Thursday, April 25, 2024

परशुराम नहीं बुद्ध और कबीर की राह पर चलिए तेजस्वी जी

प्रिय तेजस्वी यादव जी,

कुछ दिन पहले मैं राजधानी पटना में था। तभी सोशल मीडिया पर आप की एक तस्वीर कुछ दोस्तों ने शेयर की। तस्वीर में आप किसी ‘परशुराम जयंती’ में बोल रहे थे।

आप की आलोचना में जब मैंने सोशल मीडिया पर कुछ कॉमेंट्स पढ़े तो सब से पहले मैंने पूरे मामले को जानना चाहा। तुरंत आप के ट्विटर प्रोफ़ाइल पर गया और पाया कि आप वाकई 3 मई को परशुराम जयंती को संबोधित कर रहे थे।

आप ने अपनी छाया के साथ एक लम्बी पोस्ट में लिखा था: “जब हम समाजवाद और सामाजिक न्याय की बात करते हैं तो यह सब को साथ लेकर चलने का सिद्धांत, नीति और विचार है। सामाजिक न्याय किसी को Exclude करने का नहीं बल्कि सबको Include करके आगे बढ़ने का तरीका है”।

सच कह रहा हूँ आप की पोस्ट पढ़कर काफ़ी मायूसी हुई। आप के अंदर में भी सवर्णों के वोट के ख़ातिर नरम हिंदुत्व की तरफ़ भटकाव का ख़तरा नज़र आया। यह भटकाव कोई नया नहीं है। सामाजिक न्याय की तहरीक से निकले बहुत सारे नेता आज कमंडल थामे घूम रहे हैं। अपने ख़्वाबों का गला उन्होंने सिर्फ़ सत्ता हासिल करने के लिए घोंटा।

पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी ‘हाथी’ को ‘गणेश’ बनाने का प्रयोग हुआ है और ‘जय भीम’ के नारे को ‘जय श्री राम’ के नारों में डुबोने की कोशिश की गई है। अम्बेडकर के नाम पर बनी पार्टी ने सिर्फ़ सवर्णों के वोट के लिए अपनी विचारधारा का खून किया। मगर मिला कुछ भी नहीं। ऊंची जातियों ने ठेंगा दिखा दिया।

मुक़ाबले में खुद को पिछड़ते देख, उत्तर प्रदेश के एक अन्य नौजवान बैकवर्ड नेता ने भी नरम हिंदुत्व का कार्ड खेला। उन्होंने भी परशुराम की बड़ी भव्य प्रतिमा बनाने की बात कही। मगर ऊंची जाति के वोटरों ने हिंदुत्व के नाम पर वोट दिया और सामाजिक न्याय और अम्बेडकरवादी दलों को मुँह की खानी पड़ी।

जितनी मेहनत बहुजन और सामाजिक न्याय के लीडर सवर्णों को अपनी तरफ़ करने के लिए करते हैं, अगर उसका एक छोटा सा भी हिस्सा वे दबे कुचलों के पास जाकर लगाते तो हालात कुछ और ही होते। आज कल तो सोशल जस्टिस पार्टी के नेताओं के मुंह पर ‘मुसलमान’ शब्द न बोलने का सेन्सर लगा हुआ है। दुर्भाग्य देखिए कि अकलियत तबका, जो समाजवादी विचारधारा के साथ सच्चे मन से खड़ा है और उस पर हर तरफ से हमला हो रहा है, उसे आज सोशल जस्टिस के लीडर भी नहीं पूछते।

तेजस्वी जी जामिया का छात्र मीरान हैदर आप की ही पार्टी का परचम लेकर दौड़ता था। सालों से वह झूठे मामलों में जेल में बंद है, आप ने भी तो कभी उसका हाल-चाल नहीं लिया? क्या मीरान का क़सूर यही है कि वह एक ख़ास धर्म से आता है?

