पहले यह बयान पढ़े, “हम नफरत की सार्वजनिक अभिव्यक्ति के साथ हिंसा के लिए इस तरह के उकसावे की अनुमति नहीं दे सकते हैं, जो न केवल आंतरिक सुरक्षा के लिये गम्भीर खतरा है, बल्कि हमारे राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने को भी नष्ट कर सकता है।”
यह बयान किसी राजनीतिक व्यक्ति या सामाजिक कार्यकर्ता का नहीं है, बल्कि यह बयान है, देश की सशस्त्र सेनाओं की कमान संभाल चुके पांच पूर्व सेनाध्यक्षों का। भारतीय सेना दुनिया की उन चंद प्रोफेशनल सेनाओं में प्रमुख स्थान रखती है, जो न केवल राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर रहती है, बल्कि उसका स्वरूप संविधान की मंशा के अनुरूप ही, सेक्युलर और अराजनीतिक है। यह बयान सेना प्रमुखों के मन में उपज रहे अनेक आशंकाओं का संकेत देता है और यह बताता है कि हाल ही में हरिद्वार में धर्म संसद के नाम पर जो कुछ भी, भगवाधारी कथित संतों द्वारा, आचरण, बयानबाजी और भाषणबाजी की गई है और उपस्थित जन समुदाय को, जिस भड़काऊ शब्दावली में मरने, मारने और नरसंहार कर के कथित रूप से हिंदू राष्ट्र की स्थापना में जुट जाने की शपथ दिलाई गयी है, वह न केवल संविधान के विपरीत एक दंडनीय अपराध है, बल्कि वह एक प्रकार से राष्ट्र के विखंडन का षड्यंत्र भी है।
अब आप पूर्व सेनाध्यक्षों द्वारा जो पत्र राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को लिखा गया है, के कुछ अंशों को यहां पढ़ें, “हम सब हरिद्वार में हिंदू साधुओं और अन्य नेताओं द्वारा दिए गए भड़काऊ भाषणों से आहत हैं। 17 से 19 दिसंबर के बीच हरिद्वार में आयोजित धार्मिक सम्मेलन में साधुओं और अन्य नेताओं ने भारतीय मुसलमानों का नरसंहार करने को कहा, इसके साथ ही ईसाइयों और सिखों जैसे अन्य अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया। भारत के सभी सैन्य बल, थल सेना, वायु सेना, नौसेना अर्धसैनिक बल और पुलिस देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं। हमने भारत के संविधान की शपथ ली है कि देश के धर्म निरपेक्ष माहौल को कभी खराब नहीं होने देंगे। हरिद्वार में हुए इस तीन दिवसीय धार्मिक आयोजन में बार-बार देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का आह्वान किया गया। इसके साथ ही जरूरत पड़ने पर हिंदू धर्म की रक्षा के नाम पर हथियार उठाने और विशेष समुदाय के नरसंहार की बात कही गई।”
पत्र में आगे लिखा गया है, “हमारे देश की सीमाओं पर वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए, अगर कोई देश के भीतर शांति और सद्भाव को भंग करने की कोशिश करेगा, तो इससे हमारे दुश्मनों को बढ़ावा मिलेगा। यही नहीं, इस तरह की भड़काऊ बयानबाजी से न केवल देश के नागरिकों के बीच का भाईचारा बिगड़ेगा बल्कि सैन्य बलों में कार्यरत हमारे वर्दीधारी भाई-बहनों में भी फूट पड़ सकती है। हम किसी को भी इस तरह से सार्वजनिक मंच से खुले तौर पर हिंसा करने के लिए इजाजत नहीं दे सकते हैं। यह देश की आंतरिक सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द के लिए खतरनाक है।”
इस पत्र पर सशस्त्र बलों के पांच पूर्व प्रमुखों के हस्ताक्षर हैं। रिटायर्ड एडमिरल लक्ष्मी नारायण दास, रिटायर्ड एडमिरल आरके धवन, रिटायर्ड एडमिरल विष्णु भागवत, रिटायर्ड एडमिरल अरुण प्रकाश और रिटायर्ड एयर चीफ मार्शल एसपी त्यागी की तरफ से साइन किए गए इस पत्र में हरिद्वार में आयोजित किए गए धर्म संसद के नाम पर खासी चिंता जताई गई है।
