तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसान आंदोलन के शुरू से ही केंद्र की भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार और विपक्षी पार्टियों के बीच आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला चल रहा है। किसान संगठनों द्वारा 8 दिसंबर को आयोजित भारत बंद को लगभग पूरे विपक्ष द्वारा सक्रिय समर्थन देने के बाद सरकार और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोपों में काफी तेजी आ गई है। सरकार ने विपक्ष पर किसानों को गुमराह कर भड़काने के आरोप से आगे जाकर कहा है कि तीनों कृषि कानून कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष के एजेंडे में रहे हैं।
विपक्ष ने कहा है कि कृषि कानूनों में किए गए प्रावधानों को किसानों के लिए रामबाण बताने वाली भाजपा पूर्व में उनका कड़ा विरोध करती रही है। सरकार और विपक्ष एक-दूसरे पर दोहरे चरित्र का आरोप लगाते हुए दस्तावेज़ और फुटेज पेश कर रहे हैं। दोनों के बीच ‘तेरे सुधार मेरे सुधार’ की जंग छिड़ी है। सरकार और विपक्ष की इस कवायद का आपसी सत्ता-संघर्ष के संदर्भ में जो भी मायने हों, इससे यह खुली सच्चाई एक बार फिर सामने है कि उदारीकरण-निजीकरण देश के शासक-वर्ग का साझा एजेंडा है।
शासक-वर्ग का यह साझा एजेंडा पिछले तीस सालों से जारी है। दोहराव होगा, लेकिन संक्षेप में जान लें कि 1991 में जब मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत की थी, तो अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अब कांग्रेस ने उनका काम हाथ में ले लिया है। नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह के बाद 1996 में करीब एक साल के लिए संयुक्त मोर्चा के प्रधानमंत्री बने एचडी देवेगौड़ा और वित्तमंत्री पी चिदंबरम उदारीकरण-निजीकरण के पक्षधर थे। अपने 6 साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री वाजपेयी ने एक के बाद एक अध्यादेशों के ज़रिए उदारीकरण-निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। यह प्रक्रिया कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के दो कार्यकालों के दौरान मजबूती से जारी रही।
वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता ज्योति बसु ने लंबी राजनीतिक पारी खेलने के बाद निष्कर्ष दिया कि विकास का रास्ता पूंजीवाद से होकर गुजरता है। विकिलीक्स से पता चला कि ज्योति बाबू के बाद मुख्यमंत्री बने बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अमेरिकी मिशन से मिल कर गुहार लगाई थी कि वे नवउदारवाद के पथ पर लंबी छलांग लगाना चाहते हैं। सिंगुर-नंदीग्राम में उन्होंने वैसी छलांग लगाई भी थी। सामाजिक न्याय अथवा अस्मितावाद की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय नेता और उनकी संतानें उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर प्राय: मौन रहते हैं। वे सत्ता पर कब्जे की लड़ाई को ही ‘नीति’ मानते हैं।
इस दौरान देश की राजनीति कॉरपोरेट राजनीति होती चली गई। सीधे कॉरपोरेट व्यवस्था के गर्भ से पैदा होने वाली पहली राजनीतिक पार्टी, आम आदमी पार्टी और उसका सुप्रीमो देश के सरकारी कम्युनिस्टों और ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाजवादी बुद्धिजीवियों का दुलारा है। दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में सरकारी ताम-झाम के साथ दीपावली पूजन करने के बाद उसने अपने इन मित्रों को उपदेश दिया है कि वे प्रार्थना किया करें, मन को बहुत शांति मिलती है! भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, जिससे यह पार्टी निकली, ने उदारीकरण-निजीकरण के विरोध में चलने वाले देशव्यापी आंदोलन को गहरी चोट पहुंचाई, और गुजरात में छटपटाते नरेंद्र मोदी के लिए दिल्ली का रास्ता प्रशस्त किया।
