कोरोना की दूसरी लहर, विशेषज्ञों की राय और आपदा कुप्रबंधन

Estimated read time 1 min read

किसी जमाने में जब अदालतें न्यायिक निर्णयों के बजाय कार्यपालिका से जुड़े मामलों में दखल देने लगती थीं तो इसे न्यायिक सक्रियता का दौर कहा जाता था और इसकी आलोचना भी होती थी और सराहना भी। आलोचना इसलिये कि कुछ समीक्षक इसमें शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत, के असंतुलित हो जाने की बात करते थे, और जो सराहना करते हैं, वे इसे कार्यपालिका के निष्क्रिय हो जाने पर न्यायपालिका द्वारा वक़्त पर खड़े होने का तर्क देते थे। संविधान में सुप्रीम कोर्ट को असीमित शक्तियां प्राप्त हैं और कार्यपालिका के सुस्त होने पर अदालत उन्हीं शक्तियों के अंतर्गत अपने असाधारण अधिकारों का प्रयोग करती है। ऐसा ही एक प्रयोग सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कोरोना आपदा में ऑक्सीजन की किल्लत को लेकर किया है।

जब देश में ऑक्सीजन दवाओं और बेड की किल्लत हुयी, तो विभिन्न उच्च न्यायालयों ने अपनी-अपनी राज्य सरकारों के खिलाफ नोटिसे जारी कीं और उनसे व्यवस्था सुधारने के लिये कहा। सबसे महत्त्वपूर्ण और कठोर टिप्पणियां मद्रास और इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कीं। मद्रास हाई कोर्ट ने चुनावी रैलियों पर तल्ख टिप्पणी की और 26 अप्रैल को सुनवाई के दौरान कहा, “जब चुनावी रैलियां हो रहीं थीं, तब आप दूसरे ग्रह पर थे क्या? रैलियों के दौरान टूट रहे कोविड प्रोटोकॉल को आपने नहीं रोका। बिना सोशल डिस्टेंसिंग के चुनावी रैलियां होती रहीं। आज के हालात के लिए आपकी संस्था ही जिम्मेदार है। चुनाव आयोग के अफसरों पर तो संभवत: हत्या का मुकदमा चलना चाहिए।”

इसी प्रकार इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी राज्य सरकार से लॉकडाउन लगाने की सिफारिश की, लेकिन पंचायत चुनाव के कारण राज्य सरकार इसे टालती रही और जब पंचायत चुनाव के नतीजे आ गए तब सरकार ने लॉकडाउन लगाया है, जो 17 मई तक फिलहाल चलेगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी कोरोना में बदइंतजामी से मरने वालों को राज्य द्वारा किये जा रहे नरसंहार कह कर एक बेहद तल्ख टिप्पणी की है।

अंत में यह सभी मामले सुप्रीम कोर्ट में गए और वहां पर भी जस्टिस चंद्रचूड़ की बेंच ने सरकार से कई गंभीर सवाल किये जो अस्पतालों में हो रही बदइंतजामी और ऑक्सीजन की किल्लत से जुड़े थे। सरकार ने आनन फानन में ऑक्सीजन का आयात किया, और दुनिया भर के अनेक देशों में जिसमें से अनेक विकासशील देश भी हैं, ने ऑक्सीजन और अन्य सामग्री भेजी। वर्ष 2005 में भारत सरकार ने खुद को किसी आपदा से निपटने के लिये सक्षम पाते हुए, किसी भी देश की सहायता स्वीकार न करने का नियम बनाया पर आज सरकार की अदूरदर्शिता और प्रशासनिक अक्षमता से, भारत को भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे अपेक्षाकृत कम विकसित देशों की मदद भी लेनी पड़ रही है।