पत्र में यह भी लिखा गया कि, “इस कार्यक्रम में जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया, वो हिंसा उकसाने वाली है। हरिद्वार धर्म संसद में शामिल लोगों ने एक समुदाय विशेष के नरसंहार के लिए आर्मी के लोगों से भी हथियार उठाने की बात कही है। देश की सेना से, देश के ही लोगों के नरसंहार की बातें कहना न केवल निंदनीय है बल्कि अस्वीकार्य भी है।”
पत्र में अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों से अपील की गई कि वो अपने कार्यकर्ताओं पर लगाम लगाएं और इस तरह की भड़काऊ बयानबाजी की एक सुर में निंदा करें। राजनीतिक पार्टियों के अध्यक्षों से यह भी कहा गया कि वो राजनीति करने के लिए धर्म का प्रयोग ना करें।
इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम की शुरूआत हुयी है, हरिद्वार से। हरिद्वार में, 17-19 दिसंबर को आयोजित एक तथाकथित ‘धार्मिक सम्मेलन‘ में हिंसा के खुले तौर पर लोगों को उकसाया गया। अल्पसंख्यकों से ‘लड़ने, मरने और उन्हें मारने‘ की शपथ दिलाई गयी। हर हिंदू को हथियार उठाने और अल्पसंख्यकों को खत्म करने के लिए एक “सफाई अभियान” शुरू करने का आह्वान किया। महात्मा गांधी को गालियां दी गयीं। उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे का प्रशस्ति गान किया गया। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के प्रति हिंसा की धमकी दी गई थी। ऐसा लगा कि यह किसी धर्म के धर्माचार्यों का जमावड़ा नहीं बल्कि आतंकियों के सरगनाओं का एक संगठित गिरोह है, जो धर्म की आड़ में देश मे आतंक फैलाने की योजनाएं बना रहा है और उसकी घोषणा कर रहा है। यह बेहद दुःखद और आक्रोशित करने वाली बात है कि, अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई और जातिगत विविधता में विशिष्ट रूप से समृद्ध एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में धर्म के नाम और आड़ में खुल कर हिंसा और नरसंहार का आह्वान किया जा रहा है।
इस धर्म संसद या घृणा सभा के आयोजन के पहले, देश के अन्य भूभाग में इसी तरह की चिंताजनक और विचलित करने वाली घटनाएं हो चुकी थीं। जैसे, गुरुग्राम में जुमा की नमाज़ में बार-बार जानबूझकर कर हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा रुकावट डालना, चर्चों में आयोजित प्रार्थना सभा में व्यवधान, क्रिसमस के अवसर पर, कर्नाटक, असम और हरियाणा में चर्चों में तोड़फोड़ की घटनाएं हैं। इन घटनाओं को अंजाम देने वाले, संगठन या तो सरकार से जुड़े हैं या खुद को कट्टर हिंदुत्ववादी कहते हैं। इन सभी अप्रिय घटनाओं के पीछे एक सामान्य सूत्र है राजनीतिक प्रतिष्ठान और सरकार की, पूरी चुप्पी और हर जगह पुलिस बलों द्वारा बेधड़क हो, इन पर कोई त्वरित कार्यवाही न करना और कहीं कहीं तो पीछे हट जाना। लगता है, कोई स्पष्ट संदेश दिया जा रहा है कि भीड़ और फ्रिंज समूह कानून को अपने हाथ में ले सकते हैं, धमकी दे सकते हैं या वास्तव में हिंसा कर सकते हैं, जब तक कि वे बहुमत के धर्म के ‘कारण‘ में काम करने का दावा करते हैं।
हरिद्वार और छत्तीसगढ़, दोनों ही जगहों पर जो आयोजन हुआ, उसमे नफरती भाषणों के साथ-साथ वक्ताओं के मुख्य निशाने पर महात्मा गांधी रहे। अब गांधी से इन हिंदुत्ववादी भगवाधारी लोगों का विरोध क्यों है, यह समझना कोई बहुत जटिल गुत्थी नहीं है। गांधी एक सनातनी हिंदू व्यक्ति की तरह जीवनपर्यंत रहे, और यह नियति का दुःखद पक्ष ही रहा कि एक धर्मांध हिंदुत्ववादी ने उनकी हत्या कर दी। कारण, गांधी उस राजनीतिक धर्मांध राष्ट्रवाद के खिलाफ थे जिसके पैरोकार मुस्लिम लीग के सर्वेसर्वा एमए जिन्ना और हिन्दुत्व की विचारधारा के प्रतिपादक, वीडी सावरकर थे। गांधी तब भी अकेले नहीं थे और न अब भी वे अकेले हैं। तब भी पूरा देश, ‘चल पड़े कोटि पग उसी ओर, जिस ओर पड़े दो डग मग में‘ की भावना के साथ उनके साथ खड़ा था, और धर्मांधता के द्विराष्ट्रवाद को ठुकरा कर एक प्रगतिशील, लोकतंत्र और सेक्युलर देश का मार्ग चुन रहा था। पचहत्तर साल पहले, जिस जहर बुझी विचारधारा को देश नकार चुका है उसे आज, कालनेमि जैसे पाखंडी धर्माचार्यों के माध्यम से सत्तारूढ़ दल और उसका हिंदुत्ववादी थिंकटैंक पुनः लागू करना चाहता है। पर ऐसा करना, आसान भी नहीं है।
देश का हित सोचने वाले, तर्कसंगत राजनेताओं को यह सोचना होगा कि भले ही इस तरह की प्रतिकूल और अनैतिक चालें उन्हें चुनाव जीतने में मदद कर दें, पर यह एक प्रकार से, राजनीतिक भस्मासुर को जिंदा करना होगा, जो निश्चित रूप से पूरे देश को नष्ट करने से पहले उन्हें तहस नहस कर देगा। भारत से ही कट कर बना देश पड़ोसी पाकिस्तान इसका एक उदाहरण है। पाकिस्तान ने जैसे ही धार्मिक कट्टरवाद को जिया उल हक के कार्यकाल में, राज्य की मुख्य नीति के रूप में स्वीकार किया, और धार्मिक अल्पसंख्यकों और यहां तक कि कुछ गैर-अनुरूपतावादी मुसलमानों को भी उत्पीड़ित करना शुरू कर दिया वह एक कट्टर देश तो बना ही आतंकियों की पनाहगाह भी बन गया।
याद कीजिए, पूर्व सीडीएस, जनरल विपिन रावत ने, ‘ढाई मोर्चे के युद्ध‘ की संभावना के बारे में चेतावनी दी थी। इनमे “दो मोर्चों” स्पष्ट रूप से हमारे परमाणु सम्पन्न सशस्त्र विरोधियों, चीन और पाकिस्तान हैं और आधा मोर्चा देश के आंतरिक भाग में सक्रिय आतंकी और नक्सली गिरोह हैं। ऐसे चुनौती भरे सुरक्षा परिदृश्य में, यदि कोई धार्मिक और साम्प्रदायिक विभाजनकारी खतरा उठ गया तो यह आंतरिक खतरा सीमा पर उठने वाले खतरे से कम घातक नहीं होगा। जिस तरह की, मरने, मारने, काट डालो, सफाया कर दो, की शपथ धर्म के चोले में अपराधी तत्व दिला रहे हैं वह एक ऐसे गृहयुद्ध की ओर देश को धकेल रहे हैं, जहां केवल बर्बादी ही होगी।
सहनशीलता एक आत्मविश्वासी और गतिशील सभ्यता की पहचान है। इसलिए, भारत के हिंदुओं को अपनी गौरवपूर्ण पहचान में विश्वास बनाए रखना चाहिए। चुनाव आते रहते हैं और चले जाते हैं, यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, लेकिन भारत के राजनीतिक दलों और जनता को, यह समझना चाहिए कि, भारत जैसे बहुलतावादी समाज में, किसी भी प्रकार का धार्मिक ध्रुवीकरण हमारे राष्ट्रवाद के नाजुक ताने-बाने को एक ऐसी घातक क्षति पहुंचा सकता है, जिसकी भरपाई बेहद मुश्किल होगी। भारत का सर्वोच्च राष्ट्रीय हित इसी में है कि, हम सामाजिक सद्भाव को बनाये रखते हुए जनता की मूलभूत समस्याओं, रोजी, रोटी, शिक्षा स्वास्थ्य पर अपना ध्यान केंद्रित करें और एक प्रगतिशील समाज बनने की ओर अग्रसर हों जहां सामाजिक और आर्थिक विषमता कम से कम हो।
अमूमन, सेना के जनरल साहबान, इस तरह के पत्र राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को नही लिखते हैं। पर सुरक्षा की बारीकियों की समझ रखने के कारण, वे क्षितिज पर उठ रहे अशनि संकेत को साफ साफ देख पा रहे हैं। अन्य सिविल सेवा के बड़े अफसर, पत्रकार, शिक्षक, अधिवक्ता समुदाय, सरकार को अक्सर पत्र लिख कर, अपनी वेदना और असन्तोष को अभिव्यक्त करते रहते है, पर आज जब सेना के जनरल उन खतरों को भांप कर सरकार से, ऐसे आतंकी बयान देने और घृणा सभा करने वालों के खिलाफ कार्यवाही करने के बारे में खुल कर कह रहे हैं, तो हमे खतरे की गुरुता का अंदाजा लग जाना चाहिए। पर अफ़सोस इस बात का भी है सत्तारूढ़ दल और राष्ट्रवाद, राष्ट्रभक्ति का स्वयंभू ठेकेदार समझने वाले, संघ परिवार के किसी भी महत्वपूर्ण नेता ने इस कथित धर्म संसद में की गयी, ऐसी आपत्तिजनक बयानबाजी पर एक शब्द भी नहीं कहा। यह संयोग है या प्रयोग, इसका निर्णय आप स्वतः करें।
क्या दुनिया में ऐसी भी कोई, सरकार हो सकती है जो यह चाहती हो कि उसके देश या प्रदेश, जिसपर पर शासन करती है, शासन करने के लिये जनता द्वारा चुनी गई है, उक्त देश के अंदर अराजकता का वातावरण फैले ? समाज में वैमनस्य फैले ? कानून व्यवस्था की समस्या समय-समय पर पैदा हो? सामान्य तौर पर इसका उत्तर होगा भला कोई सरकार अपने देश प्रदेश में अराजकता क्यों चाहेगी ? सामाजिक वैमनस्यता क्यों चाहेगी ? पर यदि आप 2014 के बाद देश के सामाजिक ताने-बाने का अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि देश की सरकार और सत्तारूढ़ दल, और इनका थिंकटैंक देश के हर उस कदम पर खामोश बना रहता है, जिससे समाज के ताने-बाने के टूटने का खतरा हो सकता है। सरकार कभी भी ऐसे तत्वों के खिलाफ, उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने के लिये दृढ़संकल्प के साथ, खड़ी ही नहीं होती है, जो धर्म और जाति के नाम पर देश में सामाजिक बिखराव पैदा करके एक ऐसा वातावरण बनाना चाहते हैं, जो अंततः, धर्म और समाज और देश के लिये घातक होगा।
ब्रिटिश राज, 1857 के विप्लव के बाद, यह बिल्कुल नहीं चाहता था कि, देश में सामाजिक समरसता का वातावरण बने और भारत में फिर वैसी ही एकजुटता हो जाय जो 1857 के विप्लव के समय देश में बन गयी थी। 1857 के विप्लव की विफलता से उन्होंने यह सीख ग्रहण की, कि, भारत में, किसी भी प्रकार की सामाजिक समरसता, ब्रिटिश राज के अस्तित्व के लिये घातक होगी। और वहीं से उनके शासन का मूलमंत्र शुरू हुआ, कि बांटो और राज करो। वे इसी रणनीति के अंतर्गत, कभी हिंदुओं तो कभी मुसलमानों के संगठनों को कभी उठाते रहे तो कभी गिराते रहे। आज़ादी की मांग एकजुटता के साथ न उठायी जा सके, इसलिए धार्मिक मुद्दे जानबूझ कर उठवाये गए और जब धर्म की प्रतिद्वंद्विता शुरू हुयी तो समाज में धर्म आधारित विभाजन तो होना ही था।
धार्मिक बिखराव या साम्प्रदायिक आधार पर बंटा हुआ समाज और देश, ब्रिटिश राज में भारत को ग़ुलाम बनाकर रखे जाने के लिये, अंग्रेजों की औपनिवेशिक रणनीति का एक हिस्सा ज़रूर था, पर आज अपनी ही कोई सरकार, या राजनैतिक दल, या राजनैतिक सोच यदि उसी पैटर्न पर एक विखंडित समाज को बनाये रखना चाहती है तो इससे देश और समाज का क्या भला होगा, यह समझ से परे है। 2014 के बाद याद कीजिए, अचानक गौरक्षा के नाम पर देश भर में हिंसक गतिविधियां और भीड़ हिंसा शुरू हो गयी, भीड़ हिंसा के अभियुक्तों का सरकार के मंत्री माल्यार्पण कर के स्वागत करने लगे, उनके मरने पर उनके शव पर तिरंगा रखने लगे, अदालत की इमारत पर तिरंगा की जगह एक धार्मिक ध्वज लगाया गया, अपराधियों और बलात्कारियों के पक्ष में खुल कर जुलूस निकाले जाने लगे, यानी हर वह कोशिश की गयी, और अब भी वह कोशिश जारी है, जिससे समाज में धार्मिक ध्रुवीकरण हो, वैमनस्यता फैले और समाज निरन्तर एक अविश्वास के वातावरण में जीने के लिये अभिशप्त हो। और यह सब केवल इसलिए कि, भावुकता के उन्माद से चुनाव जीता जा सके।
गांधी की आलोचना और निंदा से गांधी के महान व्यक्तित्व और उनकी वैश्विक स्वीकारोक्ति पर, रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। वे जहां प्रतिष्ठित हो चुके हैं वहां से उन्हें बेदखल करने की हर कोशिश नाकाम होगी। पर देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के नरसंहार का आह्वान और एक थियोक्रैटिक (धर्म आधारित) राज्य की स्थापना का शपथ ग्रहण, बच्चों और युवाओं के मन मस्तिष्क में धर्मांधता का यह घातक इंजेक्शन, देश समाज और अन्ततः इस महान हिंदू धर्म के लिये भी विनाशकारी ही होगा।
(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)