Saturday, April 20, 2024

हिंदुत्व-कॉरपोरेट गठजोड़ का सामाजिक-आर्थिक एजेंडा

पिछले कुछ वर्षों में अडानी परिवार का आर्थिक साम्राज्य जिस तेज गति से बढ़ा है। उसे सही तरह से विश्लेषित करना आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषकों के लिए एक पहेली है। अर्थशास्त्र के सभी नियमों को झुठलाते हुए इतिहास के सबसे विध्वंसक दौर में जिस तेज से गति से अडानी का विस्तार हुआ, उसने विश्व के आर्थिक विश्लेषकों, राजनीतिक चिंतकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का ध्यान आकर्षित किया होगा।

विगत साढे 8 वर्षों में विश्व के 609 से ज्यादा उद्योगपतियों को पछाड़ते हुए सितंबर 22 तक अडानी विश्व रैंकिंग में दूसरे नंबर पर आ गए। जो कॉरपोरेट विकास का विश्व रिकॉर्ड है। आइए अडानी की विकास यात्रा पर एक नजर डालते हैं-

अथ अडानी कथा

शांतिलाल जैन की सात संतानों में गौतम अडानी तीसरे नंबर के संतान हैं। जिनका जन्म 1962 में अहमदाबाद में हुआ था। परिवार मूल रूप में अहमदाबाद के एक इलाके का रहने वाला है। छात्र जीवन को बीच में ही छोड़कर अडानी अपने बड़े भाई मनसुखलाल जैन के साथ खाद्यान्न और बिजली के सामान यानी कमोडिटी के कारोबार में उतरे। गौतम अडानी की यात्रा यहीं से शुरू हुई। 1988 में 5 लाख रुपये से फ्लैगशिप कंपनी- अदानी एंटरप्राइजेज, इंपोर्ट-एक्सपोर्ट के लिए बनी।

1990 में जनता दल की सरकार बनी। चिमन भाई पटेल मुख्यमंत्री थे। इस सरकार को कांग्रेस का भी समर्थन था। चिमन भाई पटेल के समय ही 1992/93 में अडानी को कच्छ की खाड़ी में निजी पोर्ट निर्माण लिए 5 हजार एकड जमीन 10 रुपये वर्ग मीटर की दर से दी गई। जो गौतम अडानी के अनुसार निर्जन और दलदली थी।

गुजरात का पहला निजी बंदरगाह मुंद्रा पोर्ट 1998 में बनकर तैयार हुआ। यहां सड़कें और रेल लाइन अडानी द्वारा बिछाई गईं। मुंद्रा पोर्ट से शुरू हुई अडानी की यात्रा 21 सितंबर 2022 तक आते-आते विश्व में नंबर दो तक पहुंची। अडानी के मुंद्रा पोर्ट का क्रम विकास इस प्रकार है –

  • 5000 एकड़ जमीन 1 रुपये से 5 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से मुंद्रा पोर्ट को दी गई।
  • 2001 में मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने।
  • 2003 में मुंद्रा स्पेशल इकोनॉमिक जोन बना।
  • 5000 एकड़ भूमि फिर दी गई।
  • 2006 में केंद्र सरकार ने इसे स्पेशल इकोनॉमिक जोन की मान्यता दी।
  • 2008 में 16,000 एकड़ जमीन 1 से 30 रुपये प्रति स्क्वायर मीटर के हिसाब से दी गई।
  • इसी समय टाटा व फोर्ड़ को सस्ते में भूमि मिली थी, इनको 900 से 1,000 रुपये प्रति वर्ग फीट की दर से जमीन दी गई।
  • गुजरात विधानसभा में कांग्रेस एमएलए शैलश परमार के प्रश्न के जवाब में राजस्व मंत्री कौशिक ने बताया की 55019767 एकड भूमि मुंद्रा पोर्ट को अलग अलग दर से अलग समय पर दी गई।
  • 2012 इसका नाम बदलकर अदानी पोर्ट स्पेशल इकोनॉमिक जोन कर दिया गया।
  • इसके बाद इसका विस्तार गोवा, खंभात की खाड़ी, सूरत, विशाखापट्टनम और ऑस्ट्रेलिया तक हो गया।
  • 2014 में अदानी दुनिया में 609वें नंबर के उद्योगपति थे।
  • 13 सितंबर 2013 को 1.9 बिलियन डॉलर। 8 महीने बाद (मोदी के चुनाव के समय तक) बढ़कर 6 बिलियन डॉलर।
  • 2020 तक 7.30 बिलियन डॉलर।
  • 21 सितंबर 2022 तक 142 बिलियन डॉलर। इस दौरान गुजरात में कई और कंपनियों को भी भारी मुनाफा हुआ जैसे- अतुल लिमिटेड, आदि।