वर्तमान विवादास्पद कृषि कानूनों के बारे में यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि उनकी बनावट कॉरपोरेट-फ्रेंडली है, लेकिन अध्यादेश के रूप में या संसद में विधेयक के रूप में किसी भी विपक्षी राजनीतिक पार्टी/नेता ने उन्हें पूरी तरह से रद्द करने की मांग नहीं की। संसद में विधेयकों पर जितनी भी बहस हो पाई, उस पर नज़र डालने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। सभी पार्टियों ने कुछ संशोधन सुझाने के अलावा विधेयकों को पार्लियामेंट्री पैनल को भेजने की मांग की थी। उदाहरण के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के सांसद बिनय विस्वम का वक्तव्य देखा जा सकता है: “अगर एमएसपी के बारे में दिया गया वक्तव्य सही है, तो मैं मंत्री महोदय से निवेदन करूंगा कि वे यहां यह कहते हुए आधिकारिक संशोधन लाएं कि वे किसानों के लिए एमएसपी सुनिश्चित करने की धारा जोड़ेंगे। ऐसा होने पर, मैं आपसे वादा करता हूं, भले ही हम आपका राजनीतिक विरोध करते हैं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी इस विधेयक का समर्थन करेगी।” (‘इंडियन एक्सप्रेस’, 5 दिसंबर 2020)।
फोर्ड फाउंडेशन के जो बच्चे किसान आंदोलन में सक्रिय हैं, कृषि सुधारों को लेकर उनके कारपोरेट-फ्रेंडली वक्तव्य/दस्तावेज़ भी सामने आ चुके हैं। तीनों कृषि कानूनों को पूरी तरह रद्द करने की मांग केवल किसान संगठनों की तरफ से की गई। ज़ाहिर है, उन्हें ही यह निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी।
दरअसल, भारत का शासक-वर्ग सत्ता से बाहर होने पर संविधान की दुहाई देते हुए उदारीकरण-निजीकरण का विरोध करता है, और सत्ता में आने पर संविधान के नाम पर ही सारे फैसले उदारीकरण-निजीकरण के पक्ष में लेता है। वह बेशर्मी के साथ नाम गरीबों का लेता है, काम कॉरपोरेट घरानों का करता है। उदारीकरण-निजीकरण के समर्थन और विरोध में वह संविधान के साथ देश के प्रतीक पुरुषों (आइकांस) को भी खींच लेता है। संविधान और प्रतीक पुरुषों की ऐसी दुर्गति शायद ही किसी अन्य देश में होती हो।
शासक-वर्ग की इस प्रवृत्ति के चलते देश के राजनीतिक व्यवहार में गहरा पाखंड समा गया है। राजनीतिक व्यवहार में पैठा यह पाखंड जीवन के अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक आदि व्यवहारों को भी प्रभावित करता है। अगर भारत को एक पाखंडी-राष्ट्र में तब्दील नहीं होना है, तो इस परिघटना पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।
शिक्षा से लेकर रक्षा तक नवउदारवादी सुधारों पर सर्वानुमति की मौजूदा स्थिति में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि शासक-वर्ग ईमानदारी से स्वीकार करे कि वह उदारीकरण-निजीकरण का सच्चा पक्षधर है? संविधान को एक तरफ छोड़ कर, या संविधान की मूल संकल्पना के विरुद्ध संशोधन करके, उदारीकरण-निजीकरण को राष्ट्रीय-नीति घोषित करे? इसके लिए मज़दूर संगठनों, किसान संगठनों, छात्र संगठनों, व्यवसायी संगठनों और विविध नौकरीपेशा संगठनों से वार्ता करे? घरेलू और विदेशी निवेशकों/कंपनियों को स्पष्ट संदेश दे कि उदारीकरण-निजीकरण भारत की सर्वस्वीकृत राष्ट्रीय-नीति है?
विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं को बताए कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के मामले में भारत अपने पैरों पर खड़ा हो गया है? हर मामले में उसे ऊपर से डिक्टेट की जरूरत नहीं है? नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) अमिताभ कांत सरीखे नवउदारवादियों को आश्वस्त करे कि भारत ने ‘कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र होने’ की बाधा पार कर ली है? और अब वह चीन के बाज़ार समाजवाद (मार्केट सोशलिज्म) का मुकाबला कर सकता है? इसकी शुरुआत विवादास्पद कृषि कानूनों पर संसद का विशेष सत्र बुला कर व्यापक चर्चा से की जा सकती है।
मेरे जैसे व्यक्ति की तरफ से यह सुझाव लोगों को चौंकाने वाला लग सकता है, लेकिन यदि हमें एक पाखंडी/फरेबी राष्ट्र में रूपांतरित होने से बचना है, तो सच्चाई का सामना करने के अलावा कोई चारा नहीं है। पाखंड के तीन दशक काफी होते हैं। सच्चाई की ईमानदार स्वीकारोक्ति होने पर शासक-वर्ग से अलग संवैधानिक समाजवाद के सच्चे समर्थक संगठन और व्यक्ति अपनी स्थिति और भूमिका का सही ढंग से आकलन कर पाएंगे। अगर किसानों में सचमुच राजनीतिक समझदारी, एका और साहस बना रहेगा तो वे कानूनों के बावजूद कॉरपोरेट की लूट से निपटने का रास्ता निकालेंगे। वह रास्ता अन्य संघर्ष-रत संगठनों के लिए भी नजीर बनेगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)