वैज्ञानिकों और हेल्थ एक्सपर्ट की राय, कि कोरोना की दूसरी लहर आ सकती है और वह अधिक घातक होगी, पर सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की और आज लाखों लोग इलाज के अभाव में तड़प-तड़प कर मर रहे हैं। सरकार ने विषेषज्ञों की राय की अनदेखी की। पिछले एक साल में इस आपदा से निपटने के लिये अस्पताल, बेड, ऑक्सीजन, दवाओं की व्यवस्था के बारे में न तो कुछ सोचा गया और न ही कुछ किया गया। सरकार की भूमिका पर निम्न सवाल स्वाभाविक रूप से उठते हैं,
● एक्सपर्ट पैनल की रिपोर्ट कब-कब सरकार को मिली।
● कब उस पर कार्य योजना बनाने के लिये अधिकारी स्तर की बैठक हुयी।
● कब मंत्रिमंडल ने उस पर विचार किया और राज्य सरकारों को आगाह किया?
● कब राज्य सरकारों के साथ केंद्र के अधिकारियों और एक्सपर्ट पैनल की बैठक हुई और आपदा की गम्भीरता की समीक्षा की गयी?
● क्या सरकार ने पिछले एक साल में कोई ऐसी मीटिंग राज्य के मुख्यमंत्रियों के साथ की और जिसमें मेडिकल साइंस के एक्सपर्टस की राय का आदान प्रदान किया गया।
● क्या सरकार के पास जनपद से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक का ऐसा कोई डेटाबेस है, जिसमें निजी, सार्वजनिक और धर्मार्थ अस्पतालों में बेड, आईसीयू, डॉक्टर, मेडिकल स्टाफ, अन्य जीवन रक्षक उपकरणों की सूची तैयार की गयी हैं और उसे अद्यावधिक किया जा रहा हो?

यह सब डेटाबेस जब कोरोना आपदा की पहली लहर कम हो रही थी, तभी सरकार को तैयार कर लेना चाहिए था। सरकार के पास पर्याप्त समय भी था और उसके पास धन की व्यवस्था भी पीएम केयर्स फ़ंड के रूप में थी, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया और जब लोग ऑक्सीजन, दवाओं, अस्पतालों में बेड और डॉक्टरों के अभाव में मरने लगे तो सरकार नींद से जागी और स्थिति अब यह है कि सरकार खुद ही आलमे बदहवासी में है।

टास्क फोर्स गठन का जो काम सरकार को करना चाहिए वह काम सुप्रीम कोर्ट कर रहा है। हालांकि नीति आयोग के सदस्य डॉ. पॉल के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स का गठन सरकार ने पहले से कर रखा है, पर उस टास्क फोर्स के पास कौन-कौन ने टास्क थे, और इस आपदा के संबंध में उसने किया क्या है, इन सब की कोई भी अधिकृत जानकारी नहीं है। जब कोरोना के संदर्भ में शीर्ष अदालत ने सरकार से दूसरी लहर के संबंध में की गयी तैयारियों के बारे में पूछताछ करनी शुरू कर दी तो, सरकार ने कहा कि उसे दूसरी लहर की भयावहता का अंदाजा नहीं था।

यहीं यह सवाल उठता है कि इस आपदा की दूसरी लहर के बारे में जब दुनिया भर के चिकित्सा वैज्ञानिक लगातार सरकारों को आगाह कर रहे थे तो, हमारी सरकार इस आपदा की मेडिकल इंटेलिजेंस जुटाने में क्यों असफल रही? डॉ पॉल के नेतृत्व में गठित टास्क फोर्स के टास्क में क्या यह टास्क था भी? क्या सरकार को इस संदर्भ में जांच नही करनी चाहिए?

सुप्रीम कोर्ट में कुछ प्रदेशों की तरफ से याचिका दायर की गई हैं, जिसमें बीते दिनों से सुनवाई चल रही है। देश में मेडिकल ऑक्सीजन की बेहद कमी देखने को मिल रही है। इससे सभी राज्य, केंद्र सरकार से मांग कर रहे हैं कि जल्द से जल्द ऑक्सीजन उपलब्ध कराया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को फटकार लगाते हुए कहा है कि ऐसे हालात पैदा न करें कि हमें सख्त फैसला लेना पड़े।

स्थिति को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने ऑक्सीजन की उपलब्धता और भविष्य की चुनौतियों पर काम करने के लिये एक टास्क फोर्स का गठन किया है, जो ऑक्सीजन सहित जरूरी दवाओं की उपलब्धता के लिए उपायों पर सुझाव देगी। साथ ही कोविड-19 से निपटने के लिए भविष्य की चुनौतियों पर काम करेगी। टास्क फोर्स के गठन के पीछे मुख्य वजह ऑक्सीजन की जरूरत और आपूर्ति जैसे कुछ सवालों की सटीक रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को चाहिए।

