धन का संकेन्द्रण और समाज में आर्थिक असमानता कोई नई घटना नहीं है, बल्कि यह इतिहास में विभिन्न रूपों में प्रकट होती रही है। संपत्ति का अत्यधिक केंद्रीकरण समाज में न केवल आर्थिक असंतुलन लाता है, बल्कि यह सत्ता और नीति-निर्धारण को भी प्रभावित करता है। आधुनिक पूँजीवाद, विशेष रूप से वित्तीय पूँजीवाद और तकनीकी इनोवेशंस के युग में, ऐसी संरचनाएँ बना चुका है जहाँ संपत्ति का प्रवाह श्रम से नहीं, बल्कि पूँजी के स्वचालित पुनरुत्पादन से संचालित होता है। थॉमस पिकेटी जैसे अर्थशास्त्रियों ने भी दिखाया है कि पूँजीगत लाभ की वृद्धि दर अक्सर आर्थिक विकास से अधिक होती है, जिससे संपत्ति कुछ हाथों में संकेंद्रित होती चली जाती है। सुपर-अमीरों के उदय का वर्तमान दौर इसी आर्थिक प्रवृत्ति का परिणाम है, जहाँ संपत्ति की मात्रात्मक वृद्धि ने उसे गुणात्मक रूप से भी अभूतपूर्व बना दिया है।
धन का यह असमान वितरण केवल संख्याओं की बाज़ीगरी नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक सत्ता के पुनर्गठन की गहरी प्रक्रिया है। जब 1987 में पहली बार Forbes ने अरबपतियों की सूची प्रकाशित की, तब शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि कुछ दशकों बाद दुनिया ऐसे सुपर-अरबपतियों की दुनिया बन जाएगी, जिनकी संपत्ति संप्रभु राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं को टक्कर देगी। आज एलन मस्क अकेले ही 419.4 अरब डॉलर की संपत्ति के मालिक हैं-यानी 1987 के सबसे धनी व्यक्ति योशिआकी त्सुत्सुमी की संपत्ति से 21 गुना अधिक!
लेकिन यह केवल संपत्ति का विस्तार नहीं, बल्कि पूंजीवादी संरचना के मूल में छिपे उस यथार्थ का पर्दाफाश है, जिसे अक्सर ‘प्रगति’ और ‘तकनीकी नवाचार’ की आड़ में छिपा दिया जाता है। आधुनिक अरबपतियों की दौलत का स्रोत अब कोई ठोस औद्योगिक उत्पादन नहीं, बल्कि स्टॉक मार्केट, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स, और डेटा के एकाधिकार में छिपा है। एंड्रयू कार्नेगी ने इस्पात उद्योग पर कब्जा किया था, रॉकफेलर ने तेल पर राज किया, लेकिन आज के सुपर-अरबपति केवल सट्टा बाज़ार और तकनीकी नियंत्रण के दम पर समाज के संसाधनों को चूस रहे हैं।
आज दुनिया में 24 सुपर-अरबपति हैं, जिनकी कुल संपत्ति 3.3 ट्रिलियन डॉलर है-यह आंकड़ा फ्रांस की संपूर्ण जीडीपी के बराबर है। यह धन केवल संख्याओं में नहीं बढ़ा, बल्कि इसका वास्तविक प्रभाव दुनिया की सामाजिक और आर्थिक संरचना को बदलने में हुआ है। क्योंकि इन व्यक्तियों की संपत्ति केवल उनकी व्यक्तिगत ताकत नहीं, बल्कि पूरे पूंजीवादी ढांचे की प्रकृति को दर्शाती है।