अडानी पर डिंडनबर्ग की रिपोर्ट

अडानी का विकास देखकर अमेरिकी रिसर्च संस्था हिंडनबर्ग के संस्थापक नाथन एंडरसन की दृष्टि अडानी की तरफ गई होगी। चूंकि हिंडनबर्ग ऐसी संस्था है जो कॉरपोरेट क्षेत्र में होने वाले फ्रॉड और आपस में अंतरगुंफित नापाक संबंधों की जांच पड़ताल करता है और कॉरपोरेट पूंजी व उसके मालिकों को नंगा करके मुनाफा कूटता है।

विध्वंसक हिंदुत्व और अडानी की विकास यात्रा

गौतम अडानी ने बड़े गर्व के साथ यह घोषणा की कि उनका संबंध राजीव गांधी, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह तक से था। उनके व्यापार और उद्योग का विकास उसी समय शुरू हुआ। वो इस दावे के जरिए मोदी और संघ से अपने विशेष रिश्ते को नकारना चाहते हैं।

यह कथन आंशिक सत्य है। अभी तक जो जानकारियां उपलब्ध हैं। उसके अनुसार 1990 के पहले अडानी साइकिल से स्कूटर तक की यात्रा कर पाए थे। बाद के दौर में कांग्रेसी पीएम नरसिम्हा राव और संयुक्त मोर्चा की सरकारों तक अडानी भारत के उद्योग जगत में गिनती के योग्य भी नहीं थे।

एनडीए की सरकार बनने के बाद 21वीं सदी की शुरुआत तक अडानी गुजरात आधारित सामान्य व्यवसायी थे। उस समय उनके पास मुंद्रा पोर्ट के मामूली कारोबार सहित कुछ छोटे-मोटे धंधे ही थे।

मोदी के मुख्यमंत्री बनने का फायदा

2001 में मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद अडानी के विकास को मानो पंख लग गए। मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी उद्योग जगत को साधने की हर संभव कोशिश कर रहे थे। हालांकि उनके लिए अभी अपनी कुर्सी बचना मुख्य प्राथमिकता थी। गोधरा कांड के बाद गुजरात में मुस्लिमों के हुए नरसंहार से कुछ समय के लिए मोदी उद्योग जगत में शंका की दृष्टि से देखे जाने लगे थे।

शायद यही वह समय है जिसका लाभ उठाते हुए अडानी परिवार नरेंद्र मोदी के करीब आया और उनका मुख्य सहयोगी बना। इस रहस्य का उद्घाटन एक सेमिनार में गौतम अडानी ने स्वयं किया था। जब वे अमित शाह के साथ 25 वर्ष पुराने संबंधों को लेकर बोले कि उस समय हम दोनों मामूली शख्सियत हुआ करते थे।

विध्वंसक हिंदुत्व का विकास मॉडल

भारत का सामान्य नागरिक भी यह समझता है कि 80 के दशक के जटिल दौर में बाबरी मस्जिद को केंद्र कर चलाए गए राम जन्म भूमि मुक्ति आंदोलन के विध्वंसक रास्ते से ही हिंदुत्व का उभार शुरू हुआ। उसके पहले संघी हिंदुत्व भारत की राजनीति का एक सामान्य दर्शक ही था। पहली बार 1974 के जेपी आंदोलन में संघ की हिस्सेदारी के साथ ही हिंदुत्व का राजनीति के केंद्रीय स्थल में प्रवेश हुआ।

आपातकाल के बाद जनता पार्टी सरकार बनते ही हिंदुत्व भारत में धीरे-धीरे मान्यता पाने लगा। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की दक्षिणपंथी राजनीति ने जनता पार्टी सरकार के समय संघ के लोगों को खुलकर खेलने का अवसर दिया था। (जनता पार्टी सरकार के समय जमशेदपुर में हुए दंगे को याद करिए)। जिसे जनता पार्टी के विघटन में देखा गया।