मीडिया के अनुसार, इस टास्क फोर्स का नेतृत्व पश्चिम बंगाल स्वास्थ्य विज्ञान यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति डॉ. भबतोष विश्वास द्वारा किया जाएगा। इसमें डॉ. देवेंद्र सिंह राणा (चेयरपर्सन बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट, सर गंगाराम अस्पताल दिल्ली), देवी प्रसाद शेट्टी, डॉ. गगनदीप कांग, डॉ. जेवी पीटर, डॉ. नरेश त्रेहान, डॉ. राहुल पंडित, डॉ. सौमित्र रावत, डॉ. शिव कुमार सरीन, डॉ. जरीर एफ उदवाडिया, सेक्रेटरी मिनिस्ट्री ऑफ हेल्थ एंड फैमिली वेलफेयर और कनविनर ऑफ द नेशनल टास्क फोर्स के सदस्य शामिल होंगे।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं था कि विशेषज्ञ, सरकार को आगाह नही कर रहे थे। आईएमए ने कुछ दिन पहले जारी एक बयान में कोरोना वायरस की स्थिति से निपटने के लिए सही कदम न उठाने को लेकर केंद्र सरकार की आलोचना की है और राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का समर्थन किया है। आईएमए ने एक बयान जारी कर कहा, “आईएमए कोविड-19 महामारी की विनाशकारी दूसरी लहर से पैदा हुए संकट से निपटने में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के बेहद सुस्त और अनुपयुक्त तरीक़ों को देखकर हैरान है।

सामूहिक चेतना, आईएमए व अन्य पेशेवर सहयोगियों द्वारा किए गए अनुरोधों को कूड़ेदान में डाल दिया जाता है, और अक्सर ज़मीनी हकीकत को समझे बिना निर्णय ले लिए जाते हैं। आईएमए कुछ राज्यों में 10 या 15 दिनों के लॉकडाउन के बजाय योजनाबद्ध और पूर्वघोषित संपूर्ण लॉकडाउन के लिए ज़ोर देता रहा है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे को संभालने का वक़्त सरकार को मिल सकेगा।”

आईएम के अध्यक्ष डॉक्टर जेए जयालाल ने बीबीसी को बताया कि राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की ज़रूरत क्यों है और स्थिति से निपटने के लिए राज्यों का लॉकडाउन क्यों नाकाफ़ी है। उनके अनुसार, “लॉकडाउन से संक्रमण की चेन टूटेगी और इससे अस्पताल में आने वाले मरीज़ों की संख्या कम होगी। इस बीच स्वास्थ्य व्यवस्था के बुनियादी ढांचे को मजबूत किया जा सकेगा, लेकिन अलग-अलग जगह पर छोटे-छोटे कर्फ़्यू से कोई फायदा नहीं होने वाला है।

राज्यों में लॉकडाउन है, लेकिन लोगों का मूवमेंट अब भी जारी है।। अधिकतर सर्विसेज़ चल रही हैं। कर्नाटक में लॉकडाउन है, लेकिन आंध्र प्रदेश में नहीं है। लोग एक राज्य से दूसरे राज्य आ-जा रहे हैं। लोग ज़रूरत का सामान खरीदने के लिए सीमा पार कर रहे हैं। इससे संक्रमण फैलने का ख़तरा है, लेकिन देश में लॉकडाउन लगा तो ऐसा नहीं हो सकेगा। भले ही आप तुरंत ऐसा न करें। इसके लिए दो या तीन दिन का समय दें। ऐसे में केंद्र सरकार को सामने आकर अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए। उन्हें छिपना नहीं चाहिए।”

आईएमए का कहना है, “अब रोज़ संक्रमण के चार लाख से ज़्यादा मामले आ रहे हैं और मॉडरेट से लेकर गंभीर मामले 40 फीसदी तक बढ़ गए हैं। छिटपुट नाइट कर्फ्यू से कुछ भला नहीं होने वाला है। अर्थव्यवस्था ज़रूरी है, लेकिन जीवन अर्थव्यवस्था से ज़्यादा क़ीमती है।”

ऑक्सीजन की कमी को लेकर आईएमए ने कहा है, “ऑक्सीजन का संकट हर दिन गहराता जा रहा है और लोग इसके कारण दम तोड़ रहे हैं। इससे मरीज़ों और स्वास्थ्यकर्मियों दोनों के बीच डर पैदा हो रहा है।”