आज 1% सबसे अमीर अमेरिकी परिवारों की कुल संपत्ति 49.2 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच चुकी है जो कुल अमेरिकी संपत्ति का 30% है। 1980 के दशक में 1% सबसे अमीर अमेरिकी परिवारों की संपत्ति कुल अमेरिकी संपत्ति का 23% ही थी। साफ़ है कि पूरी अर्थव्यवस्था का झुकाव कुछ मुट्ठीभर लोगों की ओर हो चुका है। इस दौर में जहां मध्यमवर्गीय परिवार रहने के लिए घर खरीदने तक के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं अरबपतियों के लिए 100 मिलियन डॉलर के व्यक्तिगत रियल एस्टेट पोर्टफोलियो बनाना सामान्य बात हो गई है। सुपर-अरबपतियों का यह उभार कोई संयोग नहीं, बल्कि पूंजीवाद का अनिवार्य परिणाम है। अर्थशास्त्री जोसफ स्टिग्लिट्ज़ ने सही कहा है-“आज की तकनीकी कंपनियां केवल बाजार पर एकाधिकार कायम करने और टैक्स चोरी करने के लिए काम कर रही हैं।“
एलन मस्क अकेले स्पेसएक्स, टेस्ला और X (पूर्व में ट्विटर) को नियंत्रित करते हैं-अर्थात वे अंतरिक्ष से लेकर सोशल मीडिया तक, हर जगह लोगों की सोच और संसाधनों पर असर डाल सकते हैं। जेफ बेज़ोस के पास वॉशिंगटन पोस्ट है, और मार्क ज़करबर्ग के पास इंस्टाग्राम, फेसबुक और थ्रेड्स। जब अरबपतियों के हाथों में मीडिया, टेक्नोलॉजी और राजनीति का नियंत्रण होता है, तो सत्ता की पारंपरिक परिभाषाएं धुंधली हो जाती हैं। पहले पूंजीवादी राज्य उद्योगपतियों से अलग दिखता था, लेकिन अब राजनीतिक सत्ता और आर्थिक सत्ता का ऐसा घालमेल हो चुका है कि लोकतंत्र केवल दिखावा बनकर रह गया है।
इतिहास बताता है कि जब कभी भी संपत्ति का केंद्रीकरण इस स्तर पर हुआ है, तब आर्थिक और सामाजिक विद्रोह अपरिहार्य बन जाते हैं। लेकिन आधुनिक सुपर-अरबपतियों के पास इतने संसाधन हैं कि वे किसी भी विद्रोह को दबाने के लिए टेक्नोलॉजी का उपयोग कर सकते हैं।
तो क्या जल्दी ही दुनिया का पहला ट्रिलियनेयर देखने को मिलेगा? संभावना तो है। लेकिन असली सवाल यह नहीं कि पहला ट्रिलियनेयर कौन बनेगा, बल्कि यह है कि क्या समाज इस दिशा में बिना किसी प्रतिरोध के आगे बढ़ेगा? इतिहास ने हमें सिखाया है कि जब सत्ता का अत्यधिक केंद्रीकरण होता है, तो या तो नया क्रांतिकारी बदलाव आता है, या फिर समाज पतन की ओर बढ़ता है। तो अगला कदम क्या होगा? सुपर-अरबपतियों के इस दौर में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है-क्या हम इस आर्थिक तानाशाही को स्वीकार कर लेंगे, या इसके खिलाफ खड़े होंगे? पूंजीवाद की यह राक्षसी प्रवृत्ति अब अपने चरम पर है, और इतिहास गवाह है कि कोई भी प्रणाली जब अपने चरम पर पहुंचती है, तो या तो वह नष्ट हो जाती है या बदल जाती है।
जब धन कुछ मुट्ठीभर हाथों में सिमट जाता है, तो सभ्यता का संतुलन डगमगाने लगता है। इतिहास गवाह है कि साम्राज्यों की चकाचौंध के पीछे अनगिनत श्रमिकों की छायाएँ होती हैं, जिनके श्रम से संपत्ति का सृजन होता है, परंतु स्वामित्व कुछ ही लोगों का होता है। जब पूँजी श्रम पर हावी हो जाती है, तो श्रमिक अपनी ही कृतियों से पराया हो जाता है। आज वही चक्र लौट रहा है-बाजार स्वचालित हो रहे हैं, पर श्रमजीवी और अधिक पराधीन। क्या यह पूँजीवाद की पराकाष्ठा है, या उसके पतन की प्रस्तावना? जब संपत्ति का अंबार गगनचुंबी हो जाए, और धरती पर विषमता की गहराई बढ़ जाए, तो कहीं ऐसा न हो कि श्रम की आग पुनः धधक उठे और संतुलन का नया सवेरा उदित हो!
(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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