पूंजीपति वर्ग और भारतीय लोकतंत्र

वैसे तो राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर ही भारत में उद्योग जगत का भी विकास हुआ था। उस समय उद्योगपतियों का एक हिस्सा खुलकर जहां ब्रिटिश हुकूमत का पक्षधर था। वहीं वह स्वतंत्रता आंदोलन में भी अपनी जगह और पकड़ बनाए हुए था। इसी समय टाटा, बिरला, गोयनका, डालमिया, सिंघानिया, जयपुरिया और बजाज जैसे अनेक उद्योगपति भारत में चर्चित हुए।

शुरुआती दौर में दादा भाई नौरोजी और दीनशा वाचा (पारसी) जैसे बड़े व्यापारी और उद्योगपति कांग्रेस की स्थापना के समय उसके नेता थे। लेकिन बंग-भंग आंदोलन के बाद स्वतंत्रता संघर्ष में जनता की हिस्सेदारी जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे उद्योगपति राजनीतिक दलों के पीछे छुपते चले गए और उन्होंने अपनी ड्राइवर की भूमिका को त्याग दिया। सभी जानते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन में कांग्रेस के साथ औद्योगिक घरानों का क्या रिश्ता रहा है।

लेकिन एक बात स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आंदोलनों की अगुवाई सीधे उद्योगपतियों के हाथ में नहीं थी। घनश्याम दास बिरला के अनुसार उद्योगपतियों को कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों के पीछे रहते हुए अपने दूरगामी लक्ष्यों को हासिल करना चाहिए।

आजादी के बाद आजाद भारत के विकास की रणनीति को टाटा-बिरला प्लान के तहत जरूर आगे बढ़ाया गया। लेकिन कभी भी उद्योगपतियों को राजनीतिक आंदोलन के समक्ष प्रत्यक्षत: ज्यादा तरजीह नहीं मिली। नेहरू के करिश्माई व्यक्तित्व के चलते भी उद्योगपति चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते थे।

बाद में जेपी आंदोलन को उद्योगपतियों के एक समूह का खुला समर्थन हासिल था। उस समय गोयनका ने इंदिरा गांधी से अदावत मोल ले कर भी मदद की थी। ऐसा कहा जाता है कि देसी विदेशी उद्योगपतियों का एक समूह भारत सरकार के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजाओं के प्रीवीपर्स खत्म करने जैसे कदमों के कारण इंदिरा गांधी को पसंद नहीं करता था। इसीलिए उसने दक्षिणपंथी विचारधारा के राजनीतिक दलों को समर्थन दिया।

राष्ट्रीयकरण का असर

इंदिरा गांधी की वापसी के बाद कोयला खदानों व बैंकों आदि के राष्ट्रीयकरण से नौकरशाह पूंजीवाद ताकतवर हुआ। यही वह समय है जब राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों व उद्योगपतियों का गठजोड़ आकार लिया और भारतीय लोकतंत्र को नियंत्रित करने लगा। इंदिरा गांधी की निरंकुशता का सामाजिक आधार यही गुट था।

बैंकिंग और वित्तीय पूंजी के गठजोड़ ने नए नस्ल के उद्योगपतियों को जन्म दिया। जिसमें धीरूभाई अंबानी का उदय एक अभूतपूर्व घटना थी। यहां तक आते-आते भारतीय लोकतंत्र में उद्योगपतियों का काकस निर्णायक भूमिका में आ गया। जो भारत के लोकतंत्र का भविष्य तय करने लगा।

भाजपा का जन्म और विकास

आजाद भारत में विकास की एक खास मंजिल पर स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की चमक घटने लगी ।आर्थिक संकट जैसे-जैसे गहराते गए वैसे-वैसे धार्मिक व पहचान वादी राजनीति की स्वीकार्यता बढ़ने लगी। इसी समय आजादी के आंदोलन से नेपथ्य में पड़ी हुई अंग्रेजों की बगल-गीर संघ सतह पर ऊभर आया और अपने विध्वंसक एजेंडे के साथ भारतीय समाज और राजनीति में छा गया।

भाजपा (जो संघ की राजनीतिक शाखा है) हमेशा नकारात्मक एजेंडे को राष्ट्रवाद के तड़के के साथ ले आती है। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के प्रति कमजोर हो रही प्रतिबद्धता के कारण संघ को राम जन्मभूमि को केंद्र कर हिंदू गोलबंदी करने का मौका मिला।