परशुराम जयंती के मौक़े पर आप के बयान पर फिर से लौट आते हैं। मेरा पहला सवाल आप से यही है कि आप इतने ‘डिफेंसिव’ क्यों हैं? आप के बयान को पढ़कर ऐसा लग ही नहीं रहा था कि आप शोषित वर्ग़ की राजनीति करते हैं।

ऐसा मैं इसलिए क़ह रहा हूँ कि समाज में दलित, आदिवासी, बैकवर्ड क्लास, अकलियत, महिला किसी को ‘एक्सक्लूड’ नहीं करता। दरअसल ऊंची जाति, पैसे वाले, सामंती और धर्म के ठेकेदार बहुजनों को हज़ारों सालों से बराबर का इंसान नहीं समझते और उनका का शोषण करते हैं। क्या यह बात आप से छिपी है कि आज भी दलित समाज से आने वाले 70 फीसद के करीब लोग या तो पूरी तरह से भूमिहीन हैं या एक मामूली ज़मीन का टुकड़ा उनके पास है। उसी तरह आदिवासी समाज भी शोषण का शिकार है और उनको लगातार जल, जंगल और ज़मीन से महरूम किया जा रहा है। आज आदिवासी इलाक़ों में भरी मात्रा में सैनिक बल मौजूद हैं। यह सब उनको डराने और उनके संसाधन छीनने की नई तैयारी है।

अकलियतों के ऊपर हर रोज हमला हो रहा है। करोड़ों मुसलमानों ने कुछ दिन पहले ईद की नमाज अदा की, मगर उससे किसी भी हिन्दू इलाक़ों में परेशानी नहीं हुई, मगर जब रामनवमी का जुलूस निकलता है तो आख़िर क्यों मुस्लिम इलाक़ों को हिंसा की चपेट में ले लिया जाता है? आप को मालूम है कि कुछ लोग जानबूझ कर राजनीतिक फायदे के लिए मुसलमानों पर हमला करते हैं।

इफ़्तारी पार्टी देने में कोई हर्ज नहीं है मगर सब से अहम है कि आप मज़लूम मुसलमानों के साथ खड़े हों। अपने समर्थकों के बीच आप को साफ तौर से यह पैगाम देना चाहिए कि मुसलमान, ईसाई, सिख पर अगर हमला हुआ तो उनकी रक्षा के लिए समाजवादी कार्यकर्ता सब से आगे रहेंगे।

बैकवर्ड क्लास के भी मसाइल कम नहीं हैं। आज भी वह ग्रामीण इलाक़ों में सामंती व्यस्था से प्रताड़ित हैं। आज भी उनको बराबरी हासिल नहीं हुई है। संसाधन पर आज भी ऊंची जाति के लोग क़ाबिज़ हैं। कालेज, यूनिवर्सिटी, मीडिया, नौकरशाही, न्यायपालिका में ओबीसी कहीं नज़र नहीं आते। जो अति पिछड़ा हैं, उनको तो हर तरफ़ से मार पड़ती है। आप की पार्टी में भी उनका प्रतिनिधित्व उनकी आबादी से कहीं कम है।  

भारत जैसे ग़ैरबराबरी पर आधारित समाज को बदलने के लिए आप के पिताजी लालू प्रसाद ने 1980 और 1990 के दशक में बड़ा ही क्रांतिकारी काम किया था। उन्होंने महान समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर की विरासत को आगे बढ़ाया था। मगर अभी भी सामाजिक न्याय की दिशा में मीलों चलने की ज़रूरत है। इस अधूरे काम को आप पूरा कर सकते हैं, मगर अगर आप में भटकाव आ गया तो यह समानता की लड़ाई में बड़ा धक्का लगेगा।

याद रखिए नरम हिंदुत्व की राह पर चल कर आप व्यतिगत लाभ तो ले लेंगे मगर आप जनता के साथ धोखा करेंगे। क्या आप यह भूल गए हैं कि एक साजिश के तहत लालू को फंसाया गया। उनकी जगह लेने के लिए सवर्ण जातियों ने स्वार्थी लोगों को आगे किया। देखने में ये स्वार्थी लीडर पिछड़े समाज से आते हैं, मगर वे सवर्णों के पक्ष में काम करते हैं। ऐसे ही लोग कई सालों से बिहार की हुक्मरानी कर रहे हैं। आप को सवर्णों की राजनीति को हल्के में नहीं लेना चाहिए और ऐसे प्लेटफार्म पर नहीं जाना चाहिए जिन के दिलों में सामंती और जातिवादी रणवीर सेना के लिए हमदर्दी हो।

