5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने का निर्णय लिया तथा जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा समाप्त कर उसे विभाजित कर दिया। घोषणा के बाद कश्मीर के तीनों मुख्यमंत्री के साथ हजारों पार्टी कार्यकर्ता गिरफ्तार और नजरबंद कर दिए गए। सरकार ने 10 महीने बाद एक के बाद एक तीनों मुख्यमंत्रियों को रिहा किया। कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की रिहाई के बाद तीनों मुख्यमंत्रियों की मुलाकात हुई तथा जम्मू-कश्मीर के सभी क्षेत्रीय दलों की बैठक बुलाई गई। इसमें 5 अगस्त से पूर्व की स्थिति बहाल करने (धारा 370 की बहाली) और राज्य के विशेष दर्जे की वापसी को लेकर राज्यव्यापी आंदोलन खड़ा करने की घोषणा की गई।
धारा 370 का मुद्दा हर जम्मू-कश्मीर के नागरिक के लिए महत्व रखता है, क्योंकि इसके साथ उसकी पहचान रोजगार और जमीन का मुद्दा जुड़ा हुआ है। कश्मीरियत कश्मीरियों के लिए सबसे बड़ा सवाल है। देश के स्तर पर किसानों और मज़दूरों के खिलाफ लाए गए कानून उतने ही महत्व के हैं, इसीलिए आप देख सकते हैं कि किसान उसके खिलाफ आरपार की लड़ाई लड़ने के लिए कमर कसे हुए है।
पंजाब के 31 किसान संगठनों ने केंद्र सरकार के साथ जारी वार्ता का बहिष्कार कर 17 अक्तूबर को गांव-गांव में मोदी के पुतला दहन की घोषणा की है। रेलवे ट्रैक पर, अंबानी के पेट्रोल पंपों और अडानी के प्रतिष्ठानों पर किसानों का धरना जारी है। हरियाणा में 17 किसान संगठन गोलबंद हो चुके हैं। कर्नाटक का बंद किसान संगठनों की पहल पर किया जा चुका है।
केंद्र सरकार द्वारा जिस तरह संविधान विरोधी कार्यवाही जम्मू-कश्मीर में कई गई उसी तरह कोरोना काल में पहले अध्यादेश लाकर बाद में उन्हें अलोकतांत्रिक तरीके से कानून बनाकर देश में किसान, किसानी और गांव के नष्ट होने तथा कॉरपोरेटीकरण का रास्ता खोल दिया गया है। उसी तरह 44 श्रम कानूनों को खत्म कर चार कोड बना दिए जाने से श्रमिकों के अधिकारों का खात्मा हो गया है तथा कॉरपोरेट को श्रमिकों का अधिकतम शोषण और लूट करने की छूट मिल गई है।
उधर केंद्र सरकार ने भीमा कोरेगांव प्रकरण की तर्ज पर दिल्ली दंगों को लेकर और अभी हाथरस की घटना को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वालों पर यूएपीए जैसे गंभीर मुकदमे पड़यंत्रपूर्वक लगाने शुरू कर दिए हैं, जिससे साफ हो गया है कि सरकार भय का वातावरण बनाकर विरोधियों को कुचलना चाहती है।
प्रशांत भूषण के मामले ने यह जग जाहिर कर दिया है कि केंद्र सरकार पूरे देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी को जम्मू-कश्मीर की तरह ही कुचलने पर आमादा है। देश में नए धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के लिए सरकार कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही है। समुदाय विशेष के लोगों को कोरोना काल में लगातार निशाना बनाया जा रहा है।
दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों को कौड़ियों के भाव बेचा जा रहा है। इतिहास में पहली बार भारतीय रेलवे के 600 स्टेशनों को तथा कई रेल मार्गों को कॉरपोरेट के हवाले कर दिया गया है। केंद्र सरकार के नीतिगत बदलावों से देश की आर्थिक हालत चरमरा गई है तथा महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। अर्थव्यवस्था में 24 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई है। देश चिंताजनक दौर में पहुंच गया है।