ईरान की इस्लामी क्रांति से बदले अंतरराष्ट्रीय समीकरण ने मुस्लिम विरोधी राजनीति को भारत में भी स्वीकृति दिला दी। राजीव गांधी के समय बाबरी मस्जिद का ताला खोलना, राम मंदिर का शिलान्यास और शाहबानो प्रकरण में एक कदम पीछे हटने जैसे प्रतिगामी कदमों के कारण विध्वंसक हिंदुत्व को ऊर्जा मिल गई। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सोवियत संघ के विघटन और समाजवाद की चमक के मलिन होने से धर्म और जाति विमर्श को बल मिला।

वीपी सिंह सरकार और उदारवादी राजनीति का द्वंद

वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल की सरकार एक कमजोर सरकार थी। जो दो ध्रुवों के बीच फंस चुकी थी। इसी समय रिलायंस वर्सेस बाम्बे डाइंग के टकराव ने भारतीय राजनीति को दो धड़ों में बांट दिया। अभी तक कांग्रेस की छत्रछाया में पले-बढ़े अंबानी (प्रणव मुखर्जी को याद करिए) खुलकर हिंदुत्व के साथ आ खड़े हुए और बॉम्बेडाइंग (नुस्ली वाडिया) को शिकस्त देने के लिए राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के पीछे अपनी ताकत और पैसा झोंक दिए।

वीपी सिंह ने पलटवार करते हुए जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की तो संघ परिवार ने राम जन्म भूमि मुक्ति के लिए आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से अयोध्या के लिए यात्रा शुरू कर दी। इस यात्रा के सारथी संघ प्रचारक नरेंद्र भाई दामोदर भाई मोदी बने। यहीं से मोदी का उदय हुआ और उनका संबंध उद्योग जगत से बनना शुरू हुआ।

नौकरशाह पूंजीवाद से मित्र पूंजीवाद तक

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की महिमा अपरंपार है। यह अदृश्य शक्ति है। निरंकार रूप में स्वछंद हो विश्व बाजार में दौड़ती व घूमती है और शेयर बाजार के कंगूरे पर चमकती हुई दिखती है। इसने भारत में अपना खेल शुरू किया। रिलायंस की तेज प्रगति ने भारत के उद्योग जगत को चकित कर दिया। धीरुभाई भारत में उद्योग जगत के रोल मॉडल बन गये और भारतीय राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने लगे।

रिलायंस समूह का उत्तराधिकार मुकेश अंबानी के हाथ में आया और वे मंत्रियों से लेकर अधिकारियों तक का भविष्य तय करने लगे। (पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी का मंत्रालय बदलना) यहां तक कि राज्यों से लेकर केंद्र तक कोई भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं बची जो रिलायंस के आगोश में समा न गयी हो। आपको याद होगा उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने किस तरह अनिल अंबानी के दादरी विद्युत प्लांट के लिए संसद को बंधक बना दिया था। (परांजॉय गुहा ठाकुरता द्वारा लिखित “गैस के लिए युद्ध’ पुस्तक)

लेकिन वित्तीय पूंजी बहुत ही खूंखार और मारक होती है। यह सिर्फ उत्पादन के संसाधनों और उत्पादन करने वालों का ही विध्वंस नहीं करती। यह राज्य मशीनरी से लेकर समाज और संस्थाओं तक के विध्वंस पर ही पलती है। विध्वंस से निकले खून और मांस से ही से ऊर्जा और ताकत लेकर और खूंखार हो जाती है।

जिसे हम भारत की राजनीति में 90 के दशक से लेकर आज तक देख रहे हैं। बाबरी मस्जिद का विध्वंस, मुंबई से लेकर भारत अन्य भागों में भयानक दंगों का होना, आतंकवादी बम विस्फोट, हजारों लोगों का मारा जाना, अरबों रुपये की संपत्तियों के नुकसान के साथ अमेरिकी राजनीति के तहत आतंकवाद का भी भारत में निर्यात हुआ। जिसने मुंबई से लेकर अनेक जगहों पर भारतीय लोकतंत्र और समाज को भारी क्षति पहुंचाई।

नव उदारवाद का सामाजिक ढांचा

नव उदारवादी बाजारवाद में विकसित हो रहा मध्यवर्ग सिद्धांत और विचार विहीन था।उसके सर पर स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्य और आदर्शों का बोझ नहीं था। (दलित राजनीति के मसीहा काशीराम के शब्द कि “मैं अवसरवादी हूं ‘को याद रखें)।

