष्ट्रपति से कराते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। राष्ट्रपति से संसद का कितना अटूट रिश्ता है, यह समझने में संविधान का अनुच्छेद 79 हमारी मदद करता है। यह अनुच्छेद संसद की परिभाषा तय करता है, ”संघ के लिए एक संसद होगी और वह राष्ट्रपति, राज्यसभा तथा लोकसभा से मिल कर बनेगी।’’ इस परिभाषा से साफ है कि राष्ट्रपति संसद का अविभाज्य अंग है। इसी तरह अनुच्छेद 85 कहता है कि राष्ट्रपति समय-समय पर संसद के दोनों सदनों को ऐसे समय और स्थान पर, जो वे ठीक समझें, अधिवेशन के लिए आहूत करें। यानी राष्ट्रपति के अभाव में दोनों सदनों का कार्य संचालन हो ही नहीं सकता। 

इसी संवैधानिक व्यवस्था की रोशनी में जब विपक्ष ने राष्ट्रपति के हाथों नए संसद भवन का उद्घाटन कराने की मांग की तो सरकार और सत्ताधारी पार्टी की ओर से मासूम और हास्यास्पद सफाई दी गई कि प्रधानमंत्री से उद्घाटन कराने का फैसला सरकार का नहीं, लोकसभा स्पीकर का है। सब जानते हैं कि जो स्पीकर सदन की कार्यवाही अपने विवेक से नहीं चला पाते हैं वे संसद भवन का उद्घाटन कराने के बारे में कोई फैसला अपने स्तर पर कैसे ले सकते हैं। जब विपक्ष ने राष्ट्रपति से उद्घाटन न कराए जाने के विरोध में उद्घाटन कार्यक्रम का बहिष्कार करने का ऐलान किया तो विपक्ष को लोकतंत्र और देश विरोधी करार दे दिया गया। ऐसा करने में सरकार का ढिंढोरची मीडिया भी पीछे नहीं रहा। 

राष्ट्रपति की अनदेखी सिर्फ नए संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर ही नहीं की गई, ढाई साल पहले दिसंबर 2022 में जब इस इमारत का शिलान्यास किया गया था तब भी उस कार्यक्रम से तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को दूर रखा गया था। गौरतलब है कि रामनाथ कोंविद दलित और द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आती हैं। जाहिर है कि इन्हें राष्ट्रपति बनाने का मकसद शुद्ध रूप से वोटों की राजनीति से प्रेरित था, जिसे भाजपा ने छुपाया भी नहीं। भरपूर प्रचार किया गया कि देखो हमने पहले दलित को और फिर आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया। लेकिन हकीकत यह भी है कि रामनाथ कोविंद को दलित और द्रौपदी मुर्मू को आदिवासी होने की वजह से संसद भवन के शिलान्यास और उद्घाटन कार्यक्रम से दूर रखा गया, जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मनुवाद पर आधारित हिंदुत्व की विचारधारा के अनुरूप है, जिसमें दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को हिकारत की नजर से देखा जाता है। 

प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में अक्सर लोकतंत्र की खूब बातें करते हैं लेकिन हकीकत यह है कि उनके सत्ता में आने के बाद देश का लोकतंत्र बहुत कमजोर हुआ है। जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही पूरी तरह ख़त्म हो गयी है। जो संवैधानिक संस्थाएं लोकतंत्र को मजबूत बनाने में अहम भूमिका निभाती हैं, वे सब सरकार की दासी बन चुकी हैं। अब लोकतंत्र का अर्थ खासकर प्रधानमंत्री मोदी के लिए सिर्फ़ चुनाव लड़ना और जीतना भर रह गया है। जहां नहीं जीत पाते हैं, वहां ईडी, सीबीआई आदि एजेंसियों की मदद से दूसरे दलों में तोड़फोड़ और खरीद-फरोख्त के जरिए अपनी सरकार बना लेना ही लोकतंत्र की खासियत समझते समझाते रहे हैं। 

प्रधानमंत्री मोदी जिस संसद को बार-बार लोकतंत्र का मंदिर कहते नहीं अघाते हैं, वह मंदिर उनके लिए बजट और अन्य विधेयक बिना बहस के किसी तरह पारित करा लेने का माध्यम भर रह गया है। वे खुद भी संसद में तभी नमूदार होते हैं जब विपक्ष के खिलाफ सड़कछाप मुहावरों और कटाक्षों से भरा भाषण करना होता है। उस भाषण में वे देश के राजनीतिक पुरखों और अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों को कोसना और उनकी खिल्ली उड़ाना भी नहीं भूलते हैं। प्रधानमंत्री कभी भी सांसदों के सवालों का जवाब नहीं देते हैं। उनके मंत्री सवालों के जवाब देने के बजाय सवाल पूछने वाले विपक्षी सांसदों का मज़ाक़ उड़ाते है और उनकी देशभक्ति पर प्रश्न खड़े करते हैं। 