इस स्थिति से निपटने के लिए किसानों के 250 संगठन तथा श्रमिकों के केंद्रीय संगठन मैदान में है। कोरोना काल में ही किसानों और मजदूर संगठनों द्वारा 9 अगस्त, 25 सितंबर तथा 14 अक्तूबर को लाखों गांव में किसानी बचाओ-कॉरपोरेट भगाओ अभियान के तहत बड़ी आंदोलनात्मक कार्यवाही की गई है। पहले अध्यादेश फिर बिल और कानून कई बार जलाए जा चुके हैं। मोदी सरकार का पुतला दहन सतत् जारी है। 26 नवंबर को किसानों द्वारा दिल्ली में संसद पर लाखों किसानों की किसान मुक्ति रैली निकालने की घोषणा की गई है। केंद्रीय श्रमिक संगठनों ने 26 नवंबर को आम हड़ताल की घोषणा की है।
मानवाधिकार संगठन एवं जन संगठन, छात्र और युवा संगठन भी बेरोजगारी और नई शिक्षा नीति आदि मुद्दों पर मैदान में हैं। इस सबके के बावजूद किसानों, मज़दूरों, युवाओं के समर्थन में व्यापक विपक्षी दलों की एकजुटता सड़क पर दिखलाई क्यों नहीं पड़ रही है, यह देश की आम जनता विपक्षियों से जानना चाहती है। हालांकि संसद में विपक्षी एकता दिखलाई पड़ी थी। राज्यसभा से जब आठ सांसदों को निकाला गया था तब पूरा विपक्ष एक साथ था।
यह बात अलग है कि सरकार ने बिलों को बिना वोट कराए अलोकतांत्रिक तरीके से पारित कर लिया। ऐसा नहीं है कि विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा सड़कों पर कार्यवाही एकदम नहीं की जा रही है। विपक्ष में सबसे ज्यादा सक्रिय तमिलनाडु का डीएमके दिखलाई देता है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल आदि पार्टियां भी उक्त मुद्दों पर सड़क पर हैं। वामपंथी पार्टियों द्वारा किसानों-मजदूरों युवाओं के हर आंदोलन का समर्थन सड़क से लेकर संसद तक किया जा रहा है।
जिन छह राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं, वे भी अपने-अपने तरीके से विरोध कर रही हैं। पंजाब इसका एक ऐसा उदाहरण है, जहां किसानों के साथ पक्ष-विपक्ष दोनों खड़े दिखाई दे रहे हैं। वहां कांग्रेस सरकार ने विशेष अधिवेशन बुला कर अपने बिल पारित करने की घोषणा की है।
यदि सभी विपक्ष की सरकारें एक साथ विशेष अधिवेशन बुलातीं तब उसका एक अलग असर पड़ता। किसान-मजदूर विरोधी कानूनों, विपक्षियों पर फर्जी मुकदमे, बेरोजगारी और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ऐसे मुद्दे हैं, जो सीधा संवैधानिक मूल्यों पर कुठाराघात करते हैं ऐसी स्थिति में संविधान बचाओ, देश बचाओ के नारे के इर्द-गिर्द इन मुद्दों पर गैर भाजपा दलों की एकजुटता संभव है।
जिस तरह की एकजुटता कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के द्वारा बनाई जा गई है, उस तरह की एकजुटता यदि बिहार प्रदेश के चुनाव और मध्य प्रदेश के उप चुनाव के पहले बन जाती तब उसका असर चुनाव पर भी जरूर पड़ता, लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ। क्यों इसका जबाब जनता चाहती है?
जिस तरह 1967 में गैर कांग्रेसवाद की ऐतिहासिक जरूरत थी आज गैर भाजपावाद देश की तात्कालिक जरूरत बन गई है। 1974 की स्थिति बन रही है। जनता संघर्ष को तैयार है। देश के विपक्षी दलों को कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियों से सबक लेकर न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर एकजुट होना चाहिए। साथ-साथ जम्मू-कश्मीर में हुई एकता का स्वागत करते हुए समर्थन भी करना चाहिए। यह देश की संघीय व्यवस्था को बचाने के लिए भी आवश्यक है।
(डॉ. सुनीलम समाजवादी नेता हैं। आप मध्य प्रदेश विधानसभा के विधायक भी रह चुके हैं।)
+ There are no comments
Add yours