यह वर्ग खुद‌गर्ज और आत्म केंद्रित वर्ग है। इसलिए एक झटके में ही वह धराशाई होकर उपभोक्ता बाजार का अदना सा जीव बनकर रह गया। अब वह अपनी आभासी पहचान धर्म की आक्रामकता या जाति की श्रेष्ठता में ही ढूंढ सकता था। इस कारण इस दौर की राजनीति इन्हीं लोकतंत्र विरोधी दो ध्रुवों के इर्द-गिर्द केंद्रित होती गई।

मोदी और अडानी का अभ्युदय

इस अंधकार भरे दौर में राजनीति और उद्योग जगत में दो नए सितारों का अभ्युदय हो रहा था। जो आदर्श सिद्धांत का संघी आवरण लपेटे हुए थे। विशुद्ध रूप से सफलता प्राप्त करने वाले सिद्धांत से संचालित थे। उनके लिए लोकतंत्र सिर्फ सत्ता तक पहुंचने के लिए के लिए साधन और आदर्श, सिद्धांत, संविधान मृत आवरण हैं। व्यवहारिक जीवन इसके ठीक उलट है। जो पूंजी के गति विज्ञान के साथ मेल खा रहा था।

इसलिए आप देखेंगे कि दोनों के अभ्युदय के दौर में संघ की ऐसी राजनीति भारत के सत्ता पर काबिज हुई जो षड्यंत्रकारी थी। हिंसक थी। विभाजक थी। लोकतंत्र विरोधी और अवैज्ञानिक थी तथा समाज के अंदर मौजूद पिछड़े मूल्यों के दोहन पर खड़ी थी।

इसके साथ उसके अंदर संवैधानिक मूल्यों संस्थाओं के लिए कोई सम्मान नहीं था। बल्कि संवैधानिक संस्थाओं के नकार को उद्दंडता के साथ समर्थन देता था। यही हिंदुत्व की मूल कार्यशैली है। (बाबरी मस्जिद विध्वंस पर गर्व करना)

जिसने भारतीय समाज और लोकतंत्र की सभी उपलब्धियों को मटियामेट करते हुए भारत को एक ऐसी दिशा में मोड़ दिया है जहां से आगे खायीं और पीछे कुआं के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। यही समय गुजरात के दोनों सितारों का स्वर्ण काल है।

मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद जिस ढिठाई के साथ गुजरात में अल्पसंख्यक विरोधी अभियान और उनका कत्लेआम हुआ, एनकाउंटर की राजनीत की आड़ में पूंजी की सेवा की गई, वह एक नए दौर की शुरुआत थी। खुलेआम उद्योगपतियों को छूट के साथ आमंत्रित किया जाने लगा।

लोकतांत्रिक संस्थाओं से लेकर जनता के मौलिक अधिकारों व मजदूरों के श्रम सुरक्षा पर कुठाराघात शुरू हुआ। राज्य मशीनरी से लेकर समाज तक को एक व्यक्ति के चरणों में समर्पित करा दिया गया। इसी विशिष्टता के कारण गुजरात को संघ का प्रयोगशाला कहा जाता है।

सत्ता का केंद्रीकरण

पूंजी के केंद्रीकरण के बिना राजनीति का केंद्रीकरण संभव नहीं है। इसलिए भारत में मोदी का उदय वस्तुतः कॉरपोरेट के हाथ में पूंजी के केंद्रित होते जाने का समय है। अडानी इस नए दौर के तार्किक और स्वाभाविक प्रतिनिधि हैं। अडानी के विकास को देखते हुए किसी भी अर्थशास्त्री को यह कहने में तनिक भी गुरेज नहीं होगा कि क्रोनी कैप्टलिज्म क्या होता है?