आमतौर पर किसी मसले पर चर्चा की अपनी मांग नहीं माने जाने पर विपक्ष संसद की कार्यवाही ठप करता है लेकिन मोदी राज में नया यह हुआ है कि सत्तापक्ष भी हंगामा कर संसद की कार्यवाही बाधित करने लगा है। संसद कभी सहमति बनाने का मंच हुआ करती थी लेकिन अब वह खंडित आस्था का केंद्र बन गई है, जो सवालों को सुलझाने की बजाय उलझाने का काम करती है। ऐसे में नए संसद भवन का उद्घाटन विवादों में उलझना भी चौंकाता नहीं है। 

चूंकि संसद को सरकार ने और बहुत हद तक लोकसभा स्पीकर ने भी संसद को प्रधानमंत्री की मोदी की निजी जागीर मान लिया है लिहाज़ा उसके शिलान्यास और उद्घाटन में राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के लिए भी जगह नहीं है और विपक्ष के लिए भी नहीं। ऐसे में प्रधानमंत्री ने धार्मिक कर्मकांड के साथ जिस इमारत का उद्घाटन किया है, वह तकनीकी तौर पर भले ही संसद भवन कहलाएगा लेकिन व्यावहारिक अर्थों में उसे संसद कैसे कहा जाएगा? कई लोग नए संसद भवन की आकृति को लेकर सोशल मीडिया में मजाक करते हुए उसे ताबूत के आकार का बता रहे हैं। सरकार का मौजूदा चाल-चलन देख कर आशंका होती है कि कहीं यह मजाक हकीकत में न बदल जाए।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि मौजूदा सरकार का हर कार्य-व्यवहार आरएसएस के एजेंडा के मुताबिक हो रहा है। यह भी सब जानते हैं वह मूल रूप से लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का विरोधी और राजशाही का पक्षधर है। आरएसएस के सबसे बड़े भाष्यकार माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरूजी ने अपनी पुस्तक ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ (हम या हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) में लिखा है कि लोकतंत्र पश्चिम की विचारधारा है और यह भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। इसीलिए नए संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर तमिलनाडु के पुजारियों से प्रधानमंत्री का सेंगोल (राजशाही का प्रतीक राजदंड) ग्रहण करना, उसके आगे दंडवत प्रणाम करना और फिर मंत्रोच्चार के साथ उसे नए संसद भवन में स्थापित करने का पूरा नाटक भी आरएसएस के हिंदुत्ववादी एजेंडे के तहत ही रचा गया। 

चार-पांच दिन पहले तक कोई नहीं जानता था कि यह सेंगोल क्या बला है, लेकिन इस वक्त पूरे देश में सेंगोल चर्चा का विषय बना हुआ है। व्हाटसऐप यूनिवर्सिटी के माध्यम से काल्पनिक किस्सों के जरिए सेंगोल को हिंदू सभ्यता और भारत की स्वतंत्रता के प्रतीक के तौर पर प्रचारित करा दिया गया। बताया गया कि नेहरू ने सेंगोल को म्युजिम में रखवा कर हिंदू सभ्यता का अपमान किया था लेकिन अब नरेंद्र मोदी ने उसे ससम्मान संसद में स्थापित करवा दिया।

ग़ैरजरूरी और काल्पनिक मुद्दों को छद्म राष्ट्रवाद का जामा पहनाकर लोगों को खासकर अपने समर्थकों को बरगलाना, उनसे अपनी जय-जयकार करवाना और असली मुद्दों से उनका ध्यान भटकाना नरेंद्र मोदी और उनके सलाहकारों को खूब आता है। इस काम में डरा और बिका हुआ मीडिया भी उनकी भरपूर मदद करता है। छद्म नैरेटिव बनाने में माहिर सरकार का ‘सेंगोल’ नया खेल है, ताकि सरकार के नौ साल पूरे होने पर कोई यह सवाल न पूछे कि आम आदमी की आय क्यों कम होती जा रही है? महंगाई और बेरोज़गारी क्यों आसमान छू रही है? देश में धर्म के नाम पर क्यों नफरत फैलाई जा रही है? और बिना किसी सरकारी काम के प्रधानमंत्री के ऑस्ट्रेलिया जाने और वहां रैली करने से देश को क्या फ़ायदा हो रहा है? 

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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