आईएमए के अतिरिक्त देश के कोरोना आपदा प्रबंधन पर सबसे तीखी टिप्पणी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त, मेडिकल जर्नल ‘लांसेट’ ने अपने एक संपादकीय में की है। संपादकीय के मुख्य अंश यहां प्रस्तुत है। संपादकीय के अनुसार, “भारत की सरकार महामारी से लड़ने के बजाय ट्विटर पर हो रही आलोचनाओं को बंद कराने में ज्यादा व्यस्त दिखाई दे रही है। सरकार के बड़े अधिकारियों ने पहले ही कोरोना पर जीत घोषित कर दी थी, जिसमें खुद स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन भी शामिल हैं। हर्षवर्धन ने कहा था कि कोरोना का भारत में खात्मा हो चुका है। इस तरह के बयान दर्शाते हैं कि भारतीय सरकार कोरोना को लेकर किस कदर लापरवाह थी। ‘सरकार ने इस तरह के संकेत दिए कि कई महीनों तक कम केस आने के बाद भारत ने कोविड-19 को हरा दिया है, जबकि कोरोना के नए रूप और दूसरी लहर आने को लेकर बार-बार चेतावनी दी जा रही थी।

भारत में यह गलत प्रचार किया गया कि लोगों में कोरोना को लेकर रोग-प्रतिरोधक क्षमता बन गई है, जबकि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने जनवरी में जारी एक सीरो-सर्वे में बताया था कि सिर्फ 21 फीसदी जनसंख्या में ही कोविड-19 को लेकर एंटीबॉडीज बनी है। इन सब के चलते सरकार बिल्कुल बेपरवाह रही, जिसके चलते दूसरी लहर के लिए पर्याप्त तैयारियां नहीं की गईं। नतीजन भारत को भयावह लहर का सामना करना पड़ रहा है। तमाम चेतावनियों के बाद भी सरकार ने राजनीतिक और धार्मिक रैलियों की इजाजत दी, जिसमें कोविड-19 नियमों का खुला उल्लंघन किया गया। ‘कोविड-19 खत्म होने का मैसेज प्रसारित करने के चलते भारत में टीकाकरण अभियान भी धीमा हो गया।

केंद्र ने राज्यों के साथ नीति में बदलाव पर चर्चा किए बिना अचानक 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोगों तक टीकाकरण का विस्तार किया, जिसके चलते आपूर्ति प्रभावित हुई है। भारत के ‘ढीले’ टीकाकरण कार्यक्रम में तत्काल तेजी लाई जानी चाहिए। सरकार के सामने दो चुनौतियां हैं: वैक्सीन आपूर्ति को तेज करना और वितरण अभियान का गठन करना, जिसमें ग्रामीण और गरीब नागरिक भी शामिल हो सकें, जो कि देश की दयनीय स्वास्थ्य व्यवस्था से जूझ रहे हैं। इसके लिए सरकार को स्थानीय स्वास्थ्य केंद्रों के साथ संपर्क साधना चाहिए, ताकि बराबर अनुपात में वैक्सीन की आपूर्ति हो सके।”

इसके अलावा जर्नल ने तय समय पर सही आंकड़े जारी करने के लिए कहा है, ताकि संक्रमण को रोकने में उचित कदम उठाया जा सके। संकट के दौरान मोदी सरकार द्वारा आलोचनाओं और खुली चर्चा पर लगाम लगाने की कोशिश करना अक्षम्य है।

लांसेट ने इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैलुएशन के आंकड़ों का हवाला देते हुए लिखा है, “आगामी एक अगस्त तक भारत में करीब 10 लाख कोरोना मौतें हो सकती हैं। यदि ऐसा होता है तो इस तरह के स्व-निर्मित राष्ट्रीय आपदा के लिए मोदी सरकार जिम्मेदार होगी। अप्रैल तक सरकार की कोविड-19 टास्क फोर्स ने महीनों से कोई बैठक नहीं की है। इसका परिणाम हमारे सामने है। भारत को अब संकट से उबरने के लिए उचित कदम उठाने चाहिए।

टीकाकरण के अभियान में अभी तक लगभग दो करोड़ 60 लाख लोगों को पूरी तरह से और 12 करोड़ 40 लाख लोगों को कोविड वैक्सीन की पहली ही खुराक मिली है। एक मई से भारत में वैक्सीनेशन कार्यक्रम के तीसरे चरण की शुरुआत हो गई है, जिसमें 18 से 44 साल की उम्र के बीच 60 करोड़ से ज़्यादा लोगों को कोरोना का टीका दिया जाना है। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को पहले 45 साल से अधिक उम्र के लोगों का टीकाकरण पूरा कर देना चाहिए था। ख़ासकर ऐसे समय में जब वैक्सीन की सप्लाई कम है, इसके बाद ही नए आयुवर्ग के लिए वैक्सीनेशन का फ़ैसला लेना चाहिए था। वैक्सीन की केंद्र, राज्य और निजी अस्पतालों के लिए तय की गयी अलग-अलग कीमतों पर भी विवाद है।