हम नव औपनिवेशिक लैटिन अमेरिका देख चुके हैं। जहां सैनिक तानाशाहों ने अमेरिकी साम्राज्यवाद की गुलामी के लिए अपने देश का विध्वंस कर डाला। अब हम भारत में मित्र पूंजीवाद का चेहरा देख रहे हैं जो भारत के सभी संसाधनों, संपत्तियों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को सारे वसूलों को ताक पर रखकर निगलता जा रहा है। इससे भारत फासीवाद के दरवाजे तक पहुंच गया है।

इसकी मूल सांगठनिक ताकत है संघ का विशालढांचा। जो अपने विभाजनकारी आक्रामक और हिंसक एजेंडा के द्वारा ऐसी स्थिति रचने में कामयाब रहा। जिससे भारतीय समाज अंदर से विभाजित हो गया है। राष्ट्र और धर्म की आड़ लेकर उद्योगों और संस्थाओं को बेच देना उतना ही आसान था जितना विधायकों की खरीद-फरोख्त और संसदीय संस्थाओं को ढहा देना।

उसके लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं और मूल्यों का उतना ही महत्व है जितना वह दंगों हत्याओं को वैधता और आतंकवादियों को संसद में भेजने के अर्थ में देख सकता है और असहमति की आवाज को खामोश कर सकता है।

इसलिए हिंडेनबर्ग के खुलासे के बाद जो तूफान उठा है। वह संघनीति सरकार द्वारा भारतीय राजनीति और सत्ता के अंदर चल रहे गलीज कारोबार की आंशिक अभिव्यक्ति भर है। यह प्रतीकात्मकता नहीं है कि अडानी के जहाज पर बैठा हुआ भारतीय लोकतंत्र का नेता किसी भी तरह के आत्मग्लीनि और आत्म द्वंद में नहीं दिखता। उसके अंदर कोई अपराध बोध नहीं है। बल्कि वह और हिंसक व मगरूर होता जा रहा है ।

उसी तरह जैसे अडानी भारत में सभी कारोबार पर नियंत्रण को अपनी उद्यमिता और कर्तव्यनिष्ठा का परिणाम बता रहे हैं। ये सभी बातें एक दूसरे से द्वंदात्मक रूप में जुड़ी हैं।

हां इसमें कॉरपोरेट के बीच का युद्ध भी हो सकता है। चूंकि पूंजीवाद के दीर्घायु के लिए (दिखावे के लिए ही सही) निश्चित तौर पर कुछ मूल्यों की जरूरत पड़ती है। नहीं तो वह राजे रजवाड़ों की तरह से दुनिया के सिंहासन से उठाकर फेंक दिया जाएगा।इसलिए वह नैतिक आवरण के साथ कानून के राज का दिखावा करते रहना चाहेगा। जिससे पूंजी के लूट की वैधता बनी रहे।

संघ का भांडा फूटा

संघ का मुखपत्र ऑर्गेनाइजर जब खुलकर अडानी के पक्ष में खड़ा हुआ तो राजनीतिक विश्लेषकों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। (इसके पहले 2018 में पांच्यजंय और ऑर्गेनाइजर ने अडानी के विकास को भारतीय राष्ट्रीय पूंजी के गरिमामय दौर की वापसी के रूप में चिन्हित किया था।) क्योंकि हिंदुत्व के विकास के साथ ही अडानी का समानुपातिक संबंध है। अब दोनों एक दूसरे के लिए अपरिहार्य हैं। एक का पतन दूसरे की पतन की गारंटी करेगा। एक का वजूद दूसरे के वजूद पर ही टिका हुआ है।

आश्चर्य है कि अडानी के तर्क और ऑर्गेनाइजर के लेख दोनों एक ही मुख से निकले हुए दिखते हैं। जैसे कि भारत पर हमला है। भारत के विकास और प्रगति को कमजोर करने के लिए विदेशियों द्वारा भारत के खिलाफ रचा गया षड्यंत्र है। यहां तक कि अडानी के ऑस्ट्रेलियाई सीईओ ने राष्ट्रीय झंडे का दुरुपयोग करते हुए रिपोर्ट को जलियां वाला बाग नरसंहार के साथ जोड़ दिया। यह राष्ट्रवाद के पीछे अपराध को छिपाने की कोशिश थी।

ठीक यही तर्क ऑर्गेनाइजर भी सामने लेकर आया। इसलिए किसी भी विश्लेषक को संघ और अडानी के तर्कों की समानता से आश्चर्य नहीं हुआ। प्रीति पुरातन लखै सब कोई।

ऑर्गेनाइजर ने अडानी के तर्कों का विस्तार करते हुए इसे वामपंथी षड्यंत्र घोषित कर दिया। यहां तक कि कुछ स्वतंत्र पत्रकारों को इस षड्यंत्र का सहभागी बताते हुए उन्हें डिजिटल शार्प शूटर तक कह गया। ऑर्गेनाइजर यहीं तक नहीं रुका। उसने अजीम प्रेमजी जैसे उद्योगपतियों को भी इसमें घसीट लिया और तर्कवादी पत्रकारों की पूरी फेहरिस्त जारी कर दी। जो इस षड्यंत्र में शामिल हैं। हिंडेनबर्ग रिसर्च‌ को अंतरराष्ट्रीय वामपंथी षड्यंत्र के अदृश्य श्रृंखला के साथ जोड़ा गया।

आश्चर्य है कि संघ के लिए दुनिया का सबसे पवित्र और अनुकरणीय देश अमेरिका और इजरायल रहे हैं। अब उसे वामपंथ के गढ़ के रूप में बताया जा रहा है। संघ ब्रिगेड का आईटी सेल और गोदी मीडिया दोनों एक साथ सक्रिय हो गए हैं। इस धूर्तता पर आप हंस ही सकते हैं।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में स्कूटर से शुरू हुई अडानी की यात्रा गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद ही अपनी प्रतिभा दिखा सकी। 2001 तक अडानी गुजरात में नगण्य औद्योगिक ताकत थे। लेकिन 2013 में जब मोदी को भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया गया तो अडानी की पूंजी अप्रत्याशित रूप से बढ़कर 2014 के मई में 3 गुना हो गई। अडानी के रथ पर मोदी के बैठते ही पारखियों ने उनके उज्जवल भविष्य को देख लिया था।

अडानी के विमान पर सवार होकर जीत के बाद अहमदाबाद से निर्लज्जता के साथ दिल्ली जाने की घटना विश्व के राजनीतिक इतिहास की अभूतपूर्व घटना है। पूंजीपति और नेताओं का इतना खुला और नग्न संबंध शायद दुनिया ने पहली बार देखा था। इसलिए यह घटना भारत के विकास और लोकतंत्र के लिए नया संकेतक थी।

इसी तथ्य में अडानी के आर्थिक साम्राज्य के विस्तार का रहस्य छिपा हुआ है। यह कोई दैवीय कृपा नहीं है कि 2014 में विश्व में 609 स्थान पर रहने वाला उद्योगपति कोराना महामारी के विध्वंसक दौर के बाद सितंबर 2022 में विश्व का दूसरे नम्बर का रईस बन गया।

इसलिए भारतीय लोकतंत्र के लिए अडानी के तीव्र विकास की असलियत का खुलकर पब्लिक विमर्श में आना एक शुभ संकेत है। इसकी मार दिल्ली की गद्दी पर बैठे हुए कॉरपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के फासिस्ट तानाशाह की कुर्सी तक अवश्य जायेगी। इसी कारण संघ नियंत्रित सभी गैंग तिलमिला गए हैं और बिना देर किए सभी तरह के राष्ट्रवादी- सांस्कृतिक- नैतिक पाखंड के आवरण को फेककर मोर्चे पर आ डटे हैं।संघ ने अडानी के बचाव की कमान सीधे अपने हाथ में संभाल ली है। (मारीशस की सेल कंपनियों के पूंजी किसकी है असलियत समझिए)

 निष्कर्ष

हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट के चलते दुनिया के सबसे शातिर फासीवादी संगठन को मुखौटा उतारकर अडानी के पक्ष में आने के लिए बाध्य होना पड़ा। यह स्पष्ट हो गया है कि फासीवाद कॉरपोरेट पूंजी का सबसे क्रूर और धूर्त चेहरा होता है। जो उसकी रक्षा के लिए राष्ट्र, संस्कृति और धर्म का खोल ओढ़े रहता है। लेकिन अंततोगत्वा उसकी आखरी स्वामिभक्ति पूंजी के मालिकों के प्रति ही होती है। बाकी सब पाखंड धूर्तता और क्रूरता के सम्मिश्रण के अलावा कुछ नहीं है।

इस समय राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को लेकर चल रहा विचार-विमर्श भारत सहित दुनिया के लोकतांत्रिक जनता की चेतना को उन्नत करेगा और भारत की लोकतांत्रिक ताकतों को नई शक्ति और साहस देगा। जिससे वह कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के विनाशकारी अभियान से लोकतंत्र, संविधान और देश को बचाने के लिए और ज्यादा मजबूती के साथ खड़े हो सकेंगे।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता हैं)

    

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