इस लिए मेरी आप से गुजारिश है कि आप को सवर्णों की महफिल में जाकर अपनी विचारधारा का मज़ाक़ ना उड़वाएं। आप को उनके सामंती और ब्राह्मणवादी दरबार में जाकर शर्मिंदा होने की भी जरूरत नहीं है। यह इसलिए कि आप शोषित वर्ग़ की राजनीति करते हैं। हम सब आप को शेर की तरह जुल्म के ख़िलाफ़ गरजते देखना चाहते हैं। परशुराम जयंती में अपना वक़्त गुजारने से ज़्यादा अहम है कि आप दलित, आदिवासी, अकलियत और पिछड़े वर्ग के इलाकों में जाइए और उनको संगठित कीजिए।

मैं इस बात से सहमत हूं कि सवर्ण जाति के अंदर में भी एक तबका गरीब है। मगर उनकी गरीबी की वजह उनके साथ सामाजिक भेदभाव नहीं है। उनकी समस्या का हल होना चाहिए, मगर उस का रास्ता परशुराम जयंती का आयोजन  नहीं है, बल्कि आर्थिक आधिकारों के लिए लड़ना है और संविधान के अंदर मौजूद लोक कल्याणकारी नीतियों को जमीन पर लागू होने के लिए आंदोलन खड़ा करना है। आप को मालूम है कि देश में निजीकरण और ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ लोगों की हालत खराब कर दी है।

आप बेशक सवर्ण समाज के बीच जाइए, मगर वहां पर आप का एजेंडा प्रगतिशील होना चाहिए। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान आप ने रोज़ी रोटी की बात की थी, आप की विचारधारा को यही शोभा देता है।

मेहरबानी करके आप नरम हिन्दुत्व की तरफ मत जाइए। आप को अपने पिताजी से सीखना चाहिए। उन्होंने कभी भी सांप्रदायिकता के सवाल पर समझौता नहीं किया।

जिसको परशुराम जयंती मनानी हो वो मनाए, मगर आप को वहाँ जाने से गुरेज़ करना चाहिए क्योंकि हमारे आदर्श कोई और हैं। बुद्ध, कबीर, महात्मा फुले, पेरियार, लोहिया और अंबेडकर की परंपरा ही सामाजिक न्याय की विरासत है।

सोशल जस्टिस की विचारधारा को मानने वाले किसी भी शख़्स को किसी ब्राह्मण से कोई बैर नहीं है। हम सब उनके कल्याण के लिए ख़्वाहिशमंद हैं। मगर हमें ब्राह्मणवादी विचारधारा से दूर-दूर का भी नाता नहीं होना चाहिए।

परशुराम जयंती के आयोजकों से क्या आप ने पूछा कि वह ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व के बारे में क्या सोचते हैं? क्या परशुराम जयंती के आयोजक भारत के सेक्युलर और सोशलिस्ट दस्तूर में यक़ीन रखते हैं?

आख़िर में एक बात अर्ज़ करना चाहता हूँ कि जिस वक्त आप परशुराम जयंती में बोल रहे थे उस वक्त पटना की सड़कों पर परशुराम जयंती के आयोजक आप के पिताजी लालू प्रसाद के खिलाफ जहर उगल रहे थे और सामाजिक न्याय की सरकार को उलटने की कसम ले रहे थे। श्री भगवान परशुराम जन्मोत्सव से जुड़े एक पोस्टर पर लिखा था कि “बहुत हो गया लालू, नीतीश सरकार [का] अत्याचार, अबकि बार हिंदू ब्रह्मर्षि पुत्र विवेक सरकार”।

इस ख़त में मैंने जो सोचा आप को कह डाला। मुझे मालूम नहीं कि मुझ जैसे मामूली आदमी की आवाज आप के कानों तक पहुंच पाएगी या नहीं?

(अभय कुमार जेएनयू में शोध छात्र हैं और वह अपना एक यूट्यूब चैनल भी चलाते हैं।)

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