हम दुनिया के एक मात्र ऐसे देश हैं, जहाँ प्रांतीय सरकारों को वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों से सीधी ख़रीद करने के लिए इजाजत दी गई है। पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट श्रीनाथ रेड्डी कहते हैं, “क़ीमतों में भिन्नता चिंताजनक बात है। पूरा वैक्सीनेशन कार्यक्रम निःशुल्क होना चाहिए। ये जनता की भलाई के लिए है, और राज्य सरकारें ऊंची क़ीमत में वैक्सीन क्यों ख़रीदें? वे भी कर दाताओं का ही पैसा इस्तेमाल कर रही हैं।”

राज्य सरकार को 18 साल से 44 साल तक की उम्र के लोगों के लिए इंतजाम करना है, जिनकी देश में आबादी 62.2 करोड़ है और उनके लिए 1.2 अरब खुराक की ज़रूरत पड़ेगी। हर्ड इम्यूनिटी के लिए 70 फ़ीसदी लोगों का टीकाकरण किए जाने की ज़रूरत है। इसके लिए भी 87 करोड़ खुराक का इंतजाम करना होगा। इसमें बर्बाद हो जाने वाली खुराक का हिसाब शामिल नहीं है। अगले साल तक पूरी आबादी टीकाकरण के दायरे में आ जाए, इसके लिए भारत में हर रोज़ 35 लाख खुराक दिए जाने की ज़रूरत है। फ़िलहाल ये लक्ष्य से कहीं पीछे चल रहा है। फिलहाल तो, भारत को जितनी वैक्सीन की ज़रूरत है, सप्लाई उसके आस-पास भी नहीं है।

वैक्सीन पॉलिसी को लेकर विपक्षी दलों की आलोचनाओं का सामना कर रही मोदी सरकार ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दायर किया है। हलफ़नामे में सरकार ने कहा है, “वैश्विक महामारी को लेकर देश की पूरी रणनीति चिकित्सा और वैज्ञानिक राय के आधार पर तैयार की जाती है और ऐसे में न्यायिक दख़ल के लिए काफ़ी कम जगह है। किसी भी तरह के अति उत्साही न्यायिक हस्तक्षेप के अप्रत्याशित और अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं। वैक्सीन की क़ीमत न सिर्फ़ ठीक है, बल्कि पूरे देश में एक जैसी हैं। सरकार 18-45 साल के हर व्यक्ति को मुफ़्त में वैक्सीन लगाएगी और कई राज्यों ने इस बारे में घोषणा भी की है।”

जिस प्रकार से कोरोना आपदा के बारे में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सक्रिय हैं, और जैसे सवाल सरकार से पूछे जा रहे हैं, कोरोना के दूसरी लहर के दौरान, पांच राज्यों में चुनाव, यूपी में पंचायत चुनाव, कुंभ का आयोजन, बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां और रोड शो के आयोजन हुए, उन्हें देखते हुए एक बात तो तय है कि सरकार ने इस आपदा को गम्भीरता से नही लिया। अगर आईएमए की प्रतिक्रिया और लांसेट मेडिकल जर्नल का संपादकीय पढ़ें तो ये दोनों विशेषज्ञ संस्थाए भारत सरकार को सीधे इस आपदा के लिये जिम्मेदार मानती हैं।

इस आपदा की पहली लहर के समय, लॉकडाउन लगाया भी गया तो, उसका ढंग से पालन नहीं हुआ। लॉकडाउन के समय, लाखों कामगार सड़कों पर थे और इससे लॉकडाउन का उद्देश्य जो संक्रमण की चेन तोड़ना था, वह पूरा नहीं हुआ, अलबत्ता कोरोना गांव-गांव फैल गया। ठीक यही बात दूसरी लहर के समय, चुनाव और कुम्भ जैसे धार्मिक आयोजनों के कारण भी हुआ। अब शहरों में जितना संक्रमण नहीं है, उससे कहीं अधिक संक्रमण का खतरा देहात में हो गया है। जब शहरों में हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की हालत इस महामारी से निपटने के लिये पर्याप्त नहीं है तो ग्रामीण इलाक़ों की बात ही क्या की जाए।

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और कानपुर में